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सिविल कानून
रेलवे अधिनियम की धारा 66
13-Jun-2025
भारत संघ बनाम मेसर्स कामाख्या ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड इत्यादि रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 66 के अधीन माल/खेप के परिदान के पश्चात् रेलवे द्वारा मिथ्या घोषित माल के लिये जुर्माना अधिरोपित किया जा सकता है। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति पी.के. मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति पी.के. मिश्रा की पीठ ने भारत संघ बनाम मेसर्स कामाख्या ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड आदि मामले में निर्णय सुनाया कि रेलवे अधिनियम, 1989 (अधिनियम) की धारा 66 के अधीन रेलवे द्वारा माल/खेप के परिदान के पश्चात् मिथ्या घोषित माल के लिये जुर्माना अधिरोपित किया जा सकता है।
यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मेसर्स कामाख्या ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड इत्यादि (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
प्रारंभिक विवाद:
- भारतीय संघ (रेलवे प्राधिकारियों) ने विभिन्न तिथियों पर कई प्रत्यर्थियों के विरुद्ध मांग नोटिस (demand notices) जारी किये :
- 13 अक्टूबर 2011
- 7 अप्रैल 2012
- 29 अक्टूबर 2011
- 7 अप्रैल 2012
- उक्त मांग नोटिस में यह अभिकथित किया गया कि प्रत्यर्थियों द्वारा भारतीय रेलवे के माध्यम से प्रेषित माल के संबंध में मिथ्या घोषणा की गई थी।
- प्रत्यर्थियों ने विरोध स्वरूप मांगी गई राशि का संदाय कर दिया।
रेलवे दावा अधिकरण:
- मांगों का संदाय करने के पश्चात्, प्रत्यर्थियों ने रेलवे दावा अधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा 16 के अधीन अलग-अलग दावा याचिकाएं दायर कीं ।
- रेलवे दावा अधिकरण, गुवाहाटी पीठ के समक्ष OA Nos. 229/12, 184/12, 228/12 और 185/2012 में दावे दायर किये गए।
- प्रत्यर्थियों ने संदाय की गई राशि वापस करने की मांग करते हुए तर्क दिया कि माल के परिदान के पश्चात् जारी किये गए मांग नोटिस रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 73 और 74 के अधीन अवैध थे।
- अधिकरण ने 19 जनवरी 2016 के सामान्य आदेश द्वारा दावा याचिकाओं को स्वीकार कर लिया ।
- अधिकरण ने 6% वार्षिक ब्याज के साथ धनराशि वापस करने का निदेश दिया:
- सी.एम. ट्रेडर्स: रु. 4,47,965/-
- विनायक लॉजिस्टिक्स: रु. 4,97,342/-
- कामाख्या ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड: रु. 3,07,902/- और रु. 15,12,959/-
- अधिकरण ने भारत संघ बनाम मेघा टेक्निकल एंड इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड (2013) में गुवाहाटी उच्च न्यायालय के निर्णय पर विश्वास किया।
गुवाहाटी उच्च न्यायालय:
- रेलवे प्राधिकारियों ने अधिकरण के आदेश के विरुद्ध गुवाहाटी उच्च न्यायालय में अपील की।
- अपीलें MFA सं. 80/2016, 57/2016, 29/2017, तथा 28/2017 के रूप में दायर की गईं।
- रेलवे प्राधिकारियों ने तर्क दिया कि अधिकरण इस बात पर विचार करने में असफल रहा कि माल को एक श्रेणी घोषित करके बुक किया गया था, किंतु लोड की गई वस्तुएँ भिन्न थीं।
- उच्च न्यायालय ने 20 दिसंबर 2021 के निर्णय द्वारा अपीलों को खारिज कर दिया।
- उच्च न्यायालय ने अधिकरण के आदेश की पुष्टि की।
उच्चतम न्यायालय:
- रेलवे अधिकारियों ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिकाएँ (SLP(C) Nos.11566-11569/2022) दायर कीं।
- अनुमति प्रदान कर दी गई और विशेष अनुमति याचिका को सिविल अपील संख्या 7376-7379/2025 में परिवर्तित कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
रेलवे अधिकारियों का मामला:
- निचले न्यायालय ने गलती से इस विवाद को मिथ्या घोषणा के मामले के बजाय वैगन पर अधिक भार (धारा 73 के अधीन) मान लिया।
- माल से संबंधित वास्तविक मामले घोषित श्रेणी से भिन्न पाए गए, जिसके कारण अधिनियम की धारा 66 के अंतर्गत जुर्माना अधिरोपित किया गया।
- उच्च न्यायालय का जगजीत कॉटन टेक्सटाइल मामले पर विश्वास करना गलत था, क्योंकि यह ओवरलोडिंग और धारणाधिकार के अधिकार से संबंधित था।
- धारा 83 परिदान के पश्चात् माल को रोके रखने की अनुमति देती है।
प्रत्यर्थियों का मामला:
- चूंकि मांग नोटिस माल के परिदान के पश्चात् जारी किये गए थे, इसलिये धारा 66 लागू नहीं थी।
- निचले न्यायालय सही मायने में प्रत्यर्थियों के पक्ष में निर्णय देते हैं।
उच्चतम न्यायालय का विश्लेषण:
- मांग नोटिस मिथ्या घोषणा के लिये थे, माल डब्बा (वैगन) में अधिक भार होने के लिये नहीं।
- वर्तमान मामले में धारा 66 लागू होती है , धारा 73 नहीं।
- मांग नोटिस वास्तविक प्रकृति के पाए गए।
- जगजीत कॉटन टेक्सटाइल मामले में उच्च न्यायालय का निर्वचन गलत था।
- जगजीत कॉटन टेक्सटाइल में परिदान से पूर्व दण्डात्मक शुल्क वसूलने के बारे में की गई टिप्पणी धारा 54(1) के अधीन केवल एक सुझाव था, जो धारा 66 पर लागू नहीं होता।
अंतिम निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय के 20 दिसंबर 2021 के आदेश को अपास्त कर दिया।
- रेलवे प्राधिकारियों के पक्ष में सिविल अपील स्वीकार कर ली गई।
- लंबित आवेदनों का निपटारा किया गया।
संबंधित विधिक उपबंध क्या हैं?
रेलवे अधिनियम, 1989:
- रेलवे अधिनियम, 1989 देश में रेल परिवहन के सभी पहलुओं को नियंत्रित करने के लिये भारतीय संसद द्वारा अधिनियमित एक विधि है।
- यह 1890 के रेलवे अधिनियम को प्रतिस्थापित करते हुए 1989 में लागू हुआ।
- यह अधिनियम रेलवे जोनों, रेलवे अवसंरचना के निर्माण और रखरखाव, साथ ही यात्रियों और रेलवे कर्मचारियों से संबंधित सेवाओं से संबंधित विधिक उपबंधों को व्यापक रूप से रेखांकित करता है।
रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 66:
धारा 66 - माल के वर्णन से संबंधित कथन की अपेक्षा करने की शक्ति
- उपधारा (1):
- कोई व्यक्ति जो रेलवे परिवहन हेतु माल लाया है, अथवा जो उन वस्तुओं का स्वामी या भारसाधक है, उसे एक लिखित कथन प्रदान करना अनिवार्य है।
- प्राधिकृत रेलवे कर्मचारियों द्वारा अनुरोध किये जाने पर परेषिती या पृष्ठांकिती को भी विवरण उपलब्ध कराना होगा।
- विवरण में माल का विवरण अवश्य होना चाहिये जिससे परिवहन दर का निर्धारण किया जा सके।
- उपधारा (2):
- यदि स्वामी/व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर विवरण देने या पैकेज खोलने से इंकार कर दे।
- रेलवे प्रशासन माल ढुलाई के लिये स्वीकार करने से इंकार कर सकता है।
- वैकल्पिक: किसी भी वर्ग के सामान के लिये उच्चतम दर वसूल सकता है।
- उपधारा (3):
- यदि परेषिती/ पृष्ठांकिती विवरण देने या पैकेज खोलने से इंकार करता है।
- रेलवे प्रशासन किसी भी श्रेणी के माल के परिवहन के लिये उच्चतम दर वसूल सकता है।
- उपधारा (4):
- यदि माल के विवरण के संबंध में कथन वास्तविक रूप से मिथ्या है।
- रेलवे प्रशासन किसी भी श्रेणी के सामान के लिये उच्चतम दर से दोगुनी दर से अधिक दर नहीं वसूल सकता।
- दर केंद्रीय सरकार द्वारा निर्दिष्ट की जाएगी।
- उपधारा (5):
- यदि माल के विवरण के संबंध में कोई मतभेद उत्पन्न होता है।
- रेलवे कर्मचारी माल को रोककर उसकी जांच कर सकते हैं।
- उपधारा (6):
- जब माल को परीक्षा के लिये निरुद्ध किया जाता है और वह बताए गए विवरण से भिन्न पाया जाता है।
- निरोध और परीक्षा का खर्च स्वामी/व्यक्ति/ परेषिती/ पृष्ठांकिती द्वारा वहन किया जाएगा।
- रेलवे प्रशासन निरोध/परीक्षा के कारण किसी भी हानि, नुकसान या क्षय के लिये दायी नहीं है।
इस धारा के मुख्य तत्त्व:
- धारा 66 में यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि किस स्तर (परिदान से पूर्व या पश्चात् में) पर वहन अधिरोपित किया जा सकता है।
- विधायी आशय किसी भी स्तर पर धारा 66 के अंतर्गत वहन अधिरोपित करने की अनुमति देता है।
- केवल माल के परिदान से पूर्व जुर्माना अधिरोपित करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
- धारा 66, धारा 73 (अतिरिक्त भार) और धारा 78 (वितरण से पूर्व पुनः माप) से भिन्न है।
सिविल कानून
मूल विक्रय करार का पंजीकृत न होना
13-Jun-2025
महनूर फातिमा इमरान एवं अन्य बनाम मेसर्स विश्वेश्वर इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य "यदि मूल विक्रय करार पंजीकृत नहीं था, तो यह केवल इसलिये वैध हक़ प्रदान नहीं कर सकता है क्योंकि उस अपंजीकृत विलेख के आधार पर बाद में किया गया संव्यवहार पंजीकृत कर लिया गया था"। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने महनूर फातिमा इमरान एवं अन्य बनाम मेसर्स विश्वेश्वर इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले में यह माना कि यदि मूल विक्रय करार पंजीकृत नहीं है, तो केवल इसलिये वैध हक़ प्रदान नहीं किया जा सकता कि उस अपंजीकृत विलेख के आधार पर बाद में किया गया संव्यवहार पंजीकृत कर लिया गया।
महनूर फातिमा इमरान एवं अन्य बनाम मेसर्स विश्वेश्वर इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
मूल भूमि स्वामित्व एवं प्रारंभिक संव्यवहार:
- मूल स्वामी: मोहम्मद रुकनुद्दीन अहमद सहित 11 व्यक्तियों के पास सर्वे संख्या 83, गांव रायदुर्ग (पनमकथा), रंगा रेड्डी जिला, आंध्र प्रदेश में 526.07 एकड़ जमीन थी।
- जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी: 07 जुलाई 1974 को, मालिकों ने श्री वेंकटेश्वर एंटरप्राइजेज पार्टनरशिप फर्म के पक्ष में एक पंजीकृत GPA निष्पादित किया।
- विषय संपत्ति: कुल 525.31 एकड़ में से 53 एकड़ इस मामले में विवादित भूमि थी।
भूमि सुधार अधिनियमों के अंतर्गत सांविधिक कार्यवाही:
- भूमि सुधार अधिनियम का अनुप्रयोग: जब आंध्र प्रदेश भूमि सुधार (कृषि जोतों पर अधिकतम सीमा) अधिनियम, 1973 01 जनवरी 1975 को लागू हुआ, तो मालिकों ने 11 घोषणाएँ दायर कीं।
- राज्य का कब्ज़ा: 4 घोषणाकर्त्ताओं के हाथों में लगभग 99.07 एकड़ ज़मीन अधिशेष पाई गई और 11 अप्रैल 1975 को राज्य द्वारा कब्ज़ा ले लिया गया।
- भूमि अधिकतम सीमा अधिनियम घोषणाएँ: मालिकों ने अपने GPA के माध्यम से शहरी भूमि (अधिकतम सीमा एवं विनियमन) अधिनियम, 1976 की धारा 6(1) के तहत घोषणाएँ दायर कीं।
- अंतिम विवरण: 16 सितंबर 1980 और 30 जनवरी 1980 को जारी किये गए, जिसमें प्रत्येक घोषणाकर्त्ता के लिये अधिशेष क्षेत्र की घोषणा की गई।
- सरकारी अधिसूचना: 19 दिसंबर 1980 को GOMS संख्या 5013 ने अधिशेष भूमि को राज्य में निहित कर दिया।
- HUDA आवंटन: राज्य ने धारा 23 के तहत हैदराबाद शहरी विकास प्राधिकरण को 470.33 एकड़ जमीन आवंटित की।
विक्रय करार और उसके बाद की मुकदमेबाजी:
- विक्रय करार: 19 मार्च 1982 को, GPA धारक ने भूमि सीमा (125.35 एकड़ या 99.17 एकड़ पर विवाद) के लिये मेसर्स भावना सहकारी आवास सोसायटी लिमिटेड के साथ विक्रय का करार किया।
- प्रतिफल: भुगतान के हिस्से के रूप में चेक द्वारा 50,000/- रुपये का भुगतान किया गया, शेष राशि भूमि सीलिंग अधिनियम के तहत अनुमति प्राप्त करने के छह महीने के भीतर चुकाई जानी थी।
- पंजीकरण अधिनियम का उल्लंघन: पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 17 के तहत अनिवार्य रूप से पंजीकृत होने के बावजूद करार पंजीकृत नहीं किया गया था।
- धारा 23 के अंतर्गत प्रावधानित समय सीमा: पंजीकरण अधिनियम की धारा 23 के अनुसार निष्पादन तिथि (19 मार्च 1982) से चार महीने के भीतर पंजीकरण के लिये करार प्रस्तुत किया जाना चाहिये था।
- धारा 49 का परिणाम: पंजीकरण अधिनियम की धारा 49 के अनुसार अपंजीकृत करार अचल संपत्ति को प्रभावित नहीं कर सकता है।
- विनिर्दिष्ट पालन वाद: भावना सोसाइटी ने विनिर्दिष्ट पालन के लिये 1991 का ओ.एस.सं.248 दायर किया।
- मुकदमा खारिज: 06 अप्रैल 2001 को चूक के कारण वाद खारिज; 23 फरवरी 2004 को बहाली आवेदन भी खारिज कर दिया गया।
- करार का सत्यापन: विक्रय करार को 11 सितंबर 2006 को रंगा रेड्डी जिले के सहायक रजिस्ट्रार द्वारा मान्य किया गया।
- छलपूर्ण सत्यापन: जिला रजिस्ट्रार, करीमनगर ने 12 अगस्त 2015 के आदेश द्वारा सत्यापन को छलपूर्ण माना।
उच्च न्यायालय:
- रिट याचिका दायर की गई: रिट याचिकाकर्त्ताओं (प्रतिवादी) द्वारा 2016 की डब्ल्यू.पी. संख्या 30855 दायर की गई, जिसमें TSIICएल को 53 एकड़ भूमि में प्रवेश करने से रोकने की मांग की गई।
- एकल न्यायाधीश का निर्णय: याचिकाकर्त्ताओं के पास कोई वैध हक़ नहीं होने तथा विक्रय करार के छलपूर्ण सत्यापन का पता चलने पर रिट याचिका को खारिज कर दिया गया।
- डिवीजन बेंच अपील: डिवीजन बेंच ने अपील को अनुमति दी, कुल 525.31 एकड़ में से 53 एकड़ को पृथक किया, पहले की रिट याचिकाओं में अंतरिम आदेशों पर भरोसा किया।
- अंतरिम आदेशों पर भरोसा किया गया:
- 2011 की डब्ल्यू.पी. संख्या 29547 - लोकायुक्त को आगे कार्यवाही करने से रोकना।
- 2012 की डब्ल्यू.पी. संख्या 4466 - रिट याचिकाकर्त्ताओं द्वारा निर्मित किये गए ढाँचों को गिराने पर रोक।
उच्चतम न्यायालय:
- अपील दायर: मूल मालिकों (अपीलकर्त्ताओं) के विधिक उत्तराधिकारियों ने डिवीजन बेंच के फैसले के खिलाफ अपील दायर की।
- उच्चतम न्यायालय की सुनवाई: न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन ने सुनवाई की।
- अंतिम निर्णय: उच्चतम न्यायालय ने सिंगल जज के फैसले को बहाल किया, डिवीजन बेंच के फैसले को खारिज कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
हक़ एवं कब्जे के मुद्दे पर:
- कोई वैध हक़ स्थापित नहीं हुआ: रिट याचिकाकर्त्ता विवादित 53 एकड़ भूमि पर वैध हक़ स्थापित करने में विफल रहे।
- संदिग्ध हक़: न्यायालय ने प्रथम दृष्टया हक़ को संदिग्ध पाया, जिससे रिट याचिकाकर्त्ताओं को वैध कब्जे का दावा करने से वंचित कर दिया गया।
- कब्जा सिद्ध नहीं हुआ: रिट याचिकाकर्त्ताओं द्वारा न तो वास्तविक तथा न ही भौतिक कब्जा सिद्ध किया गया।
- अंतरिम आदेश अपर्याप्त: पहले की रिट याचिकाओं में अंतरिम आदेशों पर केवल निर्भरता वास्तविक भौतिक कब्जे को स्थापित नहीं कर सकती।
विक्रय करार और पंजीकरण अधिनियम का उल्लंघन:
- अनिवार्य पंजीकरण की अनदेखी: 1982 के विक्रय करार को पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 17 के तहत अनिवार्य रूप से पंजीकृत किया जाना चाहिये था क्योंकि यह अचल संपत्ति में हक/हित स्थापित करने का दावा करता था।
- धारा 49 का अनुप्रयोग: न्यायालय ने नोट किया कि पंजीकरण अधिनियम की धारा 49 के अनुसार अपंजीकृत करार अचल संपत्ति को प्रभावित नहीं कर सकता।
- समय सीमा का उल्लंघन: 19 मार्च 1982 को करार निष्पादित किया गया लेकिन पंजीकरण अधिनियम की धारा 23 के अनुसार चार महीने के अंदर पंजीकरण के लिये प्रस्तुत नहीं किया गया।
- अमान्य सत्यापन: 2006 का सत्यापन सभी सांविधिक समय सीमाओं की समाप्ति के बाद अपंजीकरण के मौलिक दोष को ठीक नहीं कर सका।
- पंजीकरण अधिनियम का उद्देश्य: न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि पंजीकरण अधिनियम को सांपत्तिक संव्यवहार में व्यवस्था, अनुशासन, सार्वजनिक सूचना और छल से सुरक्षा प्रदान करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
राज्य के अधिकार और सांविधिक अधिकारिता के मुद्दे पर:
- वैध सांविधिक अधिकारिता: भूमि सुधार अधिनियम के तहत 99.07 एकड़ भूमि वैध रूप से राज्य में निहित थी।
- राज्य का सर्वोपरि अधिकार: राज्य के पास भूमि पर पूर्ण अधिकार है तथा सर्वोपरि अधिकार की शक्ति है।
- APIIC आवंटन अंतिम: APIIC (अब TSIICL) को 424.13 एकड़ आवंटन अंतिम रूप से प्राप्त हुआ है।
- धारा 9-A का आह्वान: राज्य मामलों को फिर से खोलने के लिये भूमि सुधार अधिनियम की धारा 9-A को लागू कर सकता है।
पक्षकारों का आचरण:
- धोखा और छल: न्यायालय ने पाया कि अधिकारियों के समक्ष परस्पर विरोधी दावे करने में छल का प्रयोग किया गया।
- एकाधिक संव्यवहार: लगातार संव्यवहार सांविधिक अधिकार को विफल करने के लिये किये गए थे।
- सीबीआई जाँच: विक्रय विलेखों के कारण सीबीआई जाँच हुई, जहाँ उन्हें छल वाला पाया गया।
- आपराधिक कार्यवाही: रिट याचिकाकर्त्ताओं और उनके निदेशकों के खिलाफ आपराधिक कानून के तहत कार्यवाही शुरू की गई।
संबंधित प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?
पंजीकरण अधिनियम, 1908:
पंजीकरण अधिनियम, 1908 का परिचय |
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क्रम संख्या. |
पहलू |
सूचना |
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शीर्षक |
पंजीकरण अधिनियम, 1908 |
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अधिनियम संख्या |
1908 का अधिनियम संख्या 16 |
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अधिनियमित होने की तिथि |
18 दिसंबर 1908 |
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लागू होने तिथि |
1 जनवरी 1909 |
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अधिकारिता का विस्तार |
इसका विस्तार पूर्ववर्ती जम्मू एवं कश्मीर राज्य को छोड़कर (अब पूर्णतः लागू) सम्पूर्ण भारत पर है। |
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उद्देश्य |
दस्तावेजों के पंजीकरण से संबंधित अधिनियमों को समेकित करना। |
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घटक |
कुल धाराएँ: 93 कुल भाग: 15 अनुसूची: 1 (निरसित) |
मामले में संदर्भित पंजीकरण अधिनियम की प्रासंगिक धाराएँ:
धारा |
शीर्षक |
विवरण |
17 |
वे दस्तावेज जिनका पंजीकरण अनिवार्य है |
अनिवार्य पंजीकरण हेतु आवश्यक दस्तावेज: यदि अचल संपत्ति से संबंधित है और अधिनियम लागू होने के बाद निष्पादित किया गया है: (a) अचल संपत्ति के दान के दस्तावेज। (b) अचल संपत्ति में ₹100 या उससे अधिक का कोई अधिकार, हक या हित (वर्तमान या भविष्य, निहित या आकस्मिक) बनाने, घोषित करने, सौंपने, सीमित करने या समाप्त करने वाले गैर-वसीयती दस्तावेज। (c) उपरोक्त अधिकारों से संबंधित प्रतिफल की प्राप्ति/भुगतान को स्वीकार करने वाले दस्तावेज। (d) अचल संपत्ति के पट्टे:
(e) न्यायालयों या मध्यस्थों के आदेशों या पंचाटों का बिना वसीयत के अंतरण/समनुदेशन जो 100 रुपये या उससे अधिक की अचल संपत्ति में अधिकारों को प्रभावित करते हैं। कुछ पट्टों के लिये छूट:
संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 53A के तहत संविदा:
वे दस्तावेज जिनके लिये पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है: निम्नलिखित दस्तावेजों को धारा 17(1)(b) और (c) के तहत पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है: (i) समझौता विलेख। (ii) संयुक्त स्टॉक कंपनी में शेयरों से संबंधित लिखत, भले ही संपत्ति शामिल हो। (iii) ऋणपत्र जो अचल संपत्ति के अधिकारों को प्रभावित नहीं करते हैं, जब तक कि पंजीकृत लिखत द्वारा सुरक्षित न हों। (iv) ऋणपत्रों का समर्थन/अंतरण। (v) ऐसे दस्तावेज जो केवल किसी अन्य दस्तावेज को प्राप्त करने का अधिकार बनाते हैं, न कि स्वयं अधिकार। (vi) न्यायालय के आदेश/आदेश, बाहरी अचल संपत्ति से जुड़े समझौता आदेशों को छोड़कर। (vii) सरकार द्वारा अनुदान। (viii) राजस्व अधिकारियों द्वारा विभाजन के लिखत। (ix) भूमि सुधार अधिनियमों के तहत ऋण आदेश/सुरक्षा लिखत। (x) कृषक ऋण अधिनियम या संबंधित प्रतिभूतियों के तहत ऋण। (xa) धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1890 के तहत आदेश। (xi) बंधक-विलेखों पर समर्थन जिसमें भुगतान स्वीकार किया जाता है (बंधक को समाप्त नहीं किया जाता है)। (xii) सिविल/राजस्व अधिकारियों द्वारा नीलामी से विक्रय के प्रमाण पत्र। स्पष्टीकरण:
दत्तक ग्रहण प्राधिकरणों का पंजीकरण:
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23 |
दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का समय |
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49 |
पंजीकृत किये जाने हेतु आवश्यक दस्तावेजों के पंजीकरण न होने का प्रभाव |
निम्नलिखित के अंतर्गत पंजीकृत होने के लिये किसी दस्तावेज़ की आवश्यकता नहीं है:
अपवाद (परंतुक):
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