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आपराधिक कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन अंतरिम आदेश

 07-Jul-2025

टाइटस बनाम केरल राज्य और अन्य 

उपरोक्त निर्णय में प्रतिपादित विधि का सार यह है कि केवल उन्हीं मामलों में जहाँ कार्यवाही में स्पष्ट अवैधता एवं घोर अनियमितता विद्यमान हो, उच्च न्यायालय द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग कर, घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम (PWDV Act) के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेशों को बाधित करना न्यायसंगत होगा।” 

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, सुधांशु धूली और एस.वी.एन. भट्टी 

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जी. गिरीश नेकहा है किभारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528के अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) के अधीन अंतरिम आदेशों को अपास्त करने के लिये नहीं किया जा सकता है, जब तक कि कोई स्पष्ट विधिक त्रुटि या न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित न हो 

  • केरलउच्च न्यायालय नेटाइटस बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

टाइटस बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • विवाद की प्रकृति : वेल्लनाडु ग्राम न्यायालय द्वारा घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (PWDV Act) की धारा 12(1) के अंतर्गत एक अंतरिम आदेश (interim order) पारित किया गया। यह धारा एक पीड़ित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी को घरेलू हिंसा के मामलों के लिये मजिस्ट्रेट से अनुतोष मांगने की अनुमति देती है। 
  • याचिकाकर्त्ता की कार्रवाई: प्रभावित पक्ष ने इस अंतरिम आदेश को अपास्त करने की मांग करते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक विविध मामला (Crl.MC) दायर किया। याचिका भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के अधीन दायर की गई थी।  
  • रजिस्ट्री की चिंता: न्यायालय रजिस्ट्री ने प्रक्रियागत दोष की पहचान की और याचिका को केस नंबर नहीं दिया। रजिस्ट्री ने प्रश्न उठाया कि क्या याचिका भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन पोषणीय है, यह देखते हुए कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (PWDV Act) की धारा 29 में पहले से ही ऐसे आदेशों के विरुद्ध अपील तंत्र प्रदान किया गया है। 
  • विधिक ढाँचा: 
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 (पूर्व में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482) उच्च न्यायालयों को किसी भी आदेश को प्रभावी करने, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय सुनिश्चित करने के लिये आदेश पारित करने की अंतर्निहित शक्तियां प्रदान करती है। 
    • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 29 मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध सेशन न्यायालय में अपील का विशिष्ट मार्ग प्रदान करती है। 
    • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम एक कल्याणकारी विधि है जो विशेष रूप से महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया है। 
  • प्रक्रियागत मुद्दा: मुख्य प्रश्न यह था कि क्या उच्च न्यायालय को अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये, जब घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम के अधीन पहले से ही एक सांविधिक अपील उपचार विद्यमान है, और क्या अंतरिम आदेश में कोई स्पष्ट अवैधता या स्पष्ट अनियमितता निहित थी जो इस प्रकार के हस्तक्षेप को उचित ठहराएगी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने विजयलक्ष्मी अम्मा वी.के. (डॉ.) एवं अन्य बनाम बिंदु वी. एवं अन्य (2010), नरेश पॉटरीज बनाम आरती इंडस्ट्रीज (2025) तथा सौरभ कुमार त्रिपाठी बनाम विधि रावल (2025) जैसे उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर विश्वास करते हुए विधिक ढाँचे की स्थापना की 
  • न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528) के अधीन प्रदत्त असाधारण शक्तियों काप्रयोग घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 18 से 23 के अधीन मजिस्ट्रेटों द्वारा पारित अंतरिम आदेशों को रद्द करने के लिये नहीं किया जा सकता, जब तक कि संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय सुनिश्चित करने के लिये ऐसा करना बिल्कुल आवश्यक न हो। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि चूंकि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को न्याय प्रदान करने के लिये विशेष रूप से लागू की गई कल्याणकारी विधि है, इसलिये धारा 12(1) के अधीन कार्यवाही को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528) के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करते समय उच्च न्यायालयों को बेहद धीमा और सतर्क रहना चाहिये 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया किअंतर्निहित शक्तियों के माध्यम से हस्तक्षेप केवल तभी किया जा सकता है जब घोर अवैधता हो या विधि की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग हो।न्यायालय ने कहा कि केवल स्पष्ट अवैधता और कार्यवाही की घोर अनियमितता के मामलों में ही उच्च न्यायालय को घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम उपबंधों के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेशों को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करने का औचित्य होगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालयों को धारा 12(1) के अधीन आवेदनों को रद्द करने के लिये धारा 482 के अधीन कार्यवाही से निपटने के दौरान सामान्यतः हस्तक्षेप न करने वाला दृष्टिकोण अपनाना चाहिये, क्योंकि अत्यधिक हस्तक्षेप घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 को लागू करने के मूल उद्देश्य को विफल कर देगा।  
  • न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेशों के विरुद्ध धारा 29 के अंतर्गत सेशन न्यायालय में अपील का उपबंध है, जबकि अपराधों के संज्ञान या आदेशिका जारी करने से संबंधित मामलों में अपील का कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। 
  • न्यायालय ने पाया कि विचाराधीन अंतरिम आदेश (Annexure A3) को घोर अवैधता या अनियमितता नहीं माना जा सकता है, तथा यदि पर्याप्त कारण विद्यमान हों तो याचिकाकर्त्ता आदेश में संशोधन या उसे रद्द करने के लिये उसी न्यायालय में जा सकता है। 
  • न्यायालय ने रजिस्ट्री द्वारा सुनवाई योग्यता के संबंध में उल्लेखित दोष को बरकरार रखा, तथा पाया कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 29 के अधीन सांविधिक अपील की उपलब्धता को देखते हुए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन याचिका उचित उपचार नहीं थी। 
  • न्यायालय ने रजिस्ट्री को निदेश दिया कि वह याचिका को याचिकाकर्त्ता को वापस कर दे, तथा अंतर्निहित शक्तियों के उपबंध के अधीन मामले पर विचार करने से प्रभावी रूप से इंकार कर दिया। 

घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन अंतरिम आदेश क्या है? 

धारा 12 - मजिस्ट्रेट से आवेदन: 

  • कौन आवेदन कर सकता है : एक व्यथित व्यक्ति, एक संरक्षण अधिकारी, या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति अधिनियम के अधीन एक या एक से अधिक अनुतोष की मांग करते हुए मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। 
  • अनिवार्य विचार: ऐसे आवेदन पर कोई भी आदेश पारित करने से पहले, मजिस्ट्रेट को संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता से प्राप्त किसी भी घरेलू घटना की रिपोर्ट पर विचार करना होगा। 
  • उपलब्ध अनुतोष के प्रकार: ईप्सित किये गए अनुतोष में घरेलू हिंसा के कारण हुई क्षतियों के लिये प्रतिकर के लिये पृथक् रूप से संस्थित वाद के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना प्रतिकर या क्षति सम्मिलित हो सकती है। 
  • मुजरा संबंधी उपबंध : जहाँ किसी भी न्यायालय द्वारा व्यथित व्यक्ति के पक्ष में प्रतिकर या क्षति के लिये डिक्री पारित की गई है, मजिस्ट्रेट के आदेश के अधीन संदाय की गई राशि को डिक्री राशि के विरुद्ध मुजरा किया जाएगा। 
  • आवेदन पत्र: प्रत्येक आवेदन पत्र विहित प्ररूप में होना चाहिये तथा उसमें विहित विशिष्टयाँ अथवा यथासंभव उसके निकटतम विशिष्टयाँ होनी चाहिये 
  • प्रथम सुनवाई की समय-सीमा : मजिस्ट्रेट सुनवाई की पहली तारीख नियत करेगा, जो सामान्यतः न्यायालय द्वारा आवेदन प्राप्त होने की तारीख से तीन दिन से अधिक नहीं होगी। 
  • निपटान समय-सीमा: मजिस्ट्रेट प्रत्येक आवेदन को उसकी पहली सुनवाई की तारीख से साठ दिनों की अवधि के भीतर निपटाने का प्रयास करेगा। 

धारा 23 - अंतरिम और एकपक्षीय आदेश देने की शक्ति: 

  • सामान्य शक्ति: अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में मजिस्ट्रेट ऐसा अंतरिम आदेश पारित कर सकता है जिसे वह न्यायसंगत और उपयुक्त समझे। 
  • एकपक्षीय आदेश : यदि मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट है कि आवेदन से प्रथम दृष्टया यह पता चलता है कि प्रतिवादी घरेलू हिंसा का कार्य कर रहा है, कर चुका है, या करने की संभावना है, तो वह व्यथित व्यक्ति के शपथपत्र के आधार पर एकपक्षीय आदेश दे सकता है। 
  • एकपक्षीय आदेश का विस्तार: एकपक्षीय आदेश धारा 18 (संरक्षण आदेश), धारा 19 (निवास आदेश), धारा 20 (धनीय अनुतोष), धारा 21 (अभिरक्षा आदेश), या धारा 22 (प्रतिकर आदेश) के अधीन दिये जा सकते हैं। 
  • शपथपत्र की आवश्यकता: एकपक्षीय आदेश व्यथित व्यक्ति द्वारा विहित प्रपत्र में प्रस्तुत शपथपत्र पर आधारित होना चाहिये 

अंतरिम अनुतोष के लिये संबंधित उपबंध: 

  • अवधि: धारा 18 के अंतर्गत संरक्षण आदेश तब तक लागू रहते हैं जब तक व्यथित व्यक्ति उन्मुक्ति के लिये आवेदन नहीं करता (धारा 25)। 
  • संशोधन: यदि परिस्थितियों में ऐसा परिवर्तन हो जिसके लिये ऐसी कार्रवाई की आवश्यकता हो तो मजिस्ट्रेट किसी भी पक्षकार के आवेदन पर किसी भी आदेश को परिवर्तित, संशोधित या रद्द कर सकता है (धारा 25)। 
  • प्रवर्तन: अधिनियम के अंतर्गत पारित सभी आदेश संपूर्ण भारत में प्रवर्तनीय हैं (धारा 27)। 
  • अपील : व्यथित व्यक्ति या प्रतिवादी को आदेश की तामील की तारीख से तीस दिन के भीतर, जो भी बाद में हो, सेशन न्यायालय में अपील की जा सकती है (धारा 29)। 
  • आदेशों का वितरण: मजिस्ट्रेट को पक्षकारों, पुलिस थाने के भारसाधक पुलिस अधिकारी और संबंधित सेवा प्रदाताओं को आदेशों की निःशुल्क प्रतियाँ उपलब्ध करानी होंगी (धारा 24)। 

आपराधिक कानून

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124क

 07-Jul-2025

सफदर नागोरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य 

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 124-क के अधीन कार्यवाही पर रोक लगाने संबंधी इसके वर्ष 2022 के आदेश के प्रभावस्वरूप उच्च न्यायालयों को राजद्रोह के अपराधों में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपीलों का निर्णय करने से रोका जाना चाहिये।” 

न्यायमूर्ति पमिदिघंतम श्री नरसिम्हा और आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

सफदर नागोरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामलेमेंभारत के उच्चतम न्यायालय नेइस बात की जांच की कि क्याभारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 124-क के अधीन कार्यवाही पर रोक लगाने संबंधी इसके वर्ष 2022 के आदेश के प्रभावस्वरूप उच्च न्यायालयों को राजद्रोह के अपराधों में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपीलों का निर्णय करने से रोका जाना चाहिये 

सफदर नागोरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

पृष्ठभूमि: 

  • याचिकाकर्त्ता: सफ़दर नागोरी 
  • दोषसिद्धि: 2017 में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क (राजद्रोह) के साथ अन्य आरोपों के अधीन दोषसिद्ध ठहराया गया।   
  • कारावास अवधि: 18 वर्षों का कारावास (जिससे संकेत मिलता है कि गिरफ्तारी वर्ष 2007 के आसपास हुई)।  
  • अपील की स्थिति: याचिकाकर्त्ता ने अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 

न्यायिक दुविधा: 

  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता की दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील पर पूर्णतः सुनवाई की। 
  • यद्यपि, उच्च न्यायालय नेजी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय के मई 2022 के आदेश का हवाला देते हुए निर्णय सुनाना टाल दिया। 
  • वर्ष 2022 के आदेश में निदेश दिया गया किराजद्रोह विधि की सांविधानिक समीक्षा होने तक "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क के अधीन विरचित किये गए आरोपों के संबंध में सभी लंबित विचारण, अपील और कार्यवाही स्थगित रखी जाएं।" 
  • याचिकाकर्त्ता की अपील केवल राजद्रोह के आरोप से संबंधित है, क्योंकि वह पहले ही अन्य अपराधों के लिये दण्ड भोग चुका है। 

उच्चतम न्यायालय के समक्ष तर्क: 

याचिकाकर्त्ता के तर्क: 

  • याचिकाकर्त्ता की अपील केवल राजद्रोह के आरोप से संबंधित है, क्योंकि वह पहले ही अन्य अपराधों के लिये दण्ड भोग चुका है। 
  • जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामलेमें रोक के आदेश काउद्देश्य कभी भी समाप्त हो चुके मामलों में पूरी तरह से तर्कपूर्ण अपीलों पर लागू होना नहीं था। 
  • वर्ष 2022 के आदेश ने न्यायिक दुविधा उत्पन्न कर दी है, जहाँ उच्च न्यायालय पूरी सुनवाई के बाद भी अपील पर निर्णय देने से इंकार कर रहा हैं। 
  • इस स्थिति में याचिकाकर्ता अपीलीय उपचार से वंचित रहकर निरंतर कारावास में है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। 
  • न्यायालय से यह स्पष्ट करने का आग्रह किया गया कि क्या धारा 124-क के आरोपों से संबंधित अपीलों पर निर्णय तब दिया जा सकता है जब सुनवाई पूर्ण हो चुकी हो तथा कोई नया विचारण या जांच लंबित न हो। 

सांविधानिक निहितार्थ उठाए गए: 

  • संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव। 
  • न्यायिक दक्षता और राजद्रोह विधियों की चल रही सांविधानिक समीक्षा के बीच तनाव। 
  • रोक के आदेश के उद्देश्य को लंबे समय से कारावास में रह रहे लोगों के अधिकारों के साथ संतुलित करने की आवश्यकता है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

न्यायिक पीठ: 

  • इस मामले की सुनवाई दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की गई, जिसमें सम्मिलित थे: 
  • माननीय न्यायमूर्ति श्री पामिदिघंतम श्री नरसिम्हा 
  • माननीय न्यायमूर्ति श्री आर. महादेवन 

मुख्य अवलोकन: 

  • विचारण स्थिति की स्वीकृति: 
    • न्यायालय ने स्वीकार किया कि याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध विचारण “वास्तव में पूर्ण हो चुका है, जिसमें अभियोजन पक्ष तथा बचाव पक्ष द्वारा अंतिम प्रस्तुतीकरण कर दिया गया है।”  
  • 2022 के आदेश का निर्वचन: 
    • न्यायालय ने एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामले में 11 मई 2022 को पारित आदेश के पैराग्राफ 8(घ) के संचालन के बारे में स्पष्टीकरण की आवश्यकता पर ध्यान दिया, जिसमें कहा गया है कि, "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क के अधीन विरचित किये गए आरोपों के संबंध में सभी लंबित विचारण, अपील और कार्यवाही स्थगित रखी जानी चाहियेयदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अभियुक्त पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होगा, तो अन्य धाराओं से संबंधित निर्णय की प्रक्रिया आगे बढ़ सकती है।"  
  • सांविधानिक निहितार्थ: 
    • न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया, जैसा कि याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने अपीलीय उपचार के बिना लंबे समय तक कारावास के संबंध में उजागर किया था। 

न्यायालय का निर्णय और निर्देश: 

  • नोटिस जारी करना: 
    • उच्चतम न्यायालय ने मामले में नोटिस जारी किया, जिसमें संकेत दिया गया कि उसे जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघमें 2022 के आदेश के दायरे के संबंध में उठाए गए प्रश्न की जांच करने में योग्यता मिली । 
  • प्रशासनिक निर्देश: 
    • न्यायालय ने निर्देश दिया कि विशेष अनुमति याचिका कोभारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश से निर्देश प्राप्त करने के बाद 25 जुलाई, 2025 को उपयुक्त पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाए। 
  • सूचीबद्धता करने का महत्त्व: 
    • "उपयुक्त पीठ" के समक्ष सूचीबद्ध करने का निर्देश यह सुझाव देता है कि इस मामले को इसके सांविधानिक निहितार्थों और 2022 के आदेश की आधिकारिक निर्वचन की आवश्यकता को देखते हुए एक बड़ी पीठ या विशेष पीठ द्वारा विचार करने की आवश्यकता हो सकती है। 
  • न्यायिक मान्यता: 
    • नोटिस जारी करके, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने प्रभावी रूप से माना कि यह मामला न्यायिक रोक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन के बारे में एक वास्तविक सांविधानिक प्रश्न प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जहाँ अपीलों पर पूरी सुनवाई हो चुकी है किंतु रोक के आदेश के कारण निर्णय लंबित हैं। 

राजद्रोह विधि क्या है? 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: 

  • राजद्रोह संबंधी विधिसर्वप्रथम 17 वीं शताब्दी में इंग्लैंडमें लागू की गई थी, जब विधिनिर्माताओं का मानना ​​था कि सरकार के बारे में केवल अच्छी राय ही मान्य होनी चाहिये, क्योंकिबुरी राय सरकार और राजतंत्र के लिये हानिकारक होती है। 
  • इस विधि का मसौदा मूलतः1837 मेंब्रिटिश इतिहासकार-राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, किंतु 1860 में भारतीय दण्ड संहिता अधिनियमित होने पर इसे अस्पष्ट रूप से इसमें सम्मिलित नहीं किया गया। 
  • धारा 124-क को 1870 मेंसर जेम्स स्टीफन द्वारा एक संशोधन के माध्यम से भारतीय दण्ड संहिता में सम्मिलित किया गया था, जब इस अपराध से निपटने के लिये एक विशिष्ट धारा की आवश्यकता महसूस की गई थी। 

भारतीय दण्ड संहिता के अधीन राजद्रोह: 

  • परिभाषा और तत्त्व: 
    • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क राजद्रोह के लिये दण्ड निर्धारित करती है। इस उपबंध में राजद्रोह को कुछ विशिष्ट तत्त्वों के साथ परिभाषित किया गया है, जिन्हें दोषसिद्धि के लिये साबित किया जाना चाहिये 
    • धारा 124-क भारतीय दण्ड संहिता की परिभाषा:यह राजद्रोह को एक अपराध के रूप में परिभाषित करती है जब "कोई भी व्यक्ति शब्दों द्वारा, चाहे बोले गए या लिखे गए, या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा, या अन्यथा, भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करता है या पैदा करने का प्रयत्न करता है, या अप्रीति प्रदीप्त करता है या अप्रीति प्रदीप्त का प्रयत्न करता है"। 
  • मुख्य तत्त्व: 
    • अप्रीति (Disaffection) की व्याख्या: विधि स्पष्ट करती है कि अप्रीति में विश्वासघात और शत्रुता की सभी भावनाएँ सम्मिलित हैं। यद्यपि, उपबंध में एक महत्त्वपूर्ण चेतावनी सम्मिलित है - घृणा, अवमान ​​या अप्रीति को प्रदीप्त किये बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किये बिना की गई टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं मानी जाएँगी।  
    • आशय की आवश्यकता: उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह के मामलों में आशय के महत्त्व पर बल दिया है।बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1995)में, उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि भाषण को राजद्रोही करार देने से पहले उसके वास्तविक आशय को ध्यान में रखा जाना चाहिये 
  • दण्ड की रूपरेखा: 
    • यह एकअजमानतीय अपराध है 
    • धारा 124-क के अधीन दण्डतीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तकहै, जिसमें जुर्माना भी जोड़ा जा सकता है।  

भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 के अधीन राजद्रोह 

  • परिवर्तन: 
    • भारतीय न्याय संहिता नेराजद्रोह को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। इसके स्थान पर भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है। 
    • भारतीय न्याय संहिता ने राजद्रोह को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है, किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता को खतरे में डालने वाले कृत्यों को दण्डित करने के लिये एक नया उपबंध पेश किया है। इसमें अलगाववादी, सशस्त्र विद्रोह या भारत की संप्रभुता को खतरे में डालने वाली गतिविधियाँ सम्मिलित हैं। 
  • भारतीय न्याय संहिता की धारा 152: नया विधिक ढाँचा 
    • यह धारा भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 124-क के अधीन पूर्ववर्ती राजद्रोह विधि के प्रतिस्थापन के रूप में पेश की गई थी। 
    • राजद्रोह विधि को औपनिवेशिक युग का अवशेष माना जाता था और अक्सर यह तर्क दिया जाता था कि इसका दुरुपयोग किया जाता है। 
  • धारा 152 की मुख्य विशेषताएँ: 
    • शीर्षक: "भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्य।" 
    • विस्तार: भारतीय न्याय संहिता में, इसे धारा 152 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, जिसका शीर्षक है 'भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला कार्य', जिसमें मूल भारतीय दण्ड संहिता अपराध से कुछ अंतर है। 
    • प्रभावी तिथि : 1 जुलाई 2024 को लागू होगी। 
  • न्यायिक निर्वचन: 
    • न्यायमूर्ति अरुण मोंगा की पीठ ने कहा कि भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 का प्रयोग वैध असहमति (legitimate dissent) को रोकने के लिये नहीं किया जाना चाहिये और केवल विद्वेषपूर्ण आशय से जानबूझकर की गई कार्रवाई ही इस उपबंध के दायरे में आएगी। 
    • धारा 152 को वास्तविक राजद्रोह विधि बनने से रोकने के लिये, न्यायालयों को स्पष्ट दिशानिर्देश स्थापित करने होंगे जो वैध आलोचना और स्वतंत्र अभिव्यक्ति की रक्षा करें। 
    • उपबंध का निर्वचन स्थापित न्यायिक पूर्व निर्णयों द्वारा निर्देशित होने चाहिये जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये वास्तविक खतरों और वैध असहमति के बीच अंतर करती है। 

तुलनात्मक विश्लेषण: भारतीय दण्ड संहिता बनाम भारतीय न्याय संहिता 

  • समानताएँ 
    • यद्यपि, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क को नए भारतीय न्याय संहिता में धारा 152 के रूप में रूप में काफी हद तक बरकरार रखा गया हैशब्दावली में परिवर्तन के बावजूद, सरकार की आलोचना से संबंधित मूल चिंता अब भी बनी हुई है। 
  • मुख्य अंतर: 
    • शब्दावली: जबकि भारतीय दण्ड संहिता ने "राजद्रोह" और "अप्रीति" पर ध्यान केंद्रित किया, भारतीय न्याय संहिता ने "संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कार्य" पर बल दिया। 
    • विस्तार: भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने संबंधी उपबंध में राजद्रोह के पहलुओं को बरकरार रखा जा सकता है। 
    • आशय: ऐसा प्रतीत होता है कि नया उपबंध सामान्य आलोचना के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाले विशिष्ट कार्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है। 

सिविल कानून

मोटर वाहन अधिनियम के अधीन प्रतिकर

 07-Jul-2025

नागरत्ना एवं अन्य बनाम जी. मंजूनाथ एवं अन्य 

मृतक अपकारकर्त्ता के विधिक उत्तराधिकारी मोटर वाहन अधिनियम के अधीन प्रतिकर के हकदार नहीं हैं।” 

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और आर. महादेवन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति आर महादेवनकी पीठ नेनिर्णय दिया कि मृतक अपकृत्यकर्त्ता (tortfeasor) के विधिक उत्तराधिकारी उसकी स्वयं के उतावलेपन से गाड़ी चलाने के कारण हुई दुर्घटना के लिये मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166 के अधीन क्षतिपूर्ति का दावा नहीं कर सकते। 

  • उच्चतम न्यायालय ने नागरत्ना एवं अन्य बनाम जी. मंजूनाथ एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया। 

जी. नागरत्ना एवं अन्य बनाम जी. मंजूनाथ एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • एन.एस. रविशा अपनी फिएट लिनिया कार को तेज गति से उतावलेपन से चला रहे थे, तभी वाहन पलट गया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। 
  • मृतक वाहन का स्वामी नहीं था, अपितु उसने वाहन वास्तविक स्वामी से उधार लिया था। 
  • घातक दुर्घटना के पश्चात्, रवीशा के विधिक उत्तराधिकारियों, जिनमें उनकी पत्नी, पुत्र और माता-पिता सम्मिलित थे, ने मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (Motor Accident Claims Tribunal (MACT)), अर्सिकेरे के समक्ष मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अधीन 80 लाख रुपए का प्रतिकर का दावा दायर किया।  
  • अपीलकर्त्ताओं ने अपने परिवार के सदस्य की मृत्यु के लियेप्रतिकर की मांग की, जबकि यह तथ्य था कि दुर्घटना उनकी स्वयं के उतावलेपन एवं उपेक्षापूर्ण वाहन चलाने के कारण हुई थी। 
  • विधिक उत्तराधिकारियों ने तर्क दिया कि चूंकि मृतक वाहन का स्वामी नहीं था, इसलिये बीमा कंपनी हुई हानि के लिये प्रतिकर देने के अपने दायित्त्व से बच नहीं सकती। 
  • इस मामले में यह मौलिक विधिक प्रश्न था कि क्या विधिक उत्तराधिकारी मोटर वाहन अधिनियम के अधीन प्रतिकर का दावा कर सकते हैं, जब मृतक व्यक्ति स्वयं अपनी उपेक्षापूर्ण वाहन चलाकर दुर्घटना के लिये उत्तरदायी था, जो सड़क सुरक्षा नियमों के विरुद्ध एक स्व-प्रवृत्त अपकृत्य या अपराध है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि दुर्घटना मृतक की स्वयं के उतावलेपन और उपेक्षापूर्ण वाहन चलाने के कारण हुई, जिससे वह स्वयं को क्षति पहुँचाने का दोषी बन गया, और इसलिये उसकेविधिक उत्तराधिकारी उसकी मृत्यु के लिये किसी प्रतिकर का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि यह उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को उसके स्वयं के सदोष कार्यों के लिये प्रतिकर पाने के समान होगा। 
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि चूंकि मृतक ने स्वामी से वाहन उधार लिया था, इसलिये उसे स्वामी के स्थान पर कदम रखना माना जाता है, और इसलिये बीमा कंपनी को स्वामी या उधारकर्त्ता को उनकी स्वयं के उपेक्षा के कारण हुई क्षति  या मृत्यु के लिये प्रतिकर देने के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि इस प्रकार के प्रतिकर की अनुमति देने से एक खतरनाक पूर्व निर्णय कायम होगा, जहाँ व्यक्ति अपने सदोष कार्यों या यातायात नियमों के विरुद्ध अपराध से लाभ उठा सकते हैं। 
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय में हस्तक्षेप करने का कोई उचित आधार नहीं है तथा स्थापित विधिक सिद्धांत को दोहराया कि उपेक्षापूर्ण वाहन चलाने वाले मृत व्यक्ति के विधिक उत्तराधिकारी मोटर वाहन अधिनियम के अधीन प्रतिकर की मांग नहीं कर सकते। 

मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166 क्या है? 

बारे में: 

  • मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166 मोटर वाहन दुर्घटनाओं से उत्पन्न प्रतिकर की मांग करने हेतु आवेदन दायर करने के लिये विधिक ढाँचा प्रदान करती है। 
  • दुर्घटना में क्षति हुए व्यक्ति द्वारा प्रतिकर के लिये आवेदन किया जा सकता है, जिससे उन्हें अपनी शारीरिक क्षति और संबंधित हानि के लिये निवारण प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। 
  • दुर्घटना में क्षतिग्रस्त हुई संपत्ति का स्वामी भी संपत्ति की क्षति की क्षतिपूर्ति के लिये इस धारा के अधीन प्रतिकर के लिये आवेदन दायर करने का हकदार है। 
  • जहाँ मोटर वाहन दुर्घटना के कारण मृत्यु हुई है, वहाँ मृतक व्यक्ति के सभी या किसी भी विधिक प्रतिनिधि को मृतक की ओर से प्रतिकर के लिये आवेदन करने का अधिकार है। 
  • कोई भी अभिकर्त्ता जिसे घायल व्यक्ति या मृतक के सभी या किसी भी विधिक प्रतिनिधि द्वारा विधिवत् अधिकृत किया गया हो, उनकी ओर से प्रतिकर का आवेदन भी दायर कर सकता है। 
  • इस धारा में यह उपबंध है कि जहाँ मृतक के सभी विधिक प्रतिनिधि प्रतिकर के आवेदन में सम्मिलित नहीं हुए हैं, वहाँ आवेदन मृतक के सभी विधिक प्रतिनिधियों की ओर से या उनके लाभ के लिये किया जाना चाहिये, तथा जो विधिक प्रतिनिधि सम्मिलित नहीं हुए हैं, उन्हें आवेदन में प्रतिवादी के रूप में सम्मिलित किया जाना चाहिये 
  • इस धारा के अंतर्गत प्रत्येक आवेदन, दावेदार के विकल्प पर, या तो उस दावा अधिकरण के समक्ष किया जाना चाहिये, जिसकी अधिकारिता उस क्षेत्र पर है जहाँ दुर्घटना घटी है, या उस दावा अधिकरण के समक्ष किया जाना चाहिये जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर दावेदार निवास करता है या कारोबार करता है, या जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रतिवादी निवास करता है। 
  • आवेदन निर्धारित प्रपत्र में होना चाहिये तथा उसमें नियमों के अनुसार निर्धारित विवरण सम्मिलित होने चाहिये 
  • जहाँ आवेदन में धारा 140 के अंतर्गत प्रतिकर के लिये कोई दावा नहीं किया गया है, वहाँ आवेदन में आवेदक के हस्ताक्षर से ठीक पहले इस आशय का एक पृथक् कथन होना चाहिये 
  • दावा अधिकरण से अपेक्षित है कि वह धारा 158 की उपधारा (6) के अंतर्गत उसे भेजी गई दुर्घटना की किसी रिपोर्ट को मोटर वाहन अधिनियम के अंतर्गत प्रतिकर के लिये आवेदन के रूप में ले। 

निर्णयज विधि: 

  • निंगम्मा एवं अन्य बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, (2009): 
    • यह विधिक सिद्धांत स्थापित करना कि जब दुर्घटना मृतक के स्वयं उतावलेपन और उपेक्षापूर्ण वाहन चलाने के कारण होती है, तो उसे स्व-अपकृत्यकर्ता बनाते हुए उसके विधिक उत्तराधिकारी उसकी मृत्यु के लिये किसी प्रतिकर का दावा नहीं कर सकते। 
    • न्यायालय ने अपने निष्कर्ष के समर्थन में इस पूर्व निर्णय का हवाला दिया कि ऐसी परिस्थितियों में प्रतिकर देने का अर्थ होगा कि उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को स्वयं के सदोष कृत्यों के लिये प्रतिकर मिल रहा है, जो स्थापित विधिक सिद्धांतों के विपरीत होगा। 
  • मीनू बी. मेहता बनाम बालकृष्ण नयन, (1977): 
    • न्यायालय ने इस मामले में स्थापित विधिक सिद्धांत को लागू किया कि जब कोई व्यक्ति स्वामी से वाहन उधार लेता है, तो उसे दायित्त्व और बीमा कवरेज के प्रयोजनों के लिये स्वामी के स्थान पर कदम रखने वाला माना जाता है।