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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360
08-Jul-2025
जॉर्ज अलेक्जेंडर @ प्रिंस बनाम केरल राज्य "यद्यपि अभियोजन वापसी हेतु प्रस्तुत आवेदनों में अभियोजक द्वारा अनेक ठोस आधारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया था, तथापि उन आधारों में से किसी पर भी विचार नहीं किया गया अथवा विचारण न्यायालय द्वारा संबोधित नहीं किया गया ।" न्यायमूर्ति कौसर एडापागाथ |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि एक अभियुक्त भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360/ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के अधीन अभियोजन वापस लेने के लिये सम्मति देने से विचारण न्यायालय के मनमाने और अतार्किक इंकार को स्वतंत्र रूप से चुनौती दे सकता है, भले ही राज्य अपील न करे।
- केरल उच्च न्यायालय ने जॉर्ज अलेक्जेंडर @ प्रिंस बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय सुनाया ।
जॉर्ज अलेक्जेंडर @ प्रिंस बनाम केरल राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- वर्तमान मामला केरल उच्च न्यायालय के समक्ष दो पुनरीक्षण याचिकाओं के माध्यम से आया, जिसमें अभियुक्तों ने विचारण न्यायालय के आदेशों को चुनौती दी थी, जिसमें उनके विरुद्ध अभियोजन वापस लेने की सम्मति देने से इंकार कर दिया गया था। न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ ने 2017 के Crl.R.P. No. 268 और 2017 के Crl.R.P. No. 23 की समेकित सुनवाई की अध्यक्षता की। दोनों मामलों में एक समान विधिक प्रश्न प्रस्तुत किया गया कि क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 (दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321) के अधीन अभियोजन वापस लेने की सम्मति देने से इंकार करने वाले विचारण न्यायालय के आदेश को चुनौती दे सकता है, जब राज्य ने ऐसे आदेशों को चुनौती नहीं देने का विकल्प चुना हो।
- पहली पुनरीक्षण याचिका 2013 के S.C. No. 684 से उत्पन्न हुई थी जो थालास्सेरी के अतिरिक्त सहायक सेशन न्यायालय के समक्ष लंबित थी। इस मामले में याचिकाकर्त्ता आरोपी नंबर 1 से 5 और 7 से 9 थे, जिन पर विभिन्न सांविधिक उपबंधों के अधीन कई गंभीर आरोप लगे थे। इन अभियुक्तों के विरुद्ध लगाए गए अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 143, 147, 148, 452, 427, 332 और 152 के साथ धारा 149 के अधीन दण्डनीय थे। इसके अतिरिक्त, उन पर विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 और 5, शस्त्र अधिनियम की धारा 25 (1क), लोक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम की धारा 7 के साथ धारा 3 (1) और केरल पुलिस अधिनियम की धारा 52 के साथ धारा 38 के अधीन आरोप लगाए गए थे।
- अभियुक्त व्यक्ति पहले विचारण न्यायालय में पेश हुए और बाद में उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। उनकी रिहाई के पश्चात्, लोक अभियोजक ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के अधीन CMP No. 1203/2015 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें सभी अभियुक्तों के विरुद्ध अभियोजन को वापस लेने की मांग की गई। माननीय अतिरिक्त सहायक सेशन न्यायाधीश ने आवेदन पर विचार करने के बाद 28.07.2015 के आदेश के माध्यम से इसे खारिज कर दिया। इस खारिज से व्यथित होकर, अभियुक्त व्यक्तियों ने अभियोजन वापिस लेने के लिये सम्मति देने से विचारण न्यायालय के इंकार को चुनौती देते हुए Crl.R.P. No. 268/2017 दायर करके केरल उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
- दूसरी पुनरीक्षण याचिका प्रथम वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय, तिरुवल्ला की फाइलों पर CC No. 689/2009 से उभरी। इस मामले में एकमात्र अभियुक्त शामिल था जिस पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 466 और 468 के अधीन दण्डनीय अपराधों का आरोप लगाया गया था। धारा 466 न्यायालय के अभिलेख की या लोक रजिस्टर आदि की कूटरचना से संबंधित है, जबकि धारा 468 छल के प्रयोजन से कूटरचना से संबंधित है। अभियुक्त विचारण न्यायालय के समक्ष पेश हुआ और प्रारंभिक कार्यवाही के बाद उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया।
- तत्पश्चात्, सहायक लोक अभियोजक ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 के अनुरूप) के अधीन Crl.M.P. No. 7326/2016 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन वापिस लेने की मांग की गई। माननीय मजिस्ट्रेट ने आवेदन की जांच करने के पश्चात्, 07.12.2016 के आदेश के माध्यम से इसे खारिज कर दिया। अभियुक्त, इस खारिज से असंतुष्ट होकर, अभियोजन वापस लेने के लिये सम्मति देने से विचारण न्यायालय के इंकार को चुनौती देते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष Crl.R.P. No. 23/2017 दायर किया।
- दोनों पुनरीक्षण याचिकाओं में यह एकसमान विधिक प्रश्न उठाया गया था कि-जब अभियोजन पक्ष द्वारा अभियोजन वापसी से इंकार किये गए आदेश को चुनौती नहीं दी गई हो, तो क्या ऐसे आदेश के विरुद्ध अभियुक्तगण द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिकाएँ पोषणीय मानी जा सकती हैं। इन पुनरीक्षण याचिकाओं की सुनवाई के दौरान, केरल उच्च न्यायालय ने अभियुक्त व्यक्तियों द्वारा दायर ऐसी याचिकाओं की स्थिरता के बारे में संदेह व्यक्त किया। परिणामस्वरूप, पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ताओं के विद्वान वकील और विद्वान लोक अभियोजक से अनुरोध किया गया कि वे संबंधित मामलों की स्वीकार्यता के साथ-साथ स्थिरता के प्रश्न पर विस्तृत तर्क दें।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- विधायी ढाँचा और कार्यकारी कार्य: न्यायालय ने अवलोकन किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की योजना के अन्तर्गत अभियोजन का उत्तरदायित्व मुख्यतः कार्यपालिका पर है, तथा अभियोजन वापसी एक कार्यपालिकीय कार्य है, जहाँ भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 में दोहरी आवश्यकताओं का उपबंध है - अभियोजन वापसी हेतु आवेदन लोक अभियोजक अथवा सहायक लोक अभियोजक द्वारा किया जाना चाहिये, तथा ऐसे आवेदन पर न्यायालय की सम्मति प्राप्त करना अनिवार्य है।
- धारा 360 का उद्देश्य और प्रयोजन: न्यायालय ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 का उद्देश्य न्यायपालिका की देखरेख में कार्यकारी सरकार के लिये शक्तियां आरक्षित करना है, जिससे लोक नीति के व्यापक आधार पर आपराधिक मामलों को वापस लिया जा सके, साथ ही अभियुक्त व्यक्तियों को अनावश्यक और कष्टदायक अभियोजन से बचाया जा सके, जो न्यायिक निगरानी के साथ कार्यकारी विवेक को संतुलित करने के विधायी आशय को दर्शाता है।
- न्यायिक कार्य और न्यायालय की भूमिका: न्यायालय ने कहा कि यह उपबंध न्यायालय द्वारा न्यायिक क्षमता के बजाय पर्यवेक्षणात्मक तरीके से सम्मति प्रदान करने पर विचार करता है, जहाँ न्यायालय का कर्त्तव्य उन आधारों पर पुनर्विचार करना नहीं है जिनके कारण लोक अभियोजक ने वापसी का अनुरोध किया, अपितु यह विचार करना है कि क्या लोक अभियोजक ने अप्रासंगिक विचारों से अप्रभावित एक स्वतंत्र प्रतिनिधि के रूप में अपने विवेक का प्रयोग किया था।
- पुनरीक्षण अधिकारिता और सुनवाई का अधिकार: न्यायालय ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 442 के साथ धारा 438 के अधीन उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण अधिकारिता किसी भी निष्कर्ष, दण्ड या आदेश की शुद्धता, वैधानिकता या औचित्य की जांच करने की उसकी पर्यवेक्षी शक्ति को संदर्भित करता है, और यदि अन्य पक्षकार पुनरीक्षण में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 के अधीन पारित आदेशों को चुनौती दे सकते हैं, तो कोई कारण नहीं है कि एक अभियुक्त, जो वास्तविक व्यथित पक्षकार है, इन उपबंधों के अधीन पुनरीक्षण नहीं कर सकता।
- अभियुक्त द्वारा चुनौती देने का अधिकार: न्यायालय ने कहा कि यदि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 के अधीन अभियोजन को वापस लेने के लिये सम्मति देने से इंकार करने वाला आदेश प्रासंगिक सामग्रियों पर विचार किये बिना पारित किया गया हो, अथवा यदि वह आदेश स्पष्ट रूप से अवैध, मनमाना, या विकृत हो, जिससे न्याय का घोर उल्लंघन होता हो, तो अभियुक्त, जो कि प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित पक्षकार है, को पूर्ण अधिकार है कि वह ऐसे आदेश को पुनरीक्षण में चुनौती दे, भले ही राज्य सरकार ने उस आदेश को चुनौती न दी हो।
- विचारण न्यायालय की कमियां: न्यायालय ने पाया कि दोनों ही आदेश स्पष्ट आदेश नहीं थे तथा न्यायिक निर्णय लेने की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में असफल रहे, साथ ही अभियोजन वापस लेने के लिये अभियोजक द्वारा दायर आवेदनों को अनुमति न देने के लिये कोई कारण नहीं बताए गए, तथा विचारण न्यायालय द्वारा तर्कपूर्ण आदेश देने में असफलता तथा प्रासंगिक सामग्रियों पर विचार न करना न्याय की असफलता के समान था।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 क्या है?
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 360, लोक अभियोजकों और सहायक लोक अभियोजकों को न्यायालय की अनुमति से आपराधिक मामलों में अभियोजन को वापस लेने का अधिकार देती है।
- यह उपबंध अंतिम निर्णय सुनाए जाने से पूर्व किसी भी समय, अभियुक्त के विरुद्ध सभी आरोपों या विशिष्ट आरोपों को वापस लेने की अनुमति देता है।
- विधिक परिणाम वापसी के समय पर निर्भर करता है - यदि आरोप विरचित होने से पूर्व ऐसा किया जाता है, तो अभियुक्त को उन्मोचित कर दिया जाता है, जबकि आरोप विरचित होने के पश्चात् वापसी के परिणामस्वरूप दोषमुक्त कर दिया जाता है। केंद्रीय मामलों, केंद्रीय विधियों, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने या पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान केंद्र सरकार के कर्मचारियों द्वारा किये गए अपराधों से संबंधित मामलों के लिये केंद्र सरकार से विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है।
अभियोजन वापस लेने पर ऐतिहासिक निर्णय
- अब्दुल वहाब के. बनाम केरल राज्य (2018): उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि लोक अभियोजकों तथा सहायक लोक अभियोजकों की भूमिका विधिक व्यवस्था के अंतर्गत अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं स्वतंत्र होती है। उन्हें अभियोजन वापसी की अनुमति प्रदान करने से पूर्व स्वतंत्र रूप से विचार करना होता है तथा इस बात पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक होता है कि ऐसा निर्णय समाज पर क्या प्रभाव डालेगा। लोक अभियोजकों को केवल सरकारी प्रतिनिधि के रूप में नहीं, अपितु एक स्वतंत्र न्यायिक अधिकारी के रूप में कार्य करना चाहिये।
- केरल राज्य बनाम के. अजीत और अन्य (2021): इस निर्णय में न्यायालय ने अभियोजन वापसी के आवेदनों पर विचार करते समय न्यायालय द्वारा अपनाए जाने वाले व्यापक दिशा-निर्देशों को स्पष्ट किया। न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि लोक अभियोजक द्वारा किया गया निर्णय अनुचित रूप से या दुराशयपूर्वक न किया गया हो; आवेदन सद्भावनापूर्वक किया गया हो तथा इसका उद्देश्य लोक नीति एवं न्याय के हित में हो, न कि विधिक प्रक्रिया को बाधित करना। आवेदन में ऐसी कोई अनियमितता नहीं होनी चाहिये जिससे स्पष्ट अन्याय हो। न्यायालय की सम्मति न्याय के प्रशासन को ही लाभ पहुँचाने वाली होनी चाहिये तथा अभियोजन वापस लेने की अनुमति अवैध उद्देश्यों अथवा न्याय की प्रतिपूर्ति से असंबंधित कारणों से न मांगी गई हो।
सिविल कानून
केवल अतिक्रमित वन भूमि का उपयोग करना किसी व्यक्ति को आवश्यक पक्षकार नहीं बनाता
08-Jul-2025
निशांत महाजन एवं अन्य बनाम एच.पी. राज्य और अन्य "अतिक्रमित वन भूमि का मात्र उपयोग किसी व्यक्ति को बेदखली कार्यवाही में आवश्यक पक्षकार नहीं बनाता है।" न्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआ |
स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआ की पीठ ने निर्णय दिया कि अतिक्रमित वन भूमि का मात्र उपयोग वास्तविक अतिक्रमणकारियों के विरुद्ध शुरू की गई बेदखली की कार्यवाही को चुनौती देने का अधिकार नहीं देता है।
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निशांत महाजन एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय सुनाया ।
निशांत महाजन एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- 2011 में, कुल्लू जिले के मनाली-III वन में 01-03-61 हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण करने के आरोप में रवि और विक्रम सिंह के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी। FIR भारतीय दण्ड संहिता की धारा 447 और भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 32 और 33 के अधीन दर्ज की गई थी। यद्यपि, 2014 में, दोनों अभियुक्तों को न्यायिक मजिस्ट्रेट ने संदेह का लाभ देते हुए दोषमुक्त कर दिया था।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज होने के बाद, राजस्व अधिकारियों ने फरवरी 2013 में सीमांकन किया और पाया कि खसरा नंबर 1328 सहित आठ खसरा नंबरों में रवि और विक्रम सिंह द्वारा सरकारी भूमि पर अनाधिकृत कब्ज़ा किया गया था। अधिकारियों ने पाया कि भाइयों ने भूमि पर अतिक्रमण करके एक 'गोम्पा' (बौद्ध मठ) का निर्माण किया था और सेब का बाग लगाया था। इस सीमांकन के आधार पर, कलेक्टर, वन प्रभाग कुल्लू ने हिमाचल प्रदेश लोक परिसर और भूमि (बेदखली और किराया वसूली) अधिनियम, 1971 की धारा 4(1) के अधीन एक नोटिस जारी किया।
- जब भाइयों ने सीमांकन पर आपत्ति जताई, तो मार्च 2016 में एक नए सर्वेक्षण का आदेश दिया गया और सर्वेक्षण किया गया। इस नए सीमांकन से पता चला कि खसरा नंबर 1328 खाली था और उस पर नौ देवदार के पेड़, एक कैल का पेड़ और एक पॉपुलर का पेड़ उग रहा था। नतीजतन, कलेक्टर ने 05 अप्रैल 2016 को एक बेदखली आदेश पारित किया, जिसमें वन विभाग को 1328 सहित सभी आठ खसरा नंबरों पर कब्जा करने और भविष्य में अतिक्रमण को रोकने के लिये क्षेत्र की बाड़ लगाने का निदेश दिया गया। भाइयों ने इस आदेश को स्वीकार कर लिया और कोई अपील दायर नहीं की।
- इस बीच, नवंबर 2011 में रवि ने अपनी जमीन का कुछ भाग वर्तमान याचिकाकर्त्ताओं - निशांत महाजन और खुशाल चंद महाजन (पिता और पुत्र) को बेच दिया था।
- याचिकाकर्त्ताओं ने पास के खसरा नंबरों में भूमि के टुकड़े खरीदे और विवादित वन भूमि का उपयोग अपनी संपत्ति तक पहुँचने के लिये सड़क के रूप में किया।
- नवंबर 2021 में अर्जुन ठाकुर ने मुख्यमंत्री संकल्प हेल्पलाइन के माध्यम से परिवाद किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्त्ताओं की व्यावसायिक संपत्ति के लाभ के लिये खसरा संख्या 1315, 1328 और 1346 में वन भूमि पर सीमेंटेड सड़क का निर्माण किया गया था। इस परिवाद के बाद राजस्व अधिकारियों ने वन अधिकारियों की मौजूदगी में एक और सीमांकन किया, जिसमें खसरा संख्या 1328 में सीमेंटेड सड़क का अवैध निर्माण पाया गया।
- अन्वेषण से पता चला कि खण्ड विकास अधिकारी, नगर और ग्राम पंचायत, नसोगी ने 2018-19 के दौरान उपायुक्त कुल्लू द्वारा स्वीकृत 1,50,000 रुपए की लागत से "डी.ए.वी. स्कूल से श्री विक्रम के घर तक C/O रोड" नामक सड़क का निर्माण किया था।
- ग्राम पंचायत ने दावा किया कि उन्होंने सड़क के किनारे केवल टोकरा लगाने का काम किया है, लेकिन वास्तविक सड़क संरचना का निर्माण नहीं किया है।
- इन निष्कर्षों के आधार पर, रेंज वन अधिकारी ने अधिनियम की धारा 4(1) के अधीन खण्ड विकास अधिकारी और ग्राम पंचायत के विरुद्ध परिवाद किया। कारण बताओ नोटिस जारी करने और उनके जवाब सुनने के बाद, कलेक्टर, वन प्रभाग कुल्लू ने 22 अगस्त 2022 को बेदखली का आदेश पारित किया, जिसमें कहा गया कि प्रत्यार्थियों ने अनाधिकृत रूप से वन भूमि पर कब्जा कर लिया है और खसरा नंबर 1328 में 00-68-56 हेक्टेयर भूमि पर 00-11-08 हेक्टेयर पर सीमेंटेड सड़क बनाकर अतिक्रमण किया है।
- 25 मई 2023 को बेदखली का आदेश लागू हुआ और वन विभाग ने अतिक्रमण हटा दिया, जमीन पर कब्ज़ा कर लिया और बाड़ लगा दी। किंतु 29 मई 2023 को वन अधिकारियों ने बताया कि कलेक्टर के आदेश के विपरीत रातों-रात जमीन को तोड़ दिया गया और फिर से सड़क बना दी गई।
- याचिकाकर्त्ता, जो अपनी संपत्ति तक पहुँचने के लिये इस सड़क का उपयोग कर रहे थे, ने कलेक्टर वन के समक्ष बेदखली आदेश को अपास्त करने और मामले में स्वयं को पक्षकार बनाने के लिये आवेदन दायर किया, उनका दावा था कि आदेश उनके विरुद्ध एकपक्षीय रूप से पारित किया गया था। जब इन आवेदनों को खारिज कर दिया गया, तो उन्होंने संभागीय आयुक्त के समक्ष एक अन्य-पक्ष अपील दायर की, जिसे भी इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि उनके पास सुनवाई के अधिकार की कमी है क्योंकि वे मूल कार्यवाही में आवश्यक पक्षकार नहीं थे।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि याचिकाकर्त्ता, वन भूमि (खसरा संख्या 1328) पर बनी सड़क के मात्र उपयोगकर्त्ता होने के कारण, बेदखली आदेश को चुनौती देने के लिये उचित विधिक आधार का अभाव रखते हैं। भले ही उनके पास उपयोगकर्त्ता के रूप में सुखाचार अधिकार हों, लेकिन कलेक्टर वन के पास निजी सुखाचार विवादों पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, जिससे उनके अभिवचन वन अतिक्रमण कार्यवाही के लिये विधिक रूप से अप्रासंगिक हो जाती है।
- न्यायालय ने पूर्व-न्याय के सिद्धांत को लागू करते हुए निर्णय सुनाया कि याचिकाकर्त्ताओं द्वारा अनुच्छेद 227 के अधीन CMPMO No.126/2024 में उसी बेदखली आदेश (22.08.2022) को दी गई पिछली असफल चुनौती, जिसे 02 अप्रैल 2024 को खारिज कर दिया गया था, ने उन्हें पृथक् कार्यवाही शुरू करने की स्पष्ट स्वतंत्रता प्राप्त किये बिना उसी मामले पर बाद में रिट याचिका दायर करने से रोक दिया।
- न्यायालय ने स्थापित किया कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के अधीन, और टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुल्कपद मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्वचन के अनुसार, "वन" में सभी सांविधिक रूप से मान्यता प्राप्त वन और सरकारी अभिलेखों में वन के रूप में दर्ज कोई भी क्षेत्र सम्मिलित है, चाहे उसका स्वामित्व किसी का भी हो। देवदार, कैल और पॉपुलर के पेड़ों वाली भूमि वन भूमि है, जिसे संरक्षण की आवश्यकता है।
- न्यायालय ने कहा कि कलेक्टर वन द्वारा 05 अप्रैल 2016 को जारी किये गए पूर्व आदेश में खसरा संख्या 1328 पर वन विभाग का स्वामित्व पहले ही स्थापित कर दिया गया था तथा अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया गया था। यह आदेश अंतिम तथा पूर्ण हो गया जब मूल अतिक्रमणकर्ता (रवि तथा विक्रम सिंह) कोई अपील दायर करने में असफल रहे, जिससे वर्तमान मामले के लिये बाध्यकारी पूर्व निर्णय कायम हुए।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ताओं ने मिथ्या दावा करके न्यायालय को गुमराह करने का प्रयास किया था कि सड़क "अनादि काल से" अस्तित्व में है और लोक उद्देश्यों के लिये काम करती है। प्रभागीय वन अधिकारी की रिपोर्ट ने इन दावों का खण्डन किया, जिसमें स्थापित किया गया कि सड़क अन्य गाँवों को नहीं जोड़ती है, इसका उपयोग छात्रों द्वारा स्कूल जाने के लिये नहीं किया जाता है, और यह केवल याचिकाकर्त्ताओं और मूल अतिक्रमणकारियों के लिये काम करती है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उचित विधिक अनुमति के बिना, गैर-वनीय उद्देश्यों के लिये वन भूमि का उपयोग करने की आवश्यकता का दावा करना, निरंतर अतिक्रमण को उचित ठहराने के लिये विधि में अपर्याप्त है। भूमि के गैर-वनीय उपयोग के लिये किसी भी दर्ज अनुमति की अनुपस्थिति, वन संरक्षण पर उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के साथ मिलकर, याचिकाकर्त्ताओं के आवश्यकता-आधारित अभिवचनों को विधिक रूप से अस्थिर बना देती है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11- पूर्व -न्याय (Res judicata)
- मूल सिद्धांत: कोई भी न्यायालय ऐसे किसी वाद का विचारण नहीं कर सकता, जहाँ प्रत्यक्षत: और सारत: विवादित मामले की सुनवाई पहले ही हो चुकी हो और उसी व्युत्पन्न अधिकार के अधीन मुकदमा लड़ रहे उन्हीं पक्षकारों या उनके उत्तराधिकारियों के बीच पहले के वाद में अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका हो।
- माना गया विवाद्यक: कोई भी मामला जो पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण के आधार बनाया जा सकता था और बनाया जाना चाहिये था, वह प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्यक माना जाता है, यह समझा जाएगा कि वह ऐसे वाद में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य रहा है(स्पष्टीकरण 4)।
- पक्षकार की आवश्यकताएँ: यह सिद्धांत समान पक्षकारों या उनके अधीन दावा करने वालों के बीच लागू होता है, जिसमें वे स्थितियाँ भी सम्मिलित हैं जहाँ व्यक्ति समान हितों वाले अन्य लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए लोक अधिकारों या सामान्य निजी अधिकारों के लिये सद्भावपूर्वक मुकदमा करते हैं (स्पष्टीकरण 6)।
- अनुप्रयोग का दायरा: यह सिद्धांत निष्पादन कार्यवाही तक विस्तारित है, जिसमें सीमित अधिकारिता वाले न्यायालयों द्वारा विनिश्चित किये गए विवाद्यक पश्चात्वर्ती वादों में पूर्व-न्याय के रूप में कार्य करते हैं, भले ही वह न्यायालय पश्चात्वर्ती वाद का विचारण कर सके या नहीं (स्पष्टीकरण 7 और 8)।
- आवश्यक तत्त्व: पूर्व -न्याय के लागू होने के लिये, मामले पर एक पक्षकार द्वारा अभिकथन किया जाना चाहिये और दूसरे पक्षकार द्वारा उसे स्वीकृत या प्रत्याख्यान किया जाना चाहिये, तथा कोई भी अनुतोष जो स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है, उसे नामंजूर माना जाएगा (स्पष्टीकरण 3 और 5)।
वन भूमि अतिक्रमण मामलों के निहितार्थ
यह निर्णय स्थापित करता है कि:
- अतिक्रमित वन भूमि के मात्र उपयोग से बेदखली की कार्यवाही को चुनौती देने का अधिकार नहीं मिलता।
- केवल स्वामित्व अधिकार वाले या अतिक्रमण में प्रत्यक्ष रूप से शामिल लोगों को ही आवश्यक पक्षकार माना जा सकता है।
- सुखाचार का अधिकार (पथ/सड़क का उपयोग करने का अधिकार) स्वामित्व अधिकारों से पृथक् हैं और बेदखली के मामलों में पक्षकार का दर्जा प्रदान नहीं करते हैं।
- वन अधिकारी निजी सुविधा विवादों को सुलझाने के बजाय अतिक्रमणकारियों को हटाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
यह सिद्धांत वन भूमि बेदखली की कार्यवाही को सरल बनाने में सहायता करता है, क्योंकि इसमें पक्षकार की भागीदारी को अतिक्रमण की गई भूमि के सभी उपयोगकर्त्ताओं के बजाय सीधे अतिक्रमण में सम्मिलित लोगों तक सीमित कर दिया जाता है।
सिविल कानून
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम महिला अधिवक्ताओं के लैंगिक उत्पीड़न परिवादों पर लागू नहीं होगा
08-Jul-2025
यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया और अन्य "महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम महिला अधिवक्ताओं के लैंगिक उत्पीड़न परिवादों पर लागू नहीं होता।" मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सोमवार को निर्णय दिया कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 (POSH Act) के उपबंध बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) या बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (BCMG) की महिला अधिवक्ता सदस्यों द्वारा अन्य अधिवक्ताओं के विरुद्ध दर्ज कराए गए परिवादों पर लागू नहीं होंगे।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय सुनाया ।
यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन ने 2017 में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की थी, जिसमें अधिवक्ताओं के विरुद्ध लैंगिक उत्पीड़न की शिकायतों के समाधान के लिये स्थायी शिकायत निवारण तंत्र के गठन की मांग की गई थी।
- जनहित याचिका में तर्क दिया गया है कि महिला अधिवक्ताओं द्वारा अपने पुरुष समकक्षों द्वारा लैंगिक उत्पीड़न के विरुद्ध दर्ज कराए गए परिवादों पर महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम, 2013 के उपबंधों को लागू किया जाना चाहिये।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि महिला अधिवक्ताओं को अपने पेशेवर वातावरण में लैंगिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और उन्हें महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम द्वारा प्रदान किये गए व्यापक ढाँचे के अधीन संरक्षित किया जाना चाहिये।
- इस मामले ने कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न संबंधी विधियों की विधिक पेशे में प्रयोज्यता तथा अधिवक्ताओं और बार काउंसिलों के बीच संबंधों की प्रकृति के बारे में मौलिक प्रश्न उठाए ।
- इस मामले में यह निर्धारित करना सम्मिलित था कि क्या महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के आवेदन के लिये आवश्यक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध बार काउंसिल और अभ्यासरत अधिवक्ताओं के बीच विद्यमान है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने की खंडपीठ ने निर्णय दिया कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के उपबंध महिला अधिवक्ता सदस्यों के परिवादों पर लागू नहीं होंगे, क्योंकि अधिवक्ताओं और बार काउंसिल के बीच कोई "कर्मचारी-नियोक्ता" संबंध नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि "कर्मचारी-नियोक्ता संबंध होने पर 2013 के अधिनियम के उपबंध लागू होते हैं। किंतु अधिवक्ताओं और बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) या बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (BCMG) के मामले में ऐसा कोई संबंध नहीं है, क्योंकि न तो BCI और न ही BCMG को अधिवक्ताओं का नियोक्ता कहा जा सकता है।"
- पीठ ने स्पष्ट किया कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के उपबंध केवल बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) या बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (BCMG) के कर्मचारियों पर लागू होंगे, जो उक्त संघों के समिति सदस्य और कर्मचारी हैं।
- पुरुष समकक्षों द्वारा महिला अधिवक्ताओं के साथ किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार के लिये, पीठ ने स्पष्ट किया कि अधिवक्ता अधिनियम के उपबंध अच्छी तरह से लागू हैं, विशेष रूप से अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 का हवाला देते हुए , जो अधिवक्ताओं द्वारा पेशेवर या अन्य दुर्व्यवहार के विरुद्ध कार्रवाई का उपबंध करती है।
- न्यायालय ने कहा कि यह विद्यमान उपचार महिला अधिवक्ताओं के लिये किसी भी प्रकार के उत्पीड़न के विरुद्ध परिवाद करने के लिये उपलब्ध है, जो पेशेवर या अन्य कदाचार के अंतर्गत आता है ।
- इन टिप्पणियों के साथ, पीठ ने यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन द्वारा दायर जनहित याचिका का निपटारा कर दिया, तथा महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन आवेदन की उनकी मांग को प्रभावी रूप से खारिज कर दिया।
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम, 2013 क्या है?
बारे में:
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 कार्यस्थलों पर महिलाओं के लैंगिक उत्पीड़न से निपटने के लिये एक व्यापक विधिक ढाँचा प्रदान करती है।
- अधिनियम में लैंगिक उत्पीड़न को लैंगिक प्रकृति का कोई भी अवांछित कृत्य या व्यवहार (चाहे प्रत्यक्ष रूप से या निहितार्थ रूप में) के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें शारीरिक संपर्क, लैंगिक अनुग्रह की मांग, लैंगिक रूप से रंगीन टिप्पणी, पोर्नोग्राफी दिखाना, या लैंगिक प्रकृति का कोई अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक आचरण साम्मिलित है।
- प्रत्येक नियोक्ता को लैंगिक उत्पीड़न के परिवादों के समाधान के लिये 10 या अधिक कर्मचारियों वाले प्रत्येक कार्यालय या शाखा में एक आंतरिक परिवाद समिति (Internal Complaints Committee (ICC)) का गठन करना आवश्यक है।
- 10 से कम कर्मचारियों वाले कार्यस्थलों के लिये परिवादों का समाधान जिला स्तर पर गठित स्थानीय परिवाद समितियों (Local Complaints Committees (LCC)) द्वारा किया जाता है।
- अधिनियम में यह उपबंध है कि आंतरिक परिवाद समिति (Internal Complaints Committee (ICC)) का अध्यक्ष एक महिला होगी तथा इसमें महिला संगठनों से कम से कम एक सदस्य या लैंगिक उत्पीड़न से संबंधित मुद्दों से परिचित व्यक्ति सम्मिलित होगा।
- अधिनियम में परिवादकर्त्ता/प्रतिवादी का स्थानांतरण, छुट्टी प्रदान करना तथा परिवादकर्त्ता की सुरक्षा और रोजगार जारी रखने को सुनिश्चित करने के लिये अन्य उपायों सहित अंतरिम अनुतोष का प्रावधान है।
- दण्ड में परिवादकर्त्ता को प्रतिकर, प्रतिवादी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई और भारतीय दण्ड संहिता की सुसंगत धाराओं के अधीन संभावित आपराधिक अभियोजन शामिल है।
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम और लैंगिक उत्पीड़न विधियों के बीच तुलना
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम बनाम भारतीय न्याय संहिता (BNS) उपबंध:
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम कार्यस्थल-विशिष्ट लैंगिक उत्पीड़न पर केंद्रित एक सिविल उपचार है, जिसमें आंतरिक तंत्र के माध्यम से निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष पर बल दिया जाता है।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 74 ( भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354क) (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354ख) (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354ग) (भारतीय दण्ड संहिता की धारा की 354घ) लैंगिक उत्पीड़न को आपराधिक अपराध मानती है, जिसके लिये कारावास और जुर्माने सहित दण्ड का उपबंध है।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम में पीड़ित को प्रतिकर देने का उपबंध है, जबकि भारतीय न्याय संहिता में अपराधी को दण्डित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम में लैंगिक उत्पीड़न की व्यापक परिभाषा है, जिसमें गैर-शारीरिक आचरण भी सम्मिलित है, जबकि भारतीय न्याय संहिता के उपबंध शारीरिक कृत्यों और मौखिक/गैर-शारीरिक आचरण के लिये अधिक विशिष्ट हैं।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम जागरूकता कार्यक्रम जैसे निवारक उपायों को अनिवार्य बनाता है, जबकि भारतीय न्याय संहिता पूर्णतः दण्डात्मक है।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम कार्यवाही के दौरान अंतरिम अनुतोष और संरक्षण प्रदान करता है, जबकि भारतीय न्याय संहिता की प्रक्रियाएँ मानक आपराधिक विधि प्रक्रियाओं का पालन करती हैं।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन नियोक्ताओं द्वारा अनिवार्य रूप से रिपोर्ट करना अनिवार्य है, जबकि भारतीय न्याय संहिता में परिवाद सामान्यत: पीड़ितों द्वारा प्रारंभ किये जाते हैं।
निर्णय के निहितार्थ
बॉम्बे उच्च न्यायालय का निर्णय विधिक वृत्ति के लिये महत्त्वपूर्ण पुर्व निर्णय कायम करता है। सहकर्मियों से लैंगिक उत्पीड़न का सामना करने वाली महिला अधिवक्ताओं को अब महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधिक व्यापक ढाँचे के बजाय अधिवक्ता अधिनियम के अनुशासनात्मक तंत्र पर निर्भर रहना होगा । यह निर्णय विधिक वृत्ति की अनूठी प्रकृति को उजागर करता है जहाँ व्यवसायी कर्मचारी नहीं होते, अपितु बार काउंसिल द्वारा विनियमित स्वतंत्र पेशेवर होते हैं।
निर्णय में इस बात पर बल दिया गया है कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन अधिवक्ताओं के परस्पर लैंगिक उत्पीड़न (inter-advocate harassment) के लिये सुरक्षा उपलब्ध नहीं है, किंतु अधिवक्ता अधिनियम अपने पेशेवर कदाचार प्रावधानों के माध्यम से पर्याप्त उपचार प्रदान करता है। यद्यपि, आलोचकों का तर्क है कि अधिवक्ता अधिनियम के अधीन अनुशासनात्मक तंत्र महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम की विशेष प्रक्रियाओं की तरह मजबूत या पीड़ित के अनुकूल नहीं हो सकते हैं।