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आपराधिक कानून
स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम में अग्रिम जमानत
09-Jul-2025
दिनेश चंदर बनाम हरियाणा राज्य "स्वापक औषधि और मन: प्रभावी पदार्थ मामलों में अग्रिम जमानत कभी नहीं दी जाती।" न्यायमूर्ति पंकज मिथल और के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ मामलों में अग्रिम जमानत कभी नहीं दी जाती है", जबकि उसने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS Act) के अधीन दर्ज एक अभियुक्त को अग्रिम ज़मानत देने से इंकार करने के मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने दिनेश चंद्र बनाम हरियाणा राज्य मामले में यह निर्णय दिया।
दिनेश चंदर बनाम हरियाणा राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता दिनेश चंदर को मादक पदार्थों की तस्करी के एक मामले में फंसाया गया था, जहाँ उनका नाम सह-अभियुक्तों के प्रकटीकरण कथनों में सामने आया था।
- सह- अभियुक्तों के पास 60 किलोग्राम डोडा पोस्त और 1 किलोग्राम 800 ग्राम अफीम पाई गई तथा उन्होंने याचिकाकर्त्ता को प्रतिबंधित पदार्थ का आपूर्तिकर्त्ता बताया।
- याचिकाकर्त्ता का नाम मूल प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में नहीं था, किंतु बाद में सह-अभियुक्तों के प्रकटीकरण कथनों के आधार पर उसे फंसाया गया।
- यह मामला वाणिज्यिक मात्रा में प्रतिबंधित पदार्थ से संबंधित था, जो स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 37 के कठोर उपबंधों के अंतर्गत आता है ।
- याचिकाकर्त्ता ने अग्रिम जमानत की मांग करते हुए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और दावा किया कि उसे झूठा फंसाया गया है तथा प्रकटीकरण कथनों के आधार पर फंसाया गया है।
- राज्य ने जमानत याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि मादक पदार्थ तस्करी नेटवर्क की कार्यप्रणाली का पता लगाने के लिये अभिरक्षा में पूछताछ आवश्यक है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि "हम इस बात से संतुष्ट नहीं हैं कि स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ मामले में याचिकाकर्त्ता को अग्रिम जमानत देने से इंकार करके उच्च न्यायालय ने कोई त्रुटि की है।"
- उच्चतम न्यायालय ने मौखिक टिप्पणी की कि " स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ मामले में कभी भी अग्रिम जमानत नहीं दी जाती है", जिससे मादक पदार्थ से संबंधित अपराधों पर स्थापित न्यायशास्त्र को बल मिलता है।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने सही ढंग से पहचाना था कि सह-अभियुक्तों ने अपने प्रकटीकरण कथनों के दौरान याचिकाकर्त्ता को नाम विशेष रूप से आपूर्तिकर्त्ता के रूप में लिया था।
- उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता और सह-अभियुक्त के बीच टेलीफोन पर बातचीत के साक्ष्य के साथ-साथ उनके बीच बैंक संव्यवहार के साक्ष्य भी पाए थे, जिससे प्रथम दृष्टया मामला स्थापित होता है।
- यद्यपि, उच्चतम न्यायालय ने एक वैकल्पिक उपचार प्रदान करते हुए कहा कि याचिकाकर्त्ता विचारण न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण कर सकता है और नियमित जमानत के लिये आवेदन कर सकता है, जिस पर विधि के अनुसार उसके गुण-दोष के आधार पर विचार किया जाएगा।
- न्यायालय ने स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ मामलों में अग्रिम जमानत के प्रति कठोर रुख को बरकरार रखते हुए उच्च न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया।
स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 क्या है?
बारे में:
- स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 स्वापक औषधियों और मन:प्रभावी पदार्थों से संबंधित विधि को समेकित और संशोधित करने के लिये एक व्यापक विधि है।
- इस अधिनियम का उद्देश्य मादक औषधियों और मन:प्रभावी पदार्थों की खेती, उत्पादन, विनिर्माण, कब्जा, विक्रय, क्रय, परिवहन, भंडारण, उपयोग, उपभोग, अंतर-राज्यीय आयात, अंतर-राज्यीय निर्यात, भारत में आयात, भारत से निर्यात या ट्रांसशिपमेंट को रोकना और नियंत्रित करना है।
- अधिनियम में दवाओं की मात्रा को लघु मात्रा, वाणिज्यिक मात्रा और मध्यम मात्रा में वर्गीकृत किया गया है , तथा प्रत्येक श्रेणी के लिये भिन्न-भिन्न दण्ड का उपबंध है।
- यह अधिनियम अधिकारियों को कुछ परिस्थितियों में बिना वारण्ट के तलाशी लेने और अभिग्रहण करने का अधिकार देता है तथा उन संभावित अपराधों के लिये उपबंध करता है, जहाँ साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार अभियुक्त पर होता है।
स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 37:
- अधिनियम की धारा 37 में मादक दवाओं और मन:प्रभावी पदार्थों से संबंधित मामलों में जमानत के लिये विशेष उपबंध उपबंधित किये गए हैं, जिससे जमानत सामान्य आपराधिक मामलों की तुलना में अधिक प्रतिबंधात्मक हो जाती है।
- धारा 37(1) में उपबंध है कि इस अधिनियम के अंतर्गत दण्डनीय प्रत्येक अपराध संज्ञेय होगा।
- अधिनियम की धारा 19 या धारा 24 या धारा 27क के अधीन दण्डनीय अपराध और वाणिज्यिक मात्रा से संबंधित अपराधों के अभियुक्त किसी भी व्यक्ति को जमानत या अपने स्वयं के बंधपत्र पर निर्मुक्त नहीं किया जाएगा।
- जब तक कि लोक अभियोजक को आवेदन का विरोध करने का अवसर न दिया गया हो।
- न्यायालय का यह समाधान हो गया है कि यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार हैं कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और जमानत पर होने के दौरान उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है।
- धारा 37(2) में कहा गया है कि मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या कम से कम दस वर्ष के कारावास से दण्डनीय अपराध के अभियुक्त किसी भी व्यक्ति को तब तक जमानत पर निर्मुक्त नहीं किया जाएगा जब तक कि धारा 37(1) के अधीन शर्तें पूरी न हो जाएं।
- स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा 37(2) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "उप-धारा (1) के खण्ड (ख) में निर्दिष्ट जमानत देने की परिसीमाएं दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन जमानत मंजूर करने की बाबत परिसीमाओं के अतिरिक्त हैं।"
- यह उपबंध नियमित जमानत और अग्रिम जमानत दोनों पर लागू होता है, जिससे स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ मामलों में गिरफ्तारी-पूर्व जमानत प्राप्त करना बेहद कठिन हो जाता है।
आपराधिक कानून
जारकर्म करना और जारता में रहना
09-Jul-2025
बाबुल खातून एवं अन्य। बनाम बिहार राज्य और अन्य "जारता में रहना" एक सतत आचरण को दर्शाता है, न कि केवल अनैतिकता के एक-दो पृथक कृत्यों को। सद्गुणों से एक या दो बार विचलित होना तो जारता के अंतर्गत आ सकता है, किंतु यह दर्शाने के लिये पर्याप्त नहीं होगा कि महिला "जारता में रह रही थी"। न्यायमूर्ति जितेंद्र कुमार |
स्रोत: पटना उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जितेंद्र कुमार ने ने निर्णय दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125(4) के अधीन जारकर्म में रहना एक निरंतर जारता के संबंध को दर्शाता है, न कि व्यभिचार के भिन्न-भिन्न कृत्यों को।
- पटना उच्च न्यायालय ने बाबुल खातून एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
बाबुल खातून एवं अन्य बनाम बिहार राज्य एवं अन्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- बुलबुल खातून और मोहम्मद शमशाद विवाहित थे और उनका एक पुत्र दानिश रज़ा उर्फ राहुल था। विवाह में मुश्किलें तब आईं जब मोहम्मद शमशाद अपनी पत्नी से अतिरिक्त दहेज की अवैध मांग करने लगा।
- 17 जुलाई 2017 को बुलबुल खातून अपने नवजात बच्चे के साथ ससुराल छोड़कर चली गईं । उनके अनुसार, उनके पति ने दहेज की अवैध मांग पूरी न कर पाने के कारण उन्हें घर से निकाल दिया था।
- तीन तलाक़ का ऐलान: शमशाद ने दावा किया कि उसने एक ही बार में एक साक्षी की मौजूदगी में तीन तलाक़ कहकर अपनी पत्नी को तलाक़ दे दिया। यद्यपि, उसने यह भी स्वीकार किया कि उसने अपनी पत्नी को इद्दत अवधि के दौरान न तो भरण-पोषण का संदाय किया और न ही उसे मेहर की रकम संदाय की।
- शमशाद ने अभिकथित किया कि उसकी पत्नी मोहम्मद तरीकत नाम के एक व्यक्ति के साथ जारता के रिश्ते में रह रही थी और यही वजह थी कि वह ससुराल छोड़कर चली गई। वैवाहिक विधियों के अधीन जारता को पति या पत्नी के विरुद्ध किया गया एक दंडनीय अपराध माना गया है।
- बुलबुल खातून ने अपने पति के विरुद्ध दहेज उत्पीड़न के संबंध में आपराधिक परिवाद दर्ज कराया, जो कार्यवाही के दौरान लंबित रहा।
- द्वितीय विवाह: शमशाद ने बाद में काजल परवीन के साथ द्वितीय विवाह कर लिया, और उनकी एक अवयस्क पुत्री भी है।
- वित्तीय परिस्थितियाँ:
- शमशाद मजदूरी करता था।
- बुलबुल खातून के पास आय का कोई स्वतंत्र साधन नहीं था।
- ससुराल छोड़ने के बाद बुलबुल खातून अपने अवयस्क पुत्र के साथ अपने माता-पिता के घर रह रही हैं।
- भरण-पोषण आवेदन:
- बुलबुल खातून और उसके अवयस्क पुत्र ने 30 अक्टूबर 2017 को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण के लिये आवेदन दायर किया।
- कुटुंब न्यायालय ने बुलबुल खातून को भरण-पोषण देने से इंकार कर दिया, क्योंकि उसके पति का यह तर्क था कि वह मोहम्मद तरीकत के साथ जारता में रह रही थी। यद्यपि, न्यायालय ने अवयस्क पुत्र दानिश रज़ा उर्फ राहुल को 4,000 रुपए प्रति माह भरण-पोषण देने का आदेश दिया।
- पत्नी को भरण-पोषण देने से इंकार करने के कुटुंब न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से मामला पटना उच्च न्यायालय के समक्ष लाया गया।
- उठाए गए विधिक विवाद्यक:
- क्या पति द्वारा दिया गया तीन तलाक वैध और प्रभावी था।
- क्या पत्नी वास्तव में जारता में रह रही थी जैसा कि अभिकथित किया गया है।
- क्या पत्नी दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण की हकदार थी।
- पति की वित्तीय क्षमता और आश्रितों को ध्यान में रखते हुए भरण-पोषण की रकम प्रदान की जाएगी।
- यह मामला मुख्य रूप से पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को निर्धारित करने के इर्द-गिर्द घूमता था, जिसमें पति का बचाव यह था कि कथित जारकर्म के कारण उसने अपना अधिकार खो दिया था, जबकि पत्नी का कहना था कि दहेज उत्पीड़न के कारण उसे घर छोड़ने के लिये विवश किया गया था और वह अपने माता-पिता के घर में सम्मानपूर्वक रह रही थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- तीन तलाक की विधिक स्थिति: न्यायालय ने कहा कि तिहरा तलाक अवैध और अमान्य है, जैसा कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा शायरा बानो बनाम भारत संघ वाद में घोषित किया गया है, जिसमें तीन तलाक मनमाना एवं असांविधानिक घोषित किया गया। साथ ही, मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के अंतर्गत भी तीन तलाक शून्य और अवैध घोषित किया गया है।
- जारकर्म करने और जारता में रहने के बीच अंतर: न्यायालय ने कहा कि "जारता में रहना" "जारकर्म करने" से भिन्न है और कहा कि जारकर्म पति/पत्नी के विरुद्ध एक दाम्पत्य अपराध है, किंतु "जारता में रहना" आचरण के एक सतत क्रम को दर्शाता है न कि अनैतिकता के भिन्न-भिन्न कृत्यों को।
- जारकर्म साबित करने के लिये मानक: न्यायालय ने कहा कि सद्गुणों से एक या दो चूक जारकर्म के कृत्य माने जाएंगे, किंतु यह दिखाने के लिये काफी अपर्याप्त होंगे कि महिला "जारता में रह रही थी", और सामान्य जीवन में वापस आने के बाद केवल चूक को जारता में रहना नहीं कहा जा सकता है।
- साक्ष्य का मूल्यांकन: न्यायालय ने पाया कि अभिलेखों में ऐसा कोई ठोस साक्ष्य नहीं था जिससे पता चले कि बुलबुल खातून मोहम्मद तरीकत के साथ रह रही थी, न ही कोई भी व्यक्ति किसी जारता के जीवन का प्रत्यक्ष साक्षी था, और मोहम्मद शमशाद की ओर से परीक्षण किये गए किसी भी साक्षी ने ऐसे कथित जारता के संबंध की कोई तारीख, समय और स्थान नहीं बताया था।
- पति का भरण-पोषण करने का दायित्त्व: न्यायालय ने कहा कि एक स्वस्थ पति को अपनी पत्नी और बालकों के भरण-पोषण के लिये पर्याप्त धन कमाने में सक्षम माना जाना चाहिये, तथा वह यह तर्क नहीं दे सकता कि वह अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये पर्याप्त धन कमाने की स्थिति में नहीं है, तथा यह दायित्त्व पति का है कि वह आवश्यक साक्ष्यों के साथ यह सिद्ध करे कि वह परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ है।
- आवेदन की तिथि से भरण-पोषण: न्यायालय ने कहा कि न्याय और निष्पक्षता के हित में आवेदन की तिथि से भरण-पोषण प्रदान किया जाना आवश्यक है, क्योंकि जिस अवधि के दौरान भरण-पोषण की कार्यवाही लंबित रहती है, वह आवेदक के नियंत्रण में नहीं है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अधीन जारता में रहना क्या है?
- परिभाषा और विस्तार: भारतीय नागरिक सरक्षा संहिता की धारा 144 के अधीन जारता में रहना एक विशिष्ट आधार है जो पत्नी को अपने पति से भरण-पोषण भत्ता या अंतरिम भरण-पोषण प्राप्त करने से अयोग्य बनाता है।
- जारकर्म करने से भिन्नता: जारता में रहना आचरण के एक सतत क्रम को दर्शाता है, न कि अनैतिकता के पृथक् कृत्यों को, जो इसे केवल जारकर्म करने से पृथक् करता है, जिसमें सदाचार से एक या दो चूक सम्मिलित हो सकती हैं।
- आवश्यक सबूत का मानक: यदि किसी महिला द्वारा सदाचार से एक या दो अवसरों पर चूक हुई हो और तत्पश्चात् वह सामान्य पारिवारिक जीवन में लौट आई हो, तो मात्र ऐसे एकाकी या अल्पकालिक आचरण के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह "जारता में जीवन यापन" कर रही है। जारता में जीवन यापन साबित करने हेतु निरंतर, सतत और सुव्यवस्थित अनैतिक आचरण का प्रतिपादन आवश्यक है।
- निरंतरता की आवश्यकता: यदि उक्त चूक सतत रूप से जारी रहे और उसके पश्चात् भी जारकर्म की जीवन शैली का पालन किया जाए, तभी यह कहा जा सकता है कि कोई महिला "जारता में जीवन यापन" कर रही है। इसका अभिप्राय यह है कि जारता में जीवन यापन के अभिकथन की पुष्टि एकल या आकस्मिक घटनाओं से नहीं, अपितु दीर्घकालिक एवं निरंतर दुष्कृत्य से ही की जा सकती है।
- सबूत का भार: यदि पति यह दावा करता है कि उसकी पत्नी जारता में रह रही है, तो उसे ऐसे कथित जारता के संबंध की तारीख, समय और स्थान सहित विशिष्ट विवरण के साथ ठोस सबूत प्रस्तुत करना होगा, जिससे यह स्थापित किया जा सके कि यह व्यवहार निरंतर जारी है।
- विधिक परिणाम: भारतीय नागरिक सरक्षा संहिता, 2023 की धारा 144(1) के अधीन, जारता में रह रही पत्नी अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने के अपने अधिकार को खो देती है, जिससे भरण-पोषण की कार्यवाही पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाता है।
- साक्ष्य मानक: न्यायालयों द्वारा यह अपेक्षा की जाती है कि “जारता में जीवन यापन” का अभिकथन साबित करने के लिएये प्रत्यक्ष साक्ष्य या ऐसे विश्वसनीय साक्षी प्रस्तुत किये जाएँ जो उक्त अभिकथन की पुष्टि कर सकें। केवल निराधार अभिकथन, संदेह या अनुमानों के आधार पर, बिना पर्याप्त और ठोस साक्ष्य के, किसी स्त्री को भरण-पोषण से वंचित नहीं किया जा सकता।
- न्यायिक निर्वचन: वैधानिक व्यवस्था के अनुसार, "जारता में जीवन यापन" को पति या पत्नी के विरुद्ध एक गंभीर नैतिक एवं वैवाहिक अपराध माना गया है। तथापि, न्यायालयों पर यह उत्तरदायित्त्व है कि वे अस्थायी नैतिक विचलनों और निरंतर जारकर्म की जीवनशैली के मध्य स्पष्ट भेद करें। केवल सतत और प्रत्यक्ष रूप से साबित जारता ही भरण-पोषण के अधिकार से वंचित करने का औचित्य बनाता है; अन्यथा नहीं।
आपराधिक कानून
वैवाहिक कलह और आत्महत्या का दुष्प्रेरण
09-Jul-2025
कुलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य “आत्महत्या पत्र और तत्काल प्रकोपन या उत्प्रेरित करने के किसी भी ठोस साक्ष्य के अभाव में, केवल बार-बार झगड़े और वैवाहिक कलह के अभिकथन को भरतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का गठन करने के लिये पर्याप्त नहीं मन जा सकता हैं।” न्यायमूर्ति संदीप मौदगिल |
स्रोत: पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संदीप मौदगिल ने निर्णय दिया कि वैवाहिक कलह, तत्काल प्रकोपन या उत्प्रेरित करने के ठोस साक्ष्य के अभाव में, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 306 के अधीन आत्महत्या के दुष्प्रेरण का करने के अपराध को गठित करने के लिये पर्याप्त नहीं है।
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने कुलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
कुलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- कुलविंदर कौर ने 19 फरवरी 2024 को धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार आयोजित समारोह में लवप्रीत सिंह से विवाह किया ।
- लवप्रीत सिंह परिवादकर्त्ता गुरप्रीत सिंह का बड़ा भाई था। शादी के कुछ समय बाद ही दोनों के बीच वैवाहिक कलह शुरू हो गई।
- गुरप्रीत सिंह द्वारा दर्ज कराए गए परिवाद के अनुसार, उसकी भाभी कुलविंदर कौर कथित तौर पर विजय कुमार, पुत्र मलकीत सिंह, निवासी गाँव रायपुर, तहसील रतिया, जिला फतेहाबाद के साथ टेलीफोन, चैटिंग और वीडियो कॉल पर बातचीत करती थी। मृतक पति लवप्रीत सिंह ने कथित तौर पर अपने भाई को इस स्थिति के बारे में कई बार अपनी परेशानी बताई थी।
- जब लवप्रीत सिंह ने अपनी सास रेशमा (राम चंद की पत्नी) से अपनी पुत्री को ये बातचीत बंद करने के लिये मनाने में सहायता मांगी, तो रेशमा ने कथित तौर पर कहा कि उनकी पुत्री लंबे समय से विजय कुमार की दोस्त है और उससे बातचीत करती रहेगी। इसके बाद परिवार कुलविंदर कौर को उसके मायके, गाँव बुर्ज, तहसील रतिया ले गया।
- अभिकथन है कि पृथक् होते हुए भी, कुलविंदर कौर और उसकी माँ रेशमा लवप्रीत सिंह को परेशान करती रहीं। परिवादकर्त्ता ने बताया कि इन सब बातों से उसका भाई निरंतर परेशान और उदास रहने लगा था।
- 21 मई, 2024 को सुबह लगभग 6:00 बजे, लवप्रीत सिंह की आदेश अस्पताल में इलाज के दौरान कीटनाशक खाने से मृत्यु हो गई। उन्हें पहले जुनेजा अस्पताल, मलोट में भर्ती कराया गया था, किंतु गंभीर हालत के कारण उन्हें आदेश अस्पताल रेफर कर दिया गया।
- श्री मुक्तसर साहिब ज़िले के लम्बी पुलिस थाने में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 306, 506 और 34 के अधीन एक प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी। बाद में आरोपों से धारा 506 हटा दी गई। कुलविंदर कौर को गिरफ्तार किया गया और ज़मानत याचिका दायर करने से पहले वह एक वर्ष से ज़्यादा समय तक अभिरक्षा में रहीं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि राज्य सरकार याचिकाकर्त्ता की ओर से तत्काल प्रकोपन या उत्प्रेरित करने को स्थापित करने के लिये कोई ठोस साक्ष्य पेश करने में असफल रही, विशेष रूप से आत्महत्या पत्र की अनुपस्थिति को ध्यान में रखते हुए।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता और मृतक के बीच गलतफहमी और मतभेद से उत्पन्न प्रत्यक्ष अभिकथन और बार-बार होने वाले झगड़े ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध गठित करने के लिये पर्याप्त नहीं थे ।
- न्यायालय ने कहा कि पति-पत्नी के बीच इस तरह के विवादों को वैवाहिक जीवन की सामान्य टूट-फूट का भाग माना जा सकता है और विश्वसनीय तथा पर्याप्त साक्ष्य के बिना इसे आत्महत्या के लिये उत्प्रेरित या दुष्प्रेरण के रूप में नहीं माना जा सकता।
- न्यायालय ने इस मूलभूत सिद्धांत पर बल दिया कि जमानत देना एक सामान्य नियम है तथा किसी व्यक्ति को जेल या कारावास में डालना एक अपवाद है।
- न्यायालय ने दाताराम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विश्वास किया, जिसमें स्थापित किया गया था कि आपराधिक न्यायशास्त्र का एक मूलभूत सिद्धांत निर्दोषता की उपधारणा है।
- न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता पहले ही एक वर्ष और एक दिन की कैद काट चुका है और उसका पूर्व-वृत्तांत साफ़-सुथरा है। इसके अतिरिक्त, सह-अभियुक्त को न्यायालय द्वारा 14 नवंबर, 2024 के आदेश के अधीन पहले ही नियमित ज़मानत दी जा चुकी है ।
- न्यायालय ने पाया कि अन्वेषण पूरा हो चुका है, 20 जुलाई, 2024 को चालान पेश किया जा चुका है और 24 सितम्बर, 2024 को आरोप विरचित कर दिये गए हैं। यद्यपि, अभियोजन के 14 साक्षियों में से अभी तक किसी से भी पूछताछ नहीं की गई है, जिससे यह संकेत मिलता है कि विचारण के समापन में काफी समय लगने की संभावना है।
- न्यायालय ने बलविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का हवाला देते हुए इस बात पर बल दिया कि त्वरित विचारण का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रक्रिया का भाग है। न्यायालय ने अभियुक्त पर लंबे समय तक कारावास के प्रभाव को उजागर करने के लिये ऑस्कर वाइल्ड की "द बैलाड ऑफ़ रीडिंग जेल" (The Ballad of Reading Gaol) का हवाला दिया।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जमानत आवेदनों पर विचार करते समय मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें अभियुक्त व्यक्ति की गरिमा बनाए रखना, संविधान के अनुच्छेद 21 की आवश्यकताएँ तथा जेलों में भीड़भाड़ की समस्या जैसे कारकों पर विचार किया जाना चाहिये।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 108 क्या है?
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 108 आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध से संबंधित है।
- भारत में आपराधिक विधि के व्यापक सुधार के एक भाग के रूप में इस उपबंध ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 306 का स्थान ले लिया है।
- यह उपबंध किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिये आपराधिक दायित्त्व स्थापित करता है जो किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करता है।
- इस धारा के अंतर्गत, दुष्प्रेरण में ऐसा कोई भी आचरण सम्मिलित है जो किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित करता है, सहायता करता है या उत्तेजित करता है।
- इस उपबंध में प्रत्यक्ष अनुनय, भावनात्मक नियंत्रण, मनोवैज्ञानिक दबाव, या आत्महत्या करने के लिये साधन और अवसर प्रदान करने सहित कई प्रकार की कार्रवाइयां सम्मिलित हैं।
- दुष्प्रेरण के प्रकार: दुष्प्रेरण का प्रकटीकरण विभिन्न प्रकार के आचरणों के माध्यम से हो सकता है, जैसे मौखिक उकसावा, आत्महत्या के लिये प्रोत्साहित करने वाला लिखित संचार, आत्म-क्षति के लिये भौतिक साधन या उपकरण प्रदान करना, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करना जो किसी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से अपना जीवन समाप्त करने के लिये बाध्य करें, या किसी अन्य प्रकार की सहायता या प्रोत्साहन जो आत्महत्या करने के निर्णय में योगदान देता है।
- आपराधिक दायित्त्व का ढाँचा: यह धारा यह स्थापित करती है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो जो कोई भी उसे आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित करता है, उसे आपराधिक रूप से उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
- इस उपबंध के अधीन आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण के कृत्य और मृत व्यक्ति द्वारा आत्महत्या करने के बीच सीधा संबंध होना आवश्यक है।
- दण्ड संरचना: भारतीय न्याय संहिता की धारा 108 के अधीन आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण के आरोप में दोषसिद्धि होने पर, अभियुक्त को किसी भी प्रकार के कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसकी अवधि दस वर्ष तक हो सकती है।
- न्यायालय के पास प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर कारावास की प्रकृति और अवधि निर्धारित करने का विवेकाधीन अधिकार है।
- कारावास के प्रकार: "किसी भी प्रकार का कारावास" वाक्यांश न्यायालय के विवेकाधिकार को दर्शाता है कि वह कठोर श्रम सहित कठोर कारावास या कठोर श्रम रहित साधारण कारावास में से कोई एक दे सकता है।
- कारावास के इन दो प्रकारों में से किसी एक का चुनाव अपराध की गंभीरता और उसके किए जाने की परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
- अतिरिक्त वित्तीय दण्ड: कारावास के अतिरिक्त, दोषसिद्ध व्यक्ति को जुर्माना भी देना होगा।
- इस उपबंध में जुर्माने की राशि निर्दिष्ट नहीं की गई है, इसलिये अपराध की गंभीरता और अपराधी की वित्तीय क्षमता के आधार पर उचित धन संबंधी दण्ड निर्धारित करना न्यायालय के न्यायिक विवेक पर छोड़ दिया गया है।
- न्यायिक निर्वचन और अनुप्रयोग: न्यायालयों ने निरंतर यह माना है कि वैवाहिक कलह, पारिवारिक विवाद या पति-पत्नी के बीच सामान्य असहमति का अस्तित्व ही इस उपबंध के अधीन आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का मामला नहीं बनता है।
- अभियोजन पक्ष को उकसावे, प्रोत्साहन या सहायता के स्पष्ट और ठोस साक्ष्य पेश करने होंगे, जिसने मृतक के आत्महत्या करने के निर्णय में प्रत्यक्ष रूप से योगदान दिया हो।
- साक्ष्य संबंधी आवश्यकताएँ: इस उपबंध के अधीन अभियोजन पक्ष को बिना किसी उचित संदेह के यह साबित करना होगा कि अभियुक्त ने आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण वाले विशिष्ट कार्य किये हैं।
- आत्महत्या पत्र, उकसावे के प्रत्यक्ष साक्ष्य, या विश्वसनीय साक्षी के परिसक्ष्य जैसी पुष्टिकारी सामग्री के बिना, अकेले परिस्थितिजन्य साक्ष्य इस धारा के अधीन अपराध स्थापित करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकते हैं।
- विधिक सुरक्षा उपाय: इस उपबंध में केवल संदेह या परिस्थितिजन्य साक्ष्य के बजाय दुरूपयोग के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य की आवश्यकता के माध्यम से सुरक्षा उपाय सम्मिलित किये गए हैं।
- न्यायालयों ने इस बात पर बल दिया है कि सामान्य घरेलू विवादों और वैवाहिक कलह को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण या प्रोत्साहन देने के ठोस साक्ष्य के बिना आसानी से आत्महत्या के लिये उकसाने के रूप में नहीं समझा जाना चाहिये।