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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 18
11-Jul-2025
अनुपम चक्रवर्ती बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य "याचिकाकर्त्ता कोई भी सांविधिक या सांविधानिक अधिकार स्थापित नहीं कर पाया है जिससे उसे नियमितीकरण का अनुतोष मिल सके। अपर लोक अभियोजकों की नियुक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 और संबंधित राज्य में प्रचलित सुसंगत नियमों के अधीन एक संरचित प्रक्रिया है। इस प्रकार, उक्त पद पर संविदा के आधार पर कार्यरत किसी व्यक्ति के नियमितीकरण का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा अनुतोष विधि के विरुद्ध होगा।" न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने निर्णय दिया कि एक संविदा पर नियुक्त लोक अभियोजक किसी भी सांविधिक या सांविधानिक अधिकार के अभाव में नियमितीकरण की मांग नहीं कर सकता है, क्योंकि ऐसा अनुतोष दण्ड प्रक्रिया संहिता और लागू राज्य नियमों के अधीन संरचित नियुक्ति प्रक्रिया का उल्लंघन होगा।
- उच्चतम न्यायालय ने अनुपम चक्रवर्ती बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
अनुपम चक्रवर्ती बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- याचिकाकर्त्ता को 20 जून 2014 को पुरुलिया के जिला मजिस्ट्रेट द्वारा अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में राज्य के मामलों के लिये सहायक लोक अभियोजक के रूप में कार्य करने हेतु नियुक्त किया गया था। यह नियुक्ति इस पद पर रिक्ति को भरने के लिये संविदा के आधार पर की गई थी।
- याचिकाकर्त्ता को प्रतिदिन अधिकतम दो मामलों के लिये 459 रुपए प्रति पेशी की दर से फीस का संदाय किया जाना था। इसके बाद, याचिकाकर्त्ता को रघुनाथपुर के न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में मामलों की पैरवी का कार्य भी सौंपा गया।
- याचिकाकर्त्ता ने अपनी फीस बढ़ाने की मांग की और अपनी सेवाओं के नियमितीकरण के लिये राज्य प्रशासनिक अधिकरण के समक्ष एक मूल आवेदन दायर किया। अधिकरण ने 16 दिसंबर 2022 के आदेश द्वारा उनके आवेदन को प्रारंभिक रूप से स्वीकार कर लिया।
- पश्चिम बंगाल सरकार के न्यायिक विभाग के प्रधान सचिव ने 12 जून 2023 को याचिकाकर्त्ता के दावे को खारिज कर दिया।
- इसके बाद याचिकाकर्त्ता ने दोबारा अधिकरण का दरवाजा खटखटाया और प्रमुख सचिव के आदेश को रद्द करने, अपनी सेवा को नियमित करने, सेवानिवृत्ति तक नौकरी की सुरक्षा और समान वेतन सहित कई अनुतोष की मांग की।
- पुनर्विचार करने पर, अधिकरण ने पाया कि याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति केवल संविदा के आधार पर हुई थी, किसी नियमित नियुक्ति के माध्यम से नहीं। अधिकरण ने पाया कि नियमितीकरण या नियमित रूप से नियुक्त सहायक लोक अभियोजकों के समान वेतन के लिये उसका दावा विधि में टिकने योग्य नहीं है।
- उच्च न्यायालय में, याचिकाकर्त्ता ने दलील दी कि उसका वर्तमान पारिश्रमिक अपर्याप्त है और ग्यारह वर्षों से भी अधिक समय से उसमें कोई संशोधन नहीं किया गया है। उसने तर्क दिया कि उसे कम से कम पैनल अधिवक्ताओं के समान फीस तो मिलनी चाहिये।
- राज्य ने दलील दी कि ऐसी कोई विधि नहीं है जिसके अधीन याचिकाकर्त्ता ऐसे अनुतोष का दावा कर सके।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता स्वयं पुरुलिया के जिला मजिस्ट्रेट से अनुरोध कर रहा था कि उसे आजीविका कमाने के लिये संविदा के आधार पर पद पर बने रहने की अनुमति दी जाए।
- न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता नियमितीकरण का अनुतोष पाने के योग्य कोई भी सांविधिक या सांविधानिक अधिकार स्थापित नहीं कर पाया है। अपर लोक अभियोजकों की नियुक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 और संबंधित राज्य में प्रचलित सुसंगत नियमों के अधीन एक संरचित प्रक्रिया है।
- न्यायालय ने कहा कि उक्त पद पर संविदा के आधार पर कार्यरत किसी व्यक्ति के नियमितीकरण का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा अनुतोष विधि के विपरीत होगा।
- न्यायालय ने कहा कि लोक अभियोजकों और अपर लोक अभियोजकों की नियुक्ति पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता (1973) (CrPC) की धारा 24 द्वारा शासित होती थी और अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 18 द्वारा शासित होती है।
- दोनों उपबंधों में यह उपबंध है कि ऐसी नियुक्तियाँ राज्य सरकार द्वारा जिला मजिस्ट्रेट और सेशन न्यायाधीश के परामर्श से की जानी चाहिये, तथा केवल उन्हीं लोगों की जानी चाहिये जिन्होंने कम से कम सात वर्षों तक अधिवक्ता के रूप में कार्य किया हो।
- न्यायालय ने कहा कि जहाँ अभियोजन अधिकारियों का एक नियमित कैडर विद्यमान है, वहाँ नियुक्तियाँ केवल कैडर के भीतर से ही की जानी चाहिये, जब तक कि राज्य सरकार को उसमें कोई उपयुक्त व्यक्ति उपलब्ध न मिले।
- अधिकरण ने पाया कि याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति केवल संविदा के आधार पर हुई थी, किसी नियमित नियुक्ति के माध्यम से नहीं। अधिकरण ने यह भी पाया कि याचिकाकर्त्ता ने आजीविका संबंधी चिंताओं के कारण नियुक्ति जारी रखने का अनुरोध किया था।
- उच्च न्यायालय ने पाया कि ऐसी कोई विधि नहीं है जिसके अधीन याचिकाकर्त्ता नियमितीकरण के लिये अनुतोष का दावा कर सके। यद्यपि, अपर्याप्त फीस के संबंध में याचिकाकर्त्ता की शिकायत को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय ने उसे फीस पर पुनर्विचार के लिये प्राधिकारियों से संपर्क करने की स्वतंत्रता प्रदान की।
लोक अभियोजक कौन हैं?
- लोक अभियोजक, धारा 18(1) में निर्दिष्ट अनुसार, न्यायालयों में सरकार की ओर से अभियोजन, अपील और अन्य कार्यवाही करने के लिये केंद्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त विधिक अधिकारी होते हैं।
- उन्हें संबंधित उच्च न्यायालय के परामर्श के बाद नियुक्त किया जाता है और धारा 18(7) के अधीन पद के लिये पात्र होने के लिये उनके पास अधिवक्ता के रूप में कम से कम सात वर्ष का व्यवसाय होना चाहिये ।
- प्रत्येक उच्च न्यायालय के लिये सरकार एक लोक अभियोजक नियुक्त करती है और उस स्तर पर मामलों को संभालने के लिये अपर लोक अभियोजक भी नियुक्त कर सकती है [धारा 18(1)] ।
- प्रत्येक जिले के लिये, राज्य सरकार एक लोक अभियोजक नियुक्त करती है और जिला-स्तरीय अभियोजन के लिये अपर लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है [धारा 18(3)] ।
- नियुक्ति प्रक्रिया में जिला मजिस्ट्रेट सेशन न्यायाधीश के परामर्श से उपयुक्त उम्मीदवारों का एक पैनल तैयार करता है [धारा 18(4)] , और राज्य सरकार केवल इस अनुमोदित पैनल से ही नियुक्ति कर सकती है [धारा 18(5)] । यद्यपि, यदि किसी राज्य में अभियोजन अधिकारियों का एक नियमित कैडर है, तो नियुक्तियाँ उसी कैडर के भीतर से की जानी चाहिये, जब तक कि कोई उपयुक्त व्यक्ति उपलब्ध न हो [धारा 18(6)] ।
- विशेष लोक अभियोजकों को विशिष्ट मामलों या मामलों के वर्गों के लिये नियुक्त किया जा सकता है, जिसके लिये अधिवक्ता के रूप में न्यूनतम दस वर्ष का व्यवसाय आवश्यक है [धारा 18(8)] ।
- विधि पीड़ितों को ऐसे मामलों में अभियोजन पक्ष की सहायता के लिये अपने स्वयं के अधिवक्ता को नियुक्त करने की भी अनुमति देती है [धारा 18 (8)का परंतुक] ।
- लोक अभियोजक आपराधिक कार्यवाहियों में सरकार के विधिक प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि अभियोजन प्रभावी ढंग से और विधि के अनुसार चलाया जाए। वे न्यायालय में अभियुक्तों के विरुद्ध राज्य का पक्ष प्रस्तुत करके आपराधिक न्याय प्रणाली में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सांविधानिक विधि
आधार नागरिकता प्रमाण के रूप में मान्य नहीं है
11-Jul-2025
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारतीय चुनाव आयोग “आधार कार्ड नागरिकता का सबूत नहीं” न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने निर्णय दिया कि आधार अधिनियम, 2016 की धारा 9 के अनुसार आधार कार्ड नागरिकता का वैध सबूत नहीं है; भारत के निर्वाचन आयोग ने बिहार विशेष गहन पुनरीक्षण के दौरान नागरिकता दस्तावेज़ों की सूची से इसे अपवर्जित करने को उचित ठहराया, यह स्पष्ट करते हुए कि आधार केवल पहचान के सबूत के रूप में कार्य करता है - राष्ट्रीयता के लिये नहीं - जबकि उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नागरिकता का निर्धारण गृह मंत्रालय के पास है और निर्वाचन से पहले अंतिम समय में मताधिकार से वंचित करने के विरुद्ध चेतावनी दी।
- उच्चतम न्यायालय ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारतीय निर्वाचन आयोग (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारत निर्वाचन आयोग मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने जून 2024 में बिहार में मतदाता सूची के "विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) का आदेश दिया है।
- भारत के इतिहास में यह पहली बार है जब निर्वाचन आयोग ने इस तरह की प्रक्रिया शुरू की है। मतदाता सूचियों के नियमित संशोधनों के विपरीत, विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) विशेष रूप से 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं पर केंद्रित है और इसके अधीन उन्हें केवल 11 निर्दिष्ट दस्तावेज़ों के माध्यम से अपनी नागरिकता साबित करनी होगी।
- “विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम या संबंधित नियमों में मान्यता नहीं दी गई है।
- यह "गहन पुनरीक्षण" ((नामावली की पूरी तरह से नई तैयारी) और "संक्षिप्त पुनरीक्षण" (विद्यमान नामावली को अद्यतन करना) दोनों से भिन्न है।
- निर्वाचन आयोग ने मनमाने ढंग से 2003 की कट-ऑफ तारीख तय कर दी, जिससे लाखों मतदाता प्रभावित हुए।
- भारत निर्वाचन आयोग ने नागरिकता के स्वीकार्य सबूत के रूप में 11 दस्तावेज़ों को निर्दिष्ट किया।
- उल्लेखनीय रूप से निम्नलिखित को अपवर्जित किया गया है:
- आधार कार्ड (जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के अधीन व्यापक रूप से उपयोग और स्वीकृत होते हुए भी)
- मतदाता पहचान पत्र (विडंबना यह है कि ये स्वयं निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किये जाते हैं)
- राशन कार्ड
- मनरेगा (MNREGA) जॉब कार्ड
- जन्म प्रमाण पत्र
- बिहार के कुल 8 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 4.74 करोड़ मतदाताओं को सत्यापन की आवश्यकता है।
- यह प्रक्रिया मुसलमानों, दलितों और गरीब प्रवासी श्रमिकों सहित हाशिए पर रहने वाले समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है।
- बिहार की जनसंख्या के केवल एक छोटे प्रतिशत के पास ही कई आवश्यक दस्तावेज़ उपलब्ध हैं (उदाहरण के लिये, पासपोर्ट केवल 2.5% लोगों के पास)।
- सांविधानिक उल्लंघन
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि “विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) कई सांविधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है:
- अनुच्छेद 14 : विधि के अधीन समान संरक्षण (जिसे विभेदकारी व्यवहार द्वारा बाधित किया गया है।)
- अनुच्छेद 19 : आवागमन की स्वतंत्रता (प्रवासियों को प्रभावित करने के कारण)।
- अनुच्छेद 21 : जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार।
- अनुच्छेद 325 और 326 : मतदान का अधिकार और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार।
- याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि “विशेष गहन पुनरीक्षण" (SIR) कई सांविधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है:
- प्रक्रियात्मक अनियमितताएँ
- समय : यह प्रक्रिया बिहार में नवंबर 2025 में होने वाले निर्वाचन से कुछ महीने पहले शुरू किया गया था।
- सबूत का भार : अपनी पात्रता साबित करने का उत्तरदायित्त्व राज्य से नागरिकों पर स्थानांतरित करता है।
- अपर्याप्त समय-सीमा : मतदाताओं को आवश्यक दस्तावेज़ों की व्यवस्था करने के लिये अपर्याप्त समय दिया गया।
- भेदभाव संबंधी चिंताएँ
- ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रक्रिया विशिष्ट समुदायों को असमान रूप से लक्षित करती है।
- विभिन्न श्रेणियों के लोगों के लिये भिन्न-भिन्न मानक बनाता है।
- संभावित रूप से उन मतदाताओं को मताधिकार से वंचित कर देता है जो दशकों से अपने मताधिकार का प्रयोग कर रहे हैं।
- मुख्य विवाद
- इस विवाद का मूल नागरिकता निर्धारित करने के निर्वाचन आयोग के अधिकार में निहित है। यद्यपि निर्वाचन आयोग संविधान के अनुच्छेद 326 के अधीन शक्तियों का दावा करता है, आलोचकों का तर्क है कि:
- नागरिकता निर्धारण मुख्यतः गृह मंत्रालय का क्षेत्र है, न कि निर्वाचन आयोग का।
- आधार को अपवर्जित रखना विशेष रूप से समस्याग्रस्त है क्योंकि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम इसे वैध पहचान पत्र के रूप में मान्यता देता है।
- सीमित समयसीमा और दस्तावेज़ आवश्यकताओं को देखते हुए यह प्रक्रिया व्यावहारिक रूप से असंभव है।
- लोकतांत्रिक सिद्धांत दांव पर होता हैं जब लंबे समय से मतदाता रहे लोगों को मताधिकार से वंचित होने का खतरा होता है।
- यह मामला निम्नलिखित मूलभूत प्रश्न उठाता है:
- निर्वाचन अखंडता और मताधिकार के बीच संतुलन।
- नागरिकता निर्धारित करने में विभिन्न सांविधानिक निकायों की भूमिका।
- किसी भी मतदाता सूची संशोधन के लिये आवश्यक प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय।
- आगामी निर्वाचन के संबंध में इस तरह के अभ्यास का समय और तरीका।
- इस मामले का परिणाम संभवतः इस बात के लिये महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करेगा कि भारत भर में मतदाता सूची में संशोधन किस प्रकार किया जाता है, तथा नागरिकता सत्यापन से संबंधित मामलों में भारत निर्वाचन आयोग की शक्तियों की सीमा क्या है।
- यह मामला उच्चतम न्यायालय में लंबित है, जिसकी अगली सुनवाई 28 जुलाई, 2025 को निर्धारित है। भारत के निर्वाचन आयोग को 21 जुलाई, 2025 तक अपना प्रति-शपथपत्र दाखिल करने का निदेश दिया गया है, और मतदाता सूची के प्रारूप प्रकाशन (मूल रूप से 1 अगस्त, 2025 के लिये निर्धारित) पर न्यायालय के निर्णय के लंबित रहने तक प्रभावी रूप से रोक लगा दी गई है।
- यह मामला भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं तथा निर्वाचन अखंडता सुनिश्चित करने और मौलिक मताधिकार की रक्षा के बीच संतुलन की एक महत्त्वपूर्ण परीक्षा का प्रतिनिधित्व करता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि याचिकाओं में "एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है जो देश में लोकतंत्र की कार्यप्रणाली के मूल में है - मतदान का अधिकार।"
- पीठ ने कहा कि मामले में तीन महत्त्वपूर्ण विवाद्यक सम्मिलित थे: (क) निर्वाचन आयोग की यह प्रक्रिया करने की शक्तियां; (ख) प्रक्रिया और तरीका जिससे यह प्रक्रिया की जा रही है; और (ग) समय, जिसमें मसौदा मतदाता सूची तैयार करने, आपत्तियां मांगने और अंतिम मतदाता सूची बनाने के लिये दी गई समय-सीमा शामिल है, जो यह देखते हुए बहुत कम है कि बिहार निर्वाचन नवंबर 2025 में होने वाले हैं।
- न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा कि "नागरिकता एक ऐसा विवाद्यक है जिसका निर्धारण भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा नहीं, अपितु गृह मंत्रालय द्वारा किया जाना चाहिये।" उन्होंने नागरिकता के मामलों पर निर्णय लेने के लिये निर्वाचन आयोग के अधिकार पर प्रश्न उठाया।
- न्यायालय ने समयसीमा की यथार्थवादी प्रकृति के बारे में गंभीर संदेह व्यक्त किया, न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा: "हमें इस बात पर गंभीर संदेह है कि क्या यह समयसीमा यथार्थवादी है। यह व्यावहारिकता का प्रश्न है।"
- न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची ने यह टिप्पणी की कि भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा ऐसे व्यक्तियों को मतदाता सूची से वंचित करना, जो पहले से ही सूचीबद्ध हैं, इस व्यक्ति को आयोग के निर्णय के विरुद्ध अपील करने हेतु विवश करेगा तथा उसे संपूर्ण प्रक्रियात्मक जटिलताओं से गुजरना पड़ेगा, जिससे वह आगामी निर्वाचन में अपने मताधिकार के प्रयोग से वंचित रह सकता है। यह स्थिति न केवल अत्यधिक प्रक्रियात्मक भार (procedural burden) उत्पन्न करती है, अपितु लोकतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघन की भी संभावना को जन्म देती है।
- पीठ ने आधार कार्ड को सम्मिलित न करने पर प्रश्न उठाया और कहा कि "भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा निर्दिष्ट कई दस्तावेज़ आधार पर ही आधारित हैं" और पूछा कि इस मौलिक पहचान दस्तावेज़ को सम्मिलित क्यों नहीं किया जा सकता, जबकि सभी निर्दिष्ट दस्तावेज़ नागरिकता के बजाय पहचान से संबंधित हैं।
- न्यायालय ने वरिष्ठ अधिवक्ता सिंघवी की इस दलील से सहमति जताई कि "एक भी पात्र मतदाता को मताधिकार से वंचित करने से समान अवसर प्रभावित होता है, लोकतंत्र प्रभावित होता है तथा बुनियादी ढाँचे पर आघात होता है," तथा चुनावी भागीदारी के सांविधानिक महत्त्व को मान्यता दी।
- न्यायमूर्ति धूलिया ने समय के संबंध में टिप्पणी की: "प्रश्न यह है कि आप इस प्रक्रिया को नवंबर में होने वाले चुनाव से क्यों जोड़ रहे हैं, जबकि यह ऐसी प्रक्रिया है जो पूरे देश के चुनाव से स्वतंत्र हो सकती है," उन्होंने चुनावी प्रक्रिया के निकट समय और चुनावी निष्पक्षता के प्रति संभावित अपराध के बारे में चिंता व्यक्त की।
भारतीय संविधान के अधीन नागरिक की परिभाषा क्या है?
- संविधान के अनुच्छेद 5 के अधीन, प्रत्येक व्यक्ति जिसका अधिवास भारत के राज्यक्षेत्र में है और वह भारत के राज्यक्षेत्र में पैदा हुआ था, या जिसके माता-पिता में से कोई भी भारत के राज्यक्षेत्र में पैदा हुआ था, या जो संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले कम से कम पाँच वर्षों के लिये भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर पर निवासी रहा है, वह भारत का नागरिक होगा।
- अनुच्छेद 6 में यह उपबंध है कि अनुच्छेद 5 के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जो वर्तमान में पाकिस्तान में सम्मिलित राज्यक्षेत्र से भारत के राज्यक्षेत्र में प्रव्रजन कर गया है, संविधान के प्रारंभ पर भारत का नागरिक माना जाएगा, यदि वह या उसके माता-पिता में से कोई या उसके मातामह या मातामही में से कोई-पितामह या पितामही में से कोई भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में पैदा हुआ था, तथा उसने निर्धारित निवास और रजिस्ट्रीकरण आवश्यकताओं को पूरा किया है।
- अनुच्छेद 7 में यह उपबंध है कि अनुच्छेद 5 और 6 के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जो 1 मार्च, 1947 के पश्चात् भारत के राज्यक्षेत्र से उस राज्यक्षेत्र में प्रव्रजन कर गया है जो अब पाकिस्तान में सम्मिलित है, उसे भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा, सिवाय इसके कि ऐसा व्यक्ति पुनर्वास या स्थायी वापसी के अनुज्ञा के अधीन भारत लौट आया हो।
- अनुच्छेद 8 के अधीन, कोई भी व्यक्ति जो या जिसके माता-पिता में से कोई या उसके पितामह या पितामही-मातामह या मातामही में से कोई भारत में पैदा हुआ था जैसा कि भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित किया गया है, और जो सामान्यतः भारत के बाहर किसी देश में रह रहा है, उसे भारत का नागरिक माना जाएगा यदि उसे उस देश में भारत के राजनयिक या कौंसलीय प्रतिनिधि द्वारा भारत के नागरिक के रूप में रजिस्ट्रीकृत किया गया है जहाँ वह रह रहा है।
- अनुच्छेद 9 में यह घोषित किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति ने स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर ली है तो वह अनुच्छेद 5 के आधार पर भारत का नागरिक नहीं होगा, अथवा अनुच्छेद 6 या अनुच्छेद 8 के आधार पर भारत का नागरिक नहीं समझा जाएगा।
- अनुच्छेद 10 में यह उपबंध है कि प्रत्येक व्यक्ति जो पूर्वोक्त उपबंधों के अंतर्गत भारत का नागरिक है या समझा जाता है, संसद द्वारा बनाए गए किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, ऐसा नागरिक बना रहेगा।
- अनुच्छेद 11 संसद को विधि द्वारा नागरिकता के अधिकार को विनियमित करने का अधिकार देता है, जिसमें कहा गया है कि पूर्वगामी उपबंधों में से कोई भी नागरिकता के अधिग्रहण और समाप्ति तथा नागरिकता से संबंधित अन्य सभी मामलों के संबंध में कोई उपबंध करने की संसद की शक्ति से वंचित नहीं करेगा।
- सांविधानिक ढाँचा यह स्थापित करता है कि नागरिकता मुख्य रूप से जन्म, वंश, अधिवास और निवास मानदंडों के माध्यम से निर्धारित की जाती है, जैसा कि अनुच्छेद 5 से 11 में उल्लिखित है, तथा अनुच्छेद 11 के अधीन नागरिकता के मामलों पर विधि बनाने का अंतिम अधिकार संसद के पास है।
सांविधानिक विधि
जनहित याचिका की अधिकारिता
11-Jul-2025
सुनीलभाई रतनलाल मैटल बनाम गुजरात राज्य और अन्य "जो व्यक्ति पत्रकार होने का दावा करता है उसे उत्तरदायित्वपूर्वक काम करना होगा।" मुख्य न्यायाधीश सुनीता अग्रवाल और न्यायमूर्ति डी.एन. रे |
स्रोत: गुजरात उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सुनीता अग्रवाल और न्यायमूर्ति डी.एन. रे ने विकास अधिकारों के संबंध में मिथ्या कथनों और भ्रामक तर्कों के आधार पर जनहित याचिका (PIL) दायर करने के लिये एक याचिकाकर्त्ता पर 1 लाख रुपए का जुर्माना अधिरोपित किया है।
- गुजरात उच्च न्यायालय ने सुनीलभाई रतनलाल मैत्तल बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2024) मामले में यह निर्णय दिया।
सुनीलभाई रतनलाल मैत्तल बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2024) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता सुनीलभाई रतनलाल मैत्तल, जो नवसारी टाइम्स साप्ताहिक के मुख्य संपादक और 14 वर्षों से पत्रकार होने का दावा करते हैं, ने मेसर्स महेंद्र ब्रदर्स एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड को दी गई भूमि उपयोग अनुमति को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका दायर की।
- यह चुनौती वाणिज्यिक उपयोग के लिये दी गई विकास अनुमति के विरुद्ध थी , जिसे 1992-93 में गैर-कृषि उपयोग में परिवर्तित कर दिया गया था।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि विचाराधीन भूमि को जनवरी 1994 में रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख के माध्यम से एक अन्य पक्षकार द्वारा क्रय किया गया था, जिसने अगस्त 2000 में वाणिज्यिक उपयोग के लिये आवेदन किया था।
- नवसारी के जिला विकास अधिकारी ने जून 2001 में बॉम्बे भूमि राजस्व संहिता की धारा 65(1) और 67 के अधीन हीरा कारखाना स्थापित करने की अनुमति प्रदान की थी।
- बाद में अक्टूबर 2010 में बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा पारित विलय आदेश के बाद भूमि प्रतिवादी कंपनी को अंतरित कर दी गई ।
- याचिकाकर्त्ता का परिवाद कंपनी को विकास की अनुमति दिये जाने के विरुद्ध था, जबकि उसका आवेदन जून 2022 में ही खारिज कर दिया गया था। याचिकाकर्त्ता का अभिकथन था कि निर्माण कार्य अवैध रूप से जारी रहा।
- याचिकाकर्त्ता ने अक्टूबर 2022 में नवसारी शहरी विकास प्राधिकरण और फरवरी 2023 में गुजरात के मुख्य सचिव को परिवाद किया, किंतु प्राधिकरण ने अप्रैल 2023 में नए विकास की अनुमति दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि "यह स्पष्ट है कि प्लॉट संख्या 15 और 16 दोनों का भूमि उपयोग औद्योगिक है। वर्तमान रिट याचिका दायर किये जाने का संपूर्ण आधार पूर्णतः असत्य है।"
- न्यायालय ने पाया कि वर्तमान रिट याचिका एक ऐसे व्यक्ति द्वारा मिथ्या कथन के साथ दायर की गई है जो 14 वर्षों से पत्रकार होने और समाज सेवा करने का दावा करता है।
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता द्वारा पत्रकार होने का दावा किये जाने का हवाला देते हुए इस बात पर बल दिया कि "ऐसे पद पर आसीन व्यक्ति को उत्तरदायित्वपूर्वक काम करना होगा।"
- न्यायालय ने कहा कि "वर्तमान रिट याचिका दायर करने का उद्देश्य... कुछ और नहीं अपितु व्यक्तिगत द्वेष या गुप्त उद्देश्य प्रतीत होता है।"
- न्यायालय ने कहा कि वास्तविक भूमि उपयोग वर्गीकरण के संबंध में जनहित याचिका "न्यायालय को गुमराह करने के उद्देश्य से अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण तथ्यों के साथ" दायर की गई थी।
- न्यायालय ने कहा कि "2010 की कंपनी याचिका या उसमें पारित आदेश का कोई विवरण नहीं है" तथा अभिलेख में ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जो यह स्पष्ट कर सके कि भूमि का कौन सा भाग बॉम्बे उच्च न्यायालय के निर्णय के अधीन था।
- न्यायालय ने पाया कि याचिका में किये गए "अस्पष्ट दावे" के अतिरिक्त, किये गए दावों के समर्थन में पर्याप्त दस्तावेज़ भी नहीं थे।
जनहित याचिका (PIL) क्या है?
बारे में:
- जनहित याचिका (PIL) एक विधिक तंत्र है जो किसी भी नागरिक को लोक शिकायतों के निवारण और लोक हितों की सुरक्षा के लिये न्यायालयों का दरवाजा खटखटाने की अनुमति देता है।
- जनहित याचिका न्यायपालिका को उन लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें लागू करने में सक्षम बनाती है जो गरीबी, अज्ञानता या सामाजिक अक्षमताओं के कारण सीधे न्यायालयों से संपर्क करने में असमर्थ हैं।
- यह अवधारणा 1980 के दशक में न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती द्वारा आम आदमी के लिये न्याय को सुलभ बनाने तथा यह सुनिश्चित करने के लिये प्रस्तुत की गई थी कि विधिक प्रणाली सामाजिक न्याय के लिये कार्य करे।
- जनहित याचिका किसी भी जनहितैषी नागरिक द्वारा दायर की जा सकती है, भले ही वह मामले से प्रत्यक्षत: प्रभावित न हो, बशर्ते कि वह वास्तविक लोक मुद्दे से संबंधित हो।
जनहित याचिका की अधिकारिता का दुरुपयोग कैसे किया जाता है?
- जनहित याचिका व्यक्तिगत लाभ, निजी विवाद या व्यक्तियों या प्राधिकारियों के साथ व्यक्तिगत रंजिश निपटाने के लिये दायर नहीं की जानी चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने जनहित याचिका की अधिकारिता के दुरुपयोग के विरुद्ध बार-बार चेतावनी दी है तथा तुच्छ याचिकाकर्त्ताओं पर जुर्माना अधिरोपित किया है।
- जनहित याचिका वास्तविक जनहित पर आधारित होनी चाहिये, न कि व्यक्तिगत द्वेष, राजनीतिक प्रतिशोध या प्रसिद्धि पाने के लिये।
- न्यायालयों के पास जनहित याचिका की अधिकारिता का दुरुपयोग करने वालों पर जुर्माना अधिरोपित करना तथा यहाँ तक कि अवमानना कार्यवाही शुरू करने का अधिकार है ।
- न्यायपालिका ने इस बात पर बल दिया है कि जनहित याचिका प्रतिशोध का हथियार या सरकारी अधिकारियों को परेशान करने का उपकरण नहीं है।
- उत्तरदायी पत्रकारिता और सामाजिक सक्रियता के लिये न्यायालयों में जाने से पहले तथ्यों का सत्यापन आवश्यक है, विशेषकर जनहित याचिका के मामलों में।
जनहित याचिका से संबंधित विधिक उपबंध क्या हैं?
- संविधान का अनुच्छेद 32 उच्चतम न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये रिट जारी करने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों और अन्य विधिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये रिट जारी करने का अधिकार देता है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश I नियम 8 में कुछ परिस्थितियों में प्रतिनिधि वाद की अनुमति दी गई है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 133 मजिस्ट्रेटों को लोक न्यूसेन्स को हटाने का अधिकार देती है।
- न्यायालयों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 528) के अधीन विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये अंतर्निहित शक्तियां प्राप्त हैं।
संबंधित निर्णय
- बाल्को एम्प्लॉइज यूनियन (रजिस्ट्रीकृत) बनाम भारत संघ एवं अन्य (2001) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग के प्रति आगाह किया और कहा कि इसका प्रयोग तेज़ी से "प्रचार" या "निजी" हित याचिकाओं के रूप में किया जा रहा है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जनहित याचिकाओं का उद्देश्य उन गरीबों और वंचितों के अधिकारों की रक्षा करना है जो न्याय तक पहुँच नहीं पाते, और दुरुपयोग को रोकने के लिये इसकी स्वीकार्य सीमाओं को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता पर बल दिया।