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आपराधिक कानून
बीएनएसएस की धारा 144
21-Jul-2025
टुम्पा बसाक बनाम तुफ़ान बसाक "आधुनिक समय में, परिवर्तित वैवाहिक भूमिकाओं की पृष्ठभूमि में एक नवीन न्यायिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है - अब भरण-पोषण का उद्देश्य केवल जीवन निर्वाह नहीं, अपितु जीवन शैली की स्थिरता सुनिश्चित करना है; इस प्रकार, पति-पत्नी का परस्पर समर्थन केवल प्रतिकर के रूप में नहीं, अपितु जीवन निर्वाह की निरंतरता के रूप में देखा जाना चाहिये।" न्यायमूर्ति बिभास रंजन डे |
स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में न्यायमूर्ति बिभास रंजन डे ने यह निर्णय दिया कि भरण-पोषण केवल न्यूनतम जीविका हेतु नहीं दिया जाता, अपितु इसका उद्देश्य विच्छेद के उपरांत जीवन शैली की निरंतरता एवं सुनिश्चित करना है।
- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने टुम्पा बसाक बनाम तूफान बसाक (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
टुम्पा बसाक बनाम तुफान बसाक मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- टुम्पा बसाक (पत्नी/याचिकाकर्त्ता) और तुफान बसाक (पति/विपरीत पक्ष) का विवाह वैध रूप से हुआ था और उनके विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ था।
- इसके बाद, दोनों पक्षकारों को वैवाहिक कलह का सामना करना पड़ा, जिसके कारण वे पृथक् हो गए और वैवाहिक संबंध टूट गया।
- वैवाहिक जीवन टूटने के बाद, पत्नी ने अपने लिये भरण-पोषण की मांग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के अधीन कार्यवाही शुरू की।
- न्यायालय ने परिस्थितियों पर विचार करने के पश्चात् पत्नी के पक्ष में 30,000 रुपए प्रति माह का भरण-पोषण देने का आदेश दिया।
- बाद में पति उच्च स्तरीय बैंकिंग अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हो गए, जिससे परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ और उनकी वित्तीय क्षमता प्रभावित हुई।
- अपनी सेवानिवृत्ति को ध्यान में रखते हुए, पति ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 127 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें भरण-पोषण राशि को 30,000 रुपए से कम करने की मांग की गई।
- न्यायिक मजिस्ट्रेट, 5वीं न्यायालय, बैरकपुर, उत्तर 24 परगना ने दिनांक 30.12.2023 के आदेश के अधीन भरण-पोषण की राशि को 30,000/- रुपए से घटाकर 20,000/- रुपए प्रति माह कर इस आवेदन का निपटारा किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि आयकर रिटर्न को किसी व्यक्ति की वास्तविक आय का निश्चायक सबूत नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसे रिटर्न मुख्यतः करदाता द्वारा स्वयं दी गई जानकारी पर आधारित होते हैं।
- कर रिटर्न में बताए गए आंकड़े करदाता की समझ और व्याख्या के अधीन हैं, जो सदैव सटीक, व्यापक या वास्तविक वित्तीय क्षमता को प्रतिबिंबित करने वाले नहीं हो सकते हैं।
- कर रिटर्न में कम जानकारी देने की संभावना सदैव बनी रहती है, जिससे किसी व्यक्ति की वास्तविक आय उसमें दर्शाए गए आंकड़ों से काफी भिन्न हो जाती है।
- न्यायालयों को भरण-पोषण कार्यवाही में आय का निर्धारण करते समय आयकर रिटर्न से परे देखना चाहिये तथा भरण-पोषण दाता की संभावित आय, पिछली आय और परिसंपत्तियों की जांच करनी चाहिये।
- न्यायालय ने वर्तमान समय में वैवाहिक दायित्त्वों के संबंध में समाज में भारी परिवर्तन देखा, तथा भरण-पोषण अनुदान के प्रति न्यायिक दृष्टिकोण में भी इसी प्रकार के परिवर्तन की मांग की।
- भरण-पोषण अब केवल जीविका चलाने के लिये दी जाने वाली सहायता मात्र नहीं रह गया है, अपितु यह जीवनशैली की स्थिरता को बनाए रखने का साधन बन गया है तथा यह पृथक् होने के लिये प्रतिकर के बजाय जीवन की निरंतरता को दर्शाता है।
- पृथक् होने के पश्चात् भरण-पोषण, विवाहित जीवन के दौरान पत्नी की जीवनशैली के अनुरूप होना चाहिये, तथा जिन महिलाओं ने घरेलू उत्तरदायित्त्वों को निभाने में वर्षों लगा दिये हैं, उन्हें पृथक् होने के बाद भी तुलनीय जीवन जीने का अधिकार है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 144 क्या है ?
- पर्याप्त साधन संपन्न कोई भी व्यक्ति जो अपनी पत्नी, जो स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, अपने धर्मज या अधर्मज संतानों, जो स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, या अपने पिता या माता, जो स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, का भरण-पोषण करने में उपेक्षा करता है या इंकार करता है, उसे भरण-पोषण प्रदान करने के लिये बाध्य किया जा सकता है।
- प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट, ऐसी उपेक्षा या इंकार के साबित होने पर, ऐसी दर पर मासिक भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दे सकता है, जिसे मजिस्ट्रेट ठीक समझे, तथा ऐसे व्यक्ति को उचित रूप से संदाय करने का निदेश दे सकता है।
- भरण-पोषण उन धर्मज या अधर्मज संतानों पर लागू होता है जो वयस्क हो गए हैं, किंतु शारीरिक या मानसिक असामान्यता या क्षति के कारण अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, इसमें विवाहित पुत्रियाँ सम्मिलित नहीं हैं।
- कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, मजिस्ट्रेट कार्यवाही के व्यय के साथ पत्नी, संतान, पिता या माता के लिये अंतरिम भरण-पोषण का आदेश दे सकता है, तथा आवेदन का निपटारा साठ दिनों के भीतर किया जाना होगा।
- इस अध्याय के प्रयोजनों के लिये, "पत्नी" में वह महिला सम्मिलित है जिसके पति ने उससे विवाह-विच्छेद कर लिया है या जिसने अपने पति से विवाह-विच्छेद कर लिया है और उसने पुनर्विवाह नहीं किया है।
- भरण-पोषण भत्ता आदेश की तिथि से या यदि आदेश दिया गया हो तो आवेदन की तिथि से देय होगा, तथा इसका पालन न करने पर उद्गृहीत किया जाने के लिये वारण्ट तथा एक माह तक का कारावास हो सकता है।
- कोई भी पत्नी भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं होगी यदि वह जारता की दशा में रह रही है, पर्याप्त कारण के बिना पति के साथ रहने से इंकार करती है, या वे आपसी सहमति से पृथक् रह रहे हैं।
- यदि पति ने किसी अन्य महिला से विवाह कर लिया है या रखेल रखता है, तो यह पत्नी द्वारा उसके साथ रहने से इंकार करने का न्यायसंगत आधार है, और मजिस्ट्रेट पति के साथ रहने के प्रस्ताव के बावजूद भरण-पोषण प्रदान कर सकता है।
संदर्भित मामला
- कुसुम शर्मा बनाम महिंदर कुमार शर्मा, 2015
- यह स्थापित किया गया कि भरण-पोषण में उस गरिमा और जीवन स्तर को प्रतिबिंबित किया जाना चाहिये जिसकी पत्नी विवाह के दौरान आदी थी।
- शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान , (2015)
- भरण-पोषण निर्धारण में समता स्थिति के सिद्धांत का समर्थन करें।
- अवनीश पवार बनाम डॉ. सुनीता पवार , II (2000)
- यह स्थापित किया गया कि भरण-पोषण युक्तियुक्त होना चाहिये तथा पति की वास्तविक आय के अनुपात में होना चाहिये।
सांविधानिक विधि
सामाजिक दबाव से महिला अपराधों पर सुधारात्मक दृष्टिकोण
21-Jul-2025
कुम. शुभा उर्फ शुभशंकर बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य "एक महिला के कार्य अक्सर सामाजिक मानदंडों और बाहरी दबावों से प्रभावित होते हैं, जो गहरी असमानताओं के बीच उसकी सीमित अभिव्यक्ति को दर्शाते हैं।" न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार ने निर्णय दिया है कि सामाजिक दबाव में अपराध करने वाली महिलाओं के लिये एक सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये, विशेष रूप से बलात् विवाह जैसे मामलों में, जहाँ गहरी लैंगिक असमानताएं उनकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को प्रतिबंधित करती हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने शुभा उर्फ शुभशंकर बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
कुमारी शुभा उर्फ शुभशंकर बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- शुभा शंकर (A-4) 20 वर्षीय बी.एम.एस. लॉ कॉलेज, बैंगलोर में विधि की छात्रा थी।
- अरुण वर्मा (A -1) उनके घनिष्ठ मित्र और उसी कॉलेज में विधि के सहपाठी थे।
- दिनेश उर्फ दिनाकरन (A-3) 28 वर्षीय विवाहित पुरुष और अरुण वर्मा का चचेरा भाई था।
- वेंकटेश (A-2) 19 वर्षीय किशोर था और दिनेश का मित्र था।
- बी.वी. गिरीश (मृतक) इंटेल में 26 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे, जिनकी सगाई शुभा से हुई थी।
- दोनों परिवार बैंगलोर के एक ही क्षेत्र के निवासी थे और उनके बीच सौहार्दपूर्ण संबंध थे।
- शुभा के माता-पिता ने अक्टूबर 2003 में गिरीश के माता-पिता के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे स्वीकार कर लिया गया।
- 30 नवम्बर 2003 को सगाई संपन्न हुई तथा 11 अप्रैल 2004 को विवाह की तिथि निश्चित की गई।
- शुभा विवाह हेतु इच्छुक नहीं थी और इस विषय में उसने अपनी सहेलियों एवं ब्यूटीशियन को अपनी अनिच्छा बताई थी।
- शुभा ने अपने करीबी मित्र अरुण वर्मा के सामने इस विवाह का विरोध जताया।
- 3 दिसंबर 2003 को शुभा ने मृतक से टी.जी.आई. फ्राइडे होटल में रात्रि भोजन के लिये चलने को कहा।
- रात्रि भोजन के बाद वे हवाई जहाज़ों को उतरते देखने के लिये एयरपोर्ट रिंग रोड पर स्थित "एयर व्यू पॉइंट" पर रुके।
- यहीं पर, मृतक के सिर पर एक अज्ञात हमलावर ने स्टील की रॉड से जानलेवा हमला किया।
- शुभा ने राहगीरों की सहायता से घायल मृतक को मणिपाल अस्पताल पहुँचाया।
- मृतक को 4 दिसम्बर, 2003 को प्रातः 8:05 बजे मृत घोषित कर दिया गया।
- अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- सभी चार अभियुक्तों को 25 जनवरी, 2004 को गिरफ्तार कर लिया गया।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120-ख और धारा 302 के साथ धारा 120-ख के अधीन आरोप विरचित किये गए।
- शुभा पर साक्ष्य नष्ट करने के लिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 201 के अधीन अतिरिक्त आरोप भी लगाया गया।
- अभियोजन पक्ष ने अभिकथित किया कि सभी अभियुक्तों ने शुभा का बलात् विवाह रोकने के लिये मृतक की हत्या का षड्यंत्र रचा।
- अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि अरुण और वेंकटेश ने दंपत्ति का पीछा किया तथा दिनेश ने कॉल के माध्यम से योजना का समन्वय किया।
- अभियोजन पक्ष के अनुसार, वेंकटेश ने मृतक पर स्टील की रॉड से हमला किया, जबकि अरुण स्कूटर पर उसका इंतजार कर रहा था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित मामलों में अभियोजन पक्ष को साक्ष्य की एक पूरी श्रृंखला स्थापित करनी होगी, जिसमें प्रत्येक कड़ी जुड़ी हो और उचित संदेह से परे साबित हो, तथा उद्देश्य, साधन और अवसर स्पष्ट रूप से स्थापित हों।
- न्यायालय ने यह स्थापित किया कि साक्ष्यों को जानबूझकर नष्ट करना, विशेष रूप से मोबाइल फोन पर संसूचना रिकॉर्ड को नष्ट करना, अभियुक्त के विरुद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार बनता है, विशेषकर तब जब ऐसे आचरण के लिये कोई पर्याप्त स्पष्टीकरण नहीं दिया गया हो।
- न्यायालय ने माना कि मिथ्या अन्यत्र उपस्थिति की दलील से अपराध बोध का प्रदर्शन होता है तथा अभियोजन पक्ष का मामला मजबूत होता है, विशेषकर तब जब अस्पताल के रिकॉर्ड कथित स्थान पर उपस्थिति के दावे को प्रमाणित करने में विफल रहते हैं।
- न्यायालय ने आपराधिक षड्यंत्र के सिद्धांत को लागू करते हुए कहा कि षड्यंत्र के सभी सदस्य समान रूप से उत्तरदायी होते हैं, चाहे वे प्रत्यक्ष रूप से आपराधिक कृत्य में सम्मिलित हों या नहीं, यदि वह कृत्य सामान्य आपराधिक योजना को अग्रसर करने हेतु किया गया हो।
- न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 161 के अंतर्गत सांविधानिक शक्तियां, सांविधिक शक्तियों से मौलिक रूप से भिन्न हैं - सांविधानिक शक्तियां स्वयं संविधान से उत्पन्न होती हैं तथा मानवता और समता को प्राथमिकता देने वाली व्यापक नैतिक दृष्टि को मूर्त रूप देती हैं, जबकि सांविधिक शक्तियां विधायिका द्वारा अधिनियमित विधियों से प्राप्त होती हैं।
- न्यायालय ने यह स्थापित किया कि केवल दण्ड अपराध के लिये पूर्ण उपचार नहीं हो सकता, विशेषकर तब जब अपराधी आपराधिक कृत्य के कारणों के लिये पूरी तरह से उत्तरदायी न हो, तथा उसने करुणामय सुधार के माध्यम से सुधारात्मक दृष्टिकोण पर बल दिया।
- न्यायालय ने माना कि महिलाओं को अत्यधिक पूर्वधारणा और लैंगिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, सामाजिक मानदंड और बाधाएँ उनके कार्यों और अभिव्यक्तियों को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं, विशेष रूप से बलात् विवाह (forced marriage) के संबंध में, जो पेशेवर/शैक्षणिक प्रगति को कम कर देती हैं।
- न्यायालय ने कहा कि समाज, प्रणालीगत विफलताओं, असमानताओं या उपेक्षा के माध्यम से, अक्सर आपराधिक व्यवहार को आकार देने में भूमिका निभाता है, जिससे अपराधी भी पीड़ित बन जाता है, जिसे संरचनात्मक सहायता और वास्तविक परिवर्तन के अवसरों के माध्यम से उपचार की आवश्यकता होती है।
- न्यायालय ने स्थापित किया कि अनुच्छेद 161 में अपराधी को गलती का एहसास होने के बाद समाज में पुनः एकीकृत करने का प्रशंसनीय उद्देश्य अंतर्निहित है, जिसमें संप्रभु शक्ति का प्रयोग मंत्रिपरिषद की सलाह पर किया जाता है, जो सीमित न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अनुच्छेद 161 के अधीन सांविधानिक क्षमादान शक्ति, सांविधिक प्रावधानों से अधिक व्यापक है और और इसे अलग-अलग मामलों में अलग-अलग लागू किया जाना चाहिये, न कि सांविधिक प्रावधानों के विपरीत जो दोषियों के वर्गों को सामूहिक रूप से नियंत्रित करते हैं।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं को संविधान के अनुच्छेद 161 के अधीन क्षमादान की शक्ति का प्रयोग करने हेतु उचित याचिकाएँ दायर करने हेतु निर्णय की तिथि से आठ सप्ताह का समय दिया है। अपीलकर्त्ताओं की क्षमादान याचिकाओं पर विचार किये जाने तक, न्यायालय ने उनके दण्ड को निलंबित कर दिया है।
संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं?
भारत का संविधान, 1950
- अनुच्छेद 72 - राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति
- राष्ट्रपति क्षमा, प्रविलंबन, विराम या परिहार, निलंबन, परिहार या दण्ड का लघुकरण कर सकता है।
- अनन्य शक्तियां: सेना न्यायालय मामले, संघीय विधि अपराध, सभी मृत्युदण्ड मामलों में केवल राष्ट्रपति को अधिकार।
- राज्य विधयों के अधीन मृत्युदण्ड के मामलों में राज्यपाल की शक्ति प्रभावित नहीं होती।
- अनुच्छेद 161 - राज्यपाल की क्षमादान शक्ति
- राज्यपाल क्षमा, प्रविलंबन, विराम या परिहार, निलंबन, परिहार या दण्ड का लघुकरण कर सकता है।
- सीमित: राज्य कार्यपालिका शक्ति के अधीन अपराध।
- राज्यपाल को मृत्युदण्ड के मामलों में क्षमादान देने का अधिकार नहीं होता — यह राष्ट्रपति का विशेषाधिकार क्षेत्र है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023
- धारा 473 – दण्डादेशों का निलंबन/परिहार करने की शक्ति
- समुचित सरकार दण्ड को शर्तों के साथ/बिना शर्तों के निलंबित या परिहार कर सकती है।
- निर्णय लेने से पूर्व विचारण न्यायाधीश की राय ले सकती है।
- शर्तें: यदि पूरी नहीं की जाती हैं, तो निलंबन/छूट रद्द की जा सकती है
- याचिका के नियम: यदि याचिकाकर्त्ता वयस्क है, तो उसे जेल में होना अनिवार्य है, याचिका जेल अधिकारी के माध्यम से या जेल में दिये गए घोषणापत्र के साथ ही स्वीकार की जाएगी।
- धारा 474 – दण्डादेश लघुकरण करने की शक्ति
- समुचित सरकार बिना सम्मति के निम्न प्रकार से दंड परिवर्तित कर सकती है:
- मृत्युदण्ड → आजीवन कारावास
- आजीवन कारावास → न्यूनतम 7 वर्ष तक का कारावास
- 7 वर्ष से अधिक → न्यूनतम 3 वर्ष तक का कारावास
- 7 वर्ष से कम → जुर्माना
- कठोर कारावास → साधारण कारावास
- समुचित सरकार बिना सम्मति के निम्न प्रकार से दंड परिवर्तित कर सकती है:
मुख्य अंतर:
- राष्ट्रपति: सभी मृत्युदण्ड, सेना न्यायालय, संघीय मामले
- राज्यपाल: केवल राज्य के मामले (मृत्युदण्ड को छोड़कर)
- समुचित सरकार: अधिकारिता के आधार पर निलंबन/परिहार और परिवर्तन शक्तियां (केंद्र बनाम राज्य)
सामाजिक प्रतिबंध और लिंग आधारित दवाब महिलाओं को अपराध की ओर कैसे प्रेरित करते हैं?
- अपराध को सामाजिक मानदंडों के विरुद्ध मानसिक विद्रोह के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो प्रायः आंतरिक और बाह्य कारणों के मिश्रण से उत्पन्न होता है।
- प्रमुख कारणों में अन्य संक्रामण, परिवार और शिक्षा जैसी पर्यावरणीय परिस्थितियाँ, भौतिक अभाव और नैतिक संरचनाओं का टूटना सम्मिलित हैं।
- जब ये कारक महिलाओं पर लागू होते हैं, तो इनके परिणामस्वरूप लिंग-विशिष्ट उत्पीड़न और सामाजिक पूर्वाग्रह में वृद्धि होती है।
- बलात् विवाह को इसका प्रमुख उदाहरण बताया जाता है, जहाँ महिला की स्वायत्तता छीन ली जाती है, उसे उसकी शिक्षा और कैरियर की महत्वाकांक्षाओं से पृथक् कर दिया जाता है।
- ऐसे दबावों के कारण, महिलाएँ पलायन करने, हिंसा में शामिल होने या भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से टूटने के लिये विवश हो सकती हैं।
- अतिरिक्त बाधाएँ - जैसे कि कलंक, समर्थन की कमी, और प्रतिबंधात्मक मूल्य प्रणालियाँ - उनकी स्वतंत्रता और प्रतिरोध की धारणा को विकृत कर देती हैं।
- ये स्थितियाँ महिलाओं को यह विश्वास दिला सकती हैं कि अनुपालन ही उनका एकमात्र विकल्प है, या उन्हें विधि के विरुद्ध हताशापूर्ण, अवज्ञाकारी कार्रवाई करने के लिये प्रेरित कर सकती हैं।
सिविल कानून
संयुक्त अपीलों में उपशमन के विरुद्ध कोई संरक्षण नहीं
21-Jul-2025
सुरेश चंद्र (मृतक) थ्र. एल.आर.एस. एवं अन्य बनाम परसराम एवं अन्य "सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 41 नियम 4 के अधीन प्रदान किया गया उपचार संयुक्त अपीलों में तब उपलब्ध नहीं होता जब अपीलकर्त्ता की मृत्यु के उपरांत उसके विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित नहीं किया गया हो।" न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने स्पष्ट किया कि "सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 41 नियम 4 के अधीन कोई उपचार तब लागू नहीं होता है जब सभी प्रतिवादी संयुक्त रूप से अपील करते हैं और एक की बिना प्रतिस्थापन के मृत्यु हो जाती है।" उन्होंने एक अपील को खारिज कर दिया जिसमें अपीलकर्त्ताओं ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस निर्णय को चुनौती दी थी जिसमें उनकी द्वितीय अपील का उपशमन कर दिया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने सुरेश चंद्र (मृतक) थ्र. एल.आर.एस. एवं अन्य बनाम परसराम एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
सुरेश चंद्र बनाम परसराम (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ताओं /प्रतिवादियों ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस निर्णय को चुनौती दी जिसमें उनकी द्वितीय अपील का सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 22 नियम 3 के अनुसार उपशमन कर दिया गया था।
- अपीलकर्त्ता प्रतिवादियों में से एक के विधिक प्रतिनिधियों को समय पर प्रतिस्थापित करने में असफल रहे, जिनकी द्वितीय अपील के लंबित रहने के दौरान मृत्यु हो गई थी।
- यह मामला प्रथम अपील न्यायालय द्वारा प्रतिवादियों के विरुद्ध पारित एक 'संयुक्त एवं अविभाज्य' डिक्री से संबंधित था, जिसे द्वितीय अपील में चुनौती दी गई थी।
- अपीलकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित न करना उनके मामले के लिये घातक नहीं होगा।
- उन्होंने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 4 के अधीन संरक्षण का दावा किया, यह तर्क देते हुए कि यह उन्हें अन्य प्रतिवादियों की ओर से प्रतिस्थापन के बिना अपील करने का अधिकार देता है यदि डिक्री सामान्य आधार पर आधारित थी।
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने द्वितीय अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि मृतक पक्ष के विधिक उत्तराधिकारियों को प्रतिस्थापित न किये जाने के कारण यह अपील निरस्त हो गई थी।
- अपीलकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि चूँकि डिक्री सामान्य आधार पर आधारित थी, इसलिये जीवित अपीलकर्त्ता सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 4 के अधीन अपील जारी रख सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि "चूँकि द्वितीय अपील दोनों प्रतिवादियों द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी, इसलिये सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 4 के उपबंधों का लाभ जीवित प्रतिवादी अपीलकर्त्ता को उपलब्ध नहीं था।"
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 4 के अधीन उपचार केवल तभी उपलब्ध होगा जब एक प्रतिवादी ने अन्य प्रतिवादियों को प्रोफार्मा प्रत्यर्थी बनाते हुए अपील दायर की हो ।
- न्यायालय ने वर्तमान मामले को उन परिदृश्यों से अलग किया जहाँ कई प्रतिवादियों के बीच "एक प्रतिवादी अन्य प्रतिवादियों को प्रत्यर्थी बनाते हुए अपील दायर करता है"।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि चूँकि द्वितीय अपील दोनों प्रतिवादियों द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी, इसलिये एक पक्षकार की मृत्यु के बाद अपील जारी रखने के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 41 नियम 4 का लाभ उपलब्ध नहीं था।
- न्यायालय ने रामेश्वर प्रसाद एवं अन्य बनाम शंभेहारी लाल जगन्नाथ एवं अन्य, एआईआर 1963 एससी 1901 का उल्लेख किया और इसे महावीर प्रसाद बनाम जगे राम एवं अन्य, (1971) 1 एससीसी 265 से अलग किया।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रामेश्वर प्रसाद का मामला सुसंगत था, जहाँ सभी वादी, जिनके वाद खारिज कर दिये गए थे, ने संयुक्त रूप से अपील की थी, और विधिक उत्तराधिकारियों को प्रतिस्थापित करने में असफलता के कारण अपील समाप्त हो गई थी।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि "आदेश 22 बिना किसी अपवाद के सभी कार्यवाहियों पर लागू होता है" तथा अपील सहित कार्यवाहियों के लंबित रहने के दौरान लागू होता है।
उपशमन पर उच्चतम न्यायालय के विधिक सिद्धांत:
- न्यायालय ने आदेश 41 नियम 4 और आदेश 22 के बीच परस्पर क्रिया पर विधि का सारांश प्रस्तुत किया:
- आदेश 41 का नियम 4 उस चरण पर लागू होता है जब अपील दायर की जाती है और यह एक पक्षकार को कुछ परिस्थितियों में संपूर्ण डिक्री के विरुद्ध अपील दायर करने का अधिकार देता है।
- एक बार जब डिक्री से व्यथित सभी पक्षकारों द्वारा अपील दायर कर दी जाती है, तो आदेश 41 नियम 4 के उपबंध अनुपलब्ध हो जाते हैं ।
- आदेश 22 बिना किसी अपवाद के सभी कार्यवाहियों पर लागू होता है तथा लंबित रहने के दौरान लागू होता है, न कि संस्थित में किये जाने के समय।
- जहाँ एक या कुछ पक्षकारों द्वारा दूसरों को प्रोफार्मा प्रत्यर्थी बनाते हुए अपील दायर की जाती है, वहाँ आदेश 41 नियम 4 का लाभ प्रोफार्मा प्रत्यर्थी की मृत्यु हो जाने पर भी उपलब्ध होता है।
- आदेश 22 और आदेश 41 नियम 4 के बीच कोई असंगति नहीं है क्योंकि वे अलग-अलग चरणों में और अलग-अलग आकस्मिकताओं के लिये कार्य करते हैं।
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 41 नियम 4 क्या है?
बारे में:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 41 नियम 4 "कौन अपील कर सकता है" से संबंधित है और कुछ परिस्थितियों में किसी एक पक्षकार को दूसरों की ओर से अपील करने की अनुमति देता है।
- नियम में कहा गया है कि जहाँ एक से अधिक व्यक्ति समान हित रखते हों, वहाँ ऐसे एक या अधिक व्यक्ति न्यायालय की अनुमति से सभी के लाभ के लिये अपील कर सकते हैं।
- यह उपबंध किसी एक पक्षकार को अपील में अनुतोष प्राप्त करने में सक्षम बनाता है, जब अपील की गई डिक्री उसके और अन्य के लिये सामान्य आधार पर आती है ।
- ऐसी अपील में न्यायालय अपीलकर्त्ता के समान हित रखने वाले सभी पक्षकारों के पक्ष में डिक्री को उलट सकता है या उसमें परिवर्तन कर सकता है, भले ही उन्होंने अपील न की हो।
आदेश 41 नियम 4 के मुख्य उपबंध:
- इस नियम के अनुसार एक पक्षकार को दूसरे पक्षकार की ओर से अपील करने के लिये न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता होती है।
- अपील के विषय-वस्तु में सभी पक्षकारों का समान हित होना चाहिये।
- डिक्री समान हित रखने वाले सभी पक्षकारों के लिये समान आधार पर आगे बढ़नी चाहिये।
- समान हित वाले गैर-अपीलीय पक्षकार भी अपील के परिणाम से लाभान्वित हो सकते हैं।
- न्यायालय के पास परिस्थितियों के आधार पर ऐसी अपीलों को स्वीकार करने का विवेकाधिकार है।
आदेश 22 - पक्षकारों की मृत्यु, उनका विवाह और दिवाला:
- आदेश 22 कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान पक्षकारों की मृत्यु, उनका विवाह और दिवाला से संबंधित है।
- नियम 3 में एकमात्र वादी या एकमात्र जीवित वादी की मृत्यु पर वाद के उपशमन का उपबंध है।
- नियम 4 कई वादियों में से एक या एकमात्र प्रतिवादी की मृत्यु की दशा में प्रक्रिया से संबंधित है, जहाँ वाद करने का अधिकार बचा रहता है।
- नियम 9 में मृत्यु के कारण उपशमन का उपबंध है, जहाँ विधिक प्रतिनिधियों के पास वाद करने का अधिकार नहीं रहता।
- आदेश में उपशमन से बचने के लिये विहित परिसीमा अवधि के भीतर विधिक प्रतिनिधियों को प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता बताई गई है।
संयुक्त अपील और व्यक्तिगत अपील के बीच अंतर
पहलू |
संयुक्त अपील |
प्रोफार्मा प्रत्यर्थियों के साथ व्यक्तिगत अपील |
दायर करने की रीती |
सभी पक्षकार सह-अपीलकर्त्ता के रूप में एक साथ अपील दायर करते हैं |
एक पक्षकार अपील दायर करता है और दूसरे पक्ष को प्रोफार्मा प्रत्यर्थी बना देता है |
मृत्यु का प्रभाव |
एक अपीलकर्त्ता की मृत्यु होने पर उपशमन लागू हो जाता है, जब तक कि उसके स्थान पर विधिक प्रतिनिधि न रख दिया जाए |
प्रोफार्मा प्रत्यर्थी की मृत्यु से अपील प्रभावित नहीं होती है |
आदेश 41 नियम 4 संरक्षण |
उपलब्ध नहीं है |
उपलब्ध है |
अपील की निरंतरता |
मृत पक्षकार के विधिक उत्तराधिकारियों का प्रतिस्थापन आवश्यक है |
मृतक प्रोफार्मा प्रत्यर्थी के प्रतिस्थापन के बिना जारी रखा जा सकता है |
पक्षकारों की विधिक स्थिति |
सभी पक्षकार सक्रिय अपीलकर्त्ता हैं |
एक सक्रिय अपीलकर्त्ता, अन्य प्रोफार्मा पक्षकार हैं |