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आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35
31-Jul-2025
“भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की, 2023 की धारा 35 के अधीन नोटिस की तामील इस तरह से की जानी चाहिये जिससे इस मूल अधिकार की रक्षा हो सके, क्योंकि नोटिस का अनुपालन न करने से किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारी प्रभाव पड़ सकता है।” न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह ने निर्णय दिया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35 के अधीन समन व्हाट्सएप जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि ऐसी सेवा की स्पष्ट रूप से अनुमति नहीं है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन प्रत्याभूत दैहिक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने सतिंदर कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
सतिंदर कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- वर्तमान मामला हरियाणा राज्य द्वारा दायर एक आवेदन से उत्पन्न हुआ है जिसमें 21 जनवरी 2025 के उच्चतम न्यायालय के आदेश में संशोधन की मांग की गई थी। मूल आदेश में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 41-क और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 35 के अधीन नोटिस की तामील के संबंध में अपने पुलिस तंत्र को स्थायी आदेश जारी करने का निदेश दिया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने पहले यह आदेश दिया था कि उपर्युक्त उपबंधों के अधीन नोटिस केवल दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के अधीन मान्यता प्राप्त तामील में विहित रीति से ही दिये जा सकते हैं। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना था कि व्हाट्सएप या अन्य इलेक्ट्रॉनिक संसूचना प्लेटफार्मों के माध्यम से तामील को सांविधिक रूप से विहित तामील के विकल्प के रूप में नहीं माना जा सकता है।
- मूल आदेश में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दो ऐतिहासिक मामलों: राकेश कुमार बनाम विजयंत आर्य (DCP) एवं अन्य (2021) और अमनदीप सिंह जौहर बनाम राज्य (NCT Delhi) (2018) में निर्धारित दिशानिर्देशों का कठोरता से पालन करने की आवश्यकता थी। इन दिशानिर्देशों को बाद में उच्चतम न्यायालय ने सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. एवं अन्य (2022) 10 एस.सी.सी. 51 में बरकरार रखा था।
- हरियाणा राज्य ने उच्चतम न्यायालय में यह तर्क देते हुए याचिका दायर की, कि इलेक्ट्रॉनिक तामील पर प्रतिबंध अव्यावहारिक और संसाधन-गहन है। उन्होंने तर्क दिया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 35 के अधीन नोटिस केवल सूचनात्मक हैं, जो व्यक्तियों को बिना किसी तत्काल गिरफ्तारी के अन्वेषण में शामिल होने का निदेश देते हैं। राज्य ने इस बात पर बल दिया कि इलेक्ट्रॉनिक तामील से तामील से बचने की प्रवृत्ति प्र अंकुश लगेगा और राज्य के बहुमूल्य संसाधनों का संरक्षण होगा।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023, जिसने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 का स्थान लिया, ने इलेक्ट्रॉनिक संसूचना को मान्यता देने वाले कई प्रावधान पेश किये। धारा 64(2) न्यायालय की मुद्रा लगी समन को इलेक्ट्रॉनिक तामील की अनुमति देती है, जबकि धारा 71 साक्षियों के समन की इलेक्ट्रॉनिक तामील की अनुमति देती है। धारा 530 विचारणों, जांच और कार्यवाहियों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से संचालित करने का अधिकार देती है।
- न्यायालय के समक्ष मूल विवाद्यक यह था कि क्या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के कुछ प्रावधानों में इलेक्ट्रॉनिक संसूचना की विधायी मान्यता को धारा 35 के अधीन अन्वेषण अभिकरणों द्वारा जारी किये गए नोटिसों तक बढ़ाया जा सकता है, विशेष रूप से अनुपालन न करने के संभावित परिणामों को देखते हुए, जिसमें गिरफ्तारी और स्वतंत्रता से वंचित करना सम्मिलित है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- विधानमंडल ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 को अधिनियमित करते हुए धारा 530 के अधीन वर्णित इलेक्ट्रॉनिक संसूचना के माध्यम से अनुमेय प्रक्रियाओं के दायरे से धारा 35 के अधीन नोटिस की तामील को जानबूझकर अपवर्जित किया है, और यह जानबूझकर किये गए लोप विधायी आशय का स्पष्ट प्रकटीकरण है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 35 के अधीन नोटिस की तामील इस तरह से की जानी चाहिये कि स्वतंत्रता के मूल अधिकार की रक्षा हो, क्योंकि नोटिस का अनुपालन न करने से धारा 35(6) के अधीन किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारी प्रभाव पड़ सकता है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 63 या 71 के अधीन न्यायालय द्वारा जारी किया गया समन एक न्यायिक कार्य माना जाता है, जबकि धारा 35 के अधीन अन्वेषण अभिकरण द्वारा जारी किया गया नोटिस एक कार्यकारी कार्य माना जाता है, और इसलिये न्यायिक कार्य के लिये विहित प्रक्रिया को कार्यकारी कार्य के लिये विहित प्रक्रिया में नहीं पढ़ा जा सकता है।
- विधानमंडल ने विशेष रूप से उन परिस्थितियों को निर्दिष्ट किया है जिनमें इलेक्ट्रॉनिक संसूचना के साधनों का उपयोग अनुमन्य है, ये ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनका किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाव नहीं पड़ता है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन प्रत्याभूत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा होती है।
- जबकि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 अन्वेषण आभिकरण द्वारा इलेक्ट्रॉनिक संसूचना के उपयोग को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं करता है, ऐसे उपयोग को केवल धारा 94(1) और 193(3) के अधीन उपबंधित किया गया है, और इनमें से किसी भी प्रक्रिया का किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
- संविधान के अनुच्छेद 21 का सार भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 में समाहित है, जो अपराधों का अन्वेषण और न्यायनिर्णयन को सुगम बनाते हुए व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के प्रशंसनीय उद्देश्य को दर्शाता है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 35 में ऐसी प्रक्रिया को शामिल करना, जिसके लिये विधानमंडल द्वारा विशेष रूप से प्रावधान नहीं किया गया है, विधायी आशय का उल्लंघन होगा और सांविधिक योजना की उद्देश्यपूर्ण निर्वचन के विपरीत होगा।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35 क्या है?
बारे में:
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 35 वह उपबंध है, जो पुलिस अधिकारियों को संज्ञेय अपराधों से संबंधित विशिष्ट परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट से वारण्ट प्राप्त किये बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देता है।
बिना वारण्ट के गिरफ्तारी के आधार:
तत्काल गिरफ्तारी की स्थिति:
- जब कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में संज्ञेय अपराध करता है।
- जब यह विश्वसनीय सूचना प्राप्त होती है कि किसी व्यक्ति ने ऐसा संज्ञेय अपराध किया है जो सात वर्ष से अधिक के कारावास से, चाहे जुर्माने के साथ अथवा बिना जुर्माने के, या मृत्युदण्ड से दण्डनीय है।
- जब किसी व्यक्ति को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन या राज्य सरकार के आदेश द्वारा अपराधी उद्घोषित किया गया हो।
- जब किसी के पास चोरी की संपत्ति पाई जाती है और उस पर उससे संबंधित अपराध करने का उचित संदेह होता है।
- जब कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी के कर्त्तव्य पालन में बाधा डालता है या विधिपूर्ण अभिरक्षा से निकल भागा है या भागने का प्रयत्न करता है।
- जब पर संघ के सशस्त्र बलों में से किसी से अभित्याजक होने का उचित संदेह हो।
- जब कोई व्यक्ति भारत के बाहर किये गए किसी ऐसे कार्य में सम्मिलित होता है जो भारत में किये जाने पर अपराध के रूप में दण्डनीय होता।
- जब छोड़ा गया सिद्धदोष होते हुए भी धारा 394(5) के अधीन बनाए गए किसी नियम को भंग करता है।
- जब किसी अन्य पुलिस अधिकारी से गिरफ्तारी हेतु अनुरोध प्राप्त होता है।
सात वर्ष तक के अपराधों के लिये सशर्त गिरफ्तारी:
- सात वर्ष से कम या अधिकतम सात वर्ष के कारावास से दण्डनीय संज्ञेय अपराधों के लिये गिरफ्तारी की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब विशिष्ट शर्तें पूरी हों:
- पुलिस अधिकारी के पास उचित परिवाद, विश्वसनीय सूचना या उचित संदेह के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि व्यक्ति ने अपराध किया है।
- पुलिस अधिकारी इस बात से संतुष्ट है कि आगे अपराध रोकने, उचित अन्वेषण करने, साक्ष्यों से छेड़छाड़ रोकने, साक्षियों को प्रलोभन या धमकी देने से रोकने, या न्यायालय में उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये गिरफ्तारी आवश्यक है।
- पुलिस अधिकारी को गिरफ्तारी करते समय लिखित में कारण अभिलिखित करना होगा।
- नोटिस प्रक्रिया (गिरफ्तारी का विकल्प):
- जब उपरोक्त उपबंधों के अधीन गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं होती है, तो पुलिस अधिकारी को व्यक्ति को उसके समक्ष या निर्दिष्ट स्थान पर उपस्थित होने का निदेश देते हुए नोटिस जारी करना चाहिये।
- व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह नोटिस की शर्तों का पालन करे, और जब तक वह इसका पालन करता है, तब तक उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, जब तक कि पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी की आवश्यकता के लिये विशिष्ट कारण अभिलिखित न कर दे।
- परिणाम और सुरक्षात्मक उपाय:
- यदि कोई व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करने में असफल रहता है या अपनी पहचान बताने को तैयार नहीं है, तो पुलिस अधिकारी सक्षम न्यायालय द्वारा पारित किसी भी आदेश के अधीन, नोटिस में उल्लिखित अपराध के लिये उसे गिरफ्तार कर सकता है।
- तीन वर्ष से कम कारावास से दण्डनीय अपराधों के लिये, अशक्त व्यक्तियों या साठ वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों को गिरफ्तार करने से पहले पुलिस उपाधीक्षक (DSP) के पद से नीचे के अधिकारी की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
- इस उपबंध में एक अनिवार्य सुरक्षात्मक उपाय शामिल है जिसके अधीन पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी न होने पर लिखित में कारण अभिलिखित करने की आवश्यकता होती है, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित होती है और मनमाने ढंग से गिरफ्तारी को रोका जा सकता है, साथ ही विधि प्रवर्तन आवश्यकताओं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के बीच संतुलन भी बनाया जा सकता है।
सांविधानिक विधि
सड़क सुरक्षा का अधिकार
31-Jul-2025
उमरी पूफ प्रतापपुर (Upp) टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड बनाम एम.पी. रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन और अन्य “राज्य अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के अधीन सुरक्षित, वाहन योग्य सड़कें सुनिश्चित करने के लिये कर्तव्यबद्ध है और वह इस उत्तरदायित्त्व को निजी ठेकेदारों पर नहीं छोड़ सकता।” न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने निर्णय दिया कि सुरक्षित, सुव्यवस्थित और वाहन योग्य सड़कों का अधिकार अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार का एक अनिवार्य पहलू है, और राज्य सड़क विकास और रखरखाव का काम निजी संस्थाओं को सौंपकर अपने उत्तरदायित्त्व से बच नहीं सकता।
- उच्चतम न्यायालय ने उमरी पूफ प्रतापपुर (Upp) टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड बनाम एम.पी. रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
उमरी पूफ प्रतापपुर (Upp) टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड बनाम एम.पी. रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 2012 में, उमरी पूफ प्रतापपुर टोलवेज प्राइवेट लिमिटेड (एक निजी कंपनी) ने उमरी-पूफ-प्रतापपुर रोड के विकास के लिये राज्य के स्वामित्व वाली संस्था, मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम (MPRDC) के साथ एक रियायत करार किया।
- परियोजना को टोल संग्रह और वार्षिकी संदाय दोनों के साथ निर्माण, संचालन और अंतरण (Build, Operate and Transfer (BOT)) व्यवस्था के रूप में संरचित किया गया था, जिसका आरंभिक मूल्य 73.68 करोड़ रुपए था।
- निजी कंपनी ने बैंक गारंटी के माध्यम से 3.68 करोड़ रुपए की निष्पादन प्रत्याभूति प्रदान की तथा नियत तिथि 20 जून, 2012 के बाद काम शुरू कर दिया ।
- यद्यपि, जटिलताएँ तब उत्पन्न हुईं जब एक नए स्वतंत्र इंजीनियर की नियुक्ति की गई, जिसने पहले से स्वीकृत डिजाइनों और रेखाचित्रों को अस्वीकार कर दिया, जिससे कंपनी को काम के बड़े हिस्से को तोड़कर पुनः निष्पादित करने के लिये मजबूर होना पड़ा।
- राज्य निगम की कार्रवाई के कारण कथित रूप से हुए इन परिवर्तनों और विलंब के कारण परियोजना की लागत बढ़कर 99.80 करोड़ रुपए हो गई।
- निजी कंपनी ने स्वतंत्र इंजीनियर के समक्ष कुल 280.15 करोड़ रुपए के 19 दावे प्रस्तुत किये, जिनमें अतिरिक्त कार्य, विलंब, टोल राजस्व की हानि, निष्क्रियता शुल्क और भविष्य के व्यावसायिक अवसरों की हानि सहित विभिन्न मुद्दों के लिये प्रतिकर की मांग की गई ।
- जब अधिकांश दावे खारिज कर दिये गए, तो निजी कंपनी ने शुरू में मध्य प्रदेश माध्यस्थम् अधिकरण (राज्य विधि के अधीन स्थापित) के समक्ष संदर्भ मामला संख्या 61/2018 दायर किया।
- जब यह मामला अभी भी लंबित था, कंपनी ने अपनी संविदा में माध्यस्थम् खण्ड को लागू किया और राष्ट्रीय माध्यस्थम् अधिनियम के अधीन नई दिल्ली में वैकल्पिक विवाद समाधान के लिये अंतर्राष्ट्रीय केंद्र (ICADR) से संपर्क किया।
- मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम (MPRDC) ने इस समानांतर माध्यस्थम् पर आपत्ति जताते हुए तर्क दिया कि मध्य प्रदेश के विशेष राज्य विधि (1983 अधिनियम) के अधीन, राज्य संस्थाओं के साथ कार्य संविदाओं से उत्पन्न होने वाले सभी विवादों का निर्णय विशेष रूप से राज्य माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा किया जाना चाहिये, चाहे संविदा में किसी भी माध्यस्थम् खण्ड का उल्लेख हो।
- उन्होंने निजी माध्यस्थम् कार्यवाही रोकने के लिये उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
- इसके बाद निजी कंपनी ने राज्य अधिकरण से अपना मामला वापस ले लिया और निजी माध्यस्थम् जारी रखा।
- उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम (MPRDC) का पक्ष लिया और निजी माध्यस्थम् कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में अपील की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सड़क विकास और रखरखाव मूल रूप से राज्य का उत्तरदायित्त्व है, और कहा कि "सुरक्षित, अच्छी तरह से रखरखाव वाली और वाहन योग्य सड़कों के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता दी गई है, यह राज्य का उत्तरदायित्त्व है कि वह अपने नियंत्रण में सीधे सड़कों का विकास और रखरखाव करे।"
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब निजी संस्थाएँ लोक कार्य करती हैं तो उनके विरुद्ध रिट याचिकाएँ कायम रखी जा सकती हैं। न्यायालय ने कहा: "राज्य राजमार्ग/जिला सड़क बिछाने का ठेका, जब सरकार के स्वामित्व और संचालन वाले निगम द्वारा सौंपा जाता है, तो वह एक लोक कार्य का स्वरूप ग्रहण कर लेता है - भले ही वह किसी निजी पार्टी द्वारा किया गया हो - और रिट याचिका कायम रखने के लिये कार्यात्मकता परीक्षण को पूरा करेगा।"
- न्यायालय ने पुनः पुष्टि की, कि कार्य संविदाओं के लिये विशेष अधिकरण बनाने वाला राज्य विधान सामान्य माध्यस्थम् विधियों पर वरीयता प्राप्त करता है, और कहा: "1983 का अधिनियम, एक विशेष विधि होने के कारण, एक अधिभावी प्रभाव रखता है और यह आदेश देता है कि ऐसे कार्य संवादों से उत्पन्न विवादों का निर्णय विशेष रूप से मध्य प्रदेश माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा किया जाना चाहिये।"
- न्यायालय ने समानांतर उपचार अपनाने की प्रथा की निंदा करते हुए कहा कि, "अपीलकर्त्ता द्वारा मध्य प्रदेश माध्यस्थम् अधिकरण के समक्ष संदर्भ याचिका वापस लेने, दावों को पुनः उठाने की स्वतंत्रता की मांग किये बिना, तथा साथ ही 1996 के अधिनियम के अधीन कार्यवाही शुरू करने का आचरण फोरम शॉपिंग के समान है।
- यह आचरण, जिसका उद्देश्य सांविधिक तंत्र को दरकिनार करना तथा परित्यक्त दावों को पुनर्जीवित करना है, दुर्भावना से भरा हुआ है।"
- न्यायालय ने कहा कि निजी करार सांविधिक आवश्यकताओं को दरकिनार नहीं कर सकते, और कहा: "पक्षकार लोक हित को आगे बढ़ाने के लिये बनाए गए सांविधिक दायित्त्व से बाहर संविदा नहीं कर सकते" और "रियायती करार का खण्ड 44.3.1, जहाँ तक यह निजी माध्यस्थम् की अनुमति देने का दावा करता है, निष्क्रिय है, क्योंकि यह 1983 के अधिनियम के सांविधिक अधिदेश को दरकिनार करने का प्रयास करता है।"
- न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता के दावे समय-सीमा पार कर चुके हैं, और कहा: "अपीलकर्त्ता के दावे - जो 2013-2015 की घटनाओं से उत्पन्न हुए हैं - 1996 के अधिनियम की धारा 43 के साथ परिसीमा अधिनियम, 1963 के अंतर्गत परिसीमा द्वारा भी वर्जित हैं। 2022 में माध्यस्थम् का विलम्बित आह्वान, और 2025 में इसकी निरंतरता, इस प्रकार स्पष्ट रूप से समय-सीमा पार कर चुकी है और विधिक रूप से अस्थिर है।"
अनुच्छेद 21 का दायरा क्या है?
- अनुच्छेद 21 में उपबंध है कि "किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा,अन्यथा नहीं" तथा भारतीय क्षेत्र के भीतर नागरिकों और विदेशियों दोनों सहित प्रत्येक व्यक्ति के लिये मौलिक सुरक्षा स्थापित की गई है।
- यह उपबंध दो परस्पर जुड़े अधिकारों - जीवन का अधिकार और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार - को समाहित करता है, जिसे उच्चतम न्यायालय ने भारत के सांविधानिक ढाँचे में "मौलिक अधिकारों का हृदय" बताया है।
- राज्य का दायित्त्व और बाध्यता अनुच्छेद 21 सरकारी विभागों, स्थानीय निकायों और विधायिकाओं सहित सभी राज्य संस्थाओं पर एक बाध्यकारी बाध्यता के रूप में कार्य करता है, जिससे उन्हें किसी भी व्यक्ति को प्राण या स्वतंत्रता से वंचित करने से पहले स्थापित विधिक प्रक्रियाओं का पालन करने की आवश्यकता होती है।
- जीवन के अधिकार की विस्तारित व्याख्या में उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया है कि जीवन का अधिकार केवल जीवित रहने से आगे बढ़कर "गरिमा और अर्थपूर्ण जीवन जीने में सक्षम होना" को भी सम्मिलित करता है, जिसमें जीवन की गुणवत्ता और मानव गरिमा के पहलू शामिल हैं।
- प्रक्रियात्मक निष्पक्षता मानक मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978) के बाद, न्यायालय ने आदेश दिया कि "किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये विधि के अधीन कोई भी प्रक्रिया अयुक्तियुक्त, अनुचित या मनमानी नहीं होनी चाहिये," और इस प्रकार उचित प्रक्रिया की मूलभूत आवश्यकताओं को स्थापित किया।
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत व्युत्पन्न अधिकार इस प्रावधान को न्यायिक रूप से विस्तारित किया गया है, जिसमें कई विशिष्ट अधिकार सम्मिलित हैं, जैसे निजता का अधिकार, आश्रय, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रदूषण मुक्त पर्यावरण, सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण और अभिरक्षा में हिंसा से सुरक्षा।
- सांविधानिक एकीकरण अनुच्छेद 21 अनुच्छेद 19 की स्वतंत्रताओं के साथ प्रतिच्छेद करता है, जिससे "अतिरिक्त सुरक्षा" प्रदान की जा सके, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता विशिष्ट सांविधानिक स्वतंत्रताओं के साथ अधिव्यापत (overlaps) होती है, जिससे व्यक्तिगत अधिकार संरक्षण के लिये एक व्यापक ढाँचा तैयार होता है।
उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 21 के अधीन सड़क सुरक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में कैसे व्याख्यायित करता है?
- सड़क सुरक्षा अधिकारों के लिये सांविधानिक आधार :
- उच्चतम न्यायालय ने यह स्थापित किया कि संविधान का अनुच्छेद 21 सुरक्षित और सुव्यवस्थित सड़कों के अधिकार को समाहित करता है, तथा कहा: "सुरक्षित, सुव्यवस्थित और वाहन योग्य सड़कों के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता दी गई है।"
- आवागमन की स्वतंत्रता के साथ संबंध:
- न्यायालय ने सड़क अवसंरचना अधिकारों को मौलिक स्वतंत्रताओं से जोड़ते हुए कहा: "चूँकि देश के किसी भी हिस्से तक पहुँचने का अधिकार, कुछ परिस्थितियों में कुछ अपवादों और प्रतिबंधों के साथ, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(छ) के अधीन प्रत्याभूत एक मौलिक अधिकार है, और सुरक्षित, सुव्यवस्थित और वाहन योग्य सड़कों के अधिकार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में मान्यता दी गई है।"
- राज्य का सांविधानिक दायित्त्व:
- अनुच्छेद 21 के अधिदेश का हवाला देते हुए, न्यायालय ने राज्य के कर्त्तव्य पर बल दिया: "राज्य का उत्तरदायित्त्व है कि वह अपने नियंत्रण में आने वाली सड़कों का विकास और रखरखाव करे" क्योंकि यह अनुच्छेद 21 के अधीन प्रत्याभूत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता की व्यापक सुरक्षा के अंतर्गत आता है।
- अनुच्छेद 21 के अधीन लोक कार्य का स्वरूप:
- न्यायालय ने माना कि सड़क निर्माण कार्य राज्य के लिये किये जाने पर सांविधानिक महत्त्व रखता है, तथा टिप्पणी की: "राज्य राजमार्ग/जिला सड़क बिछाने का ठेका, जब सरकार के स्वामित्व और संचालन वाले निगम द्वारा सौंपा जाता है, तो यह एक लोक कार्य का स्वरूप ग्रहण कर लेता है - भले ही इसे किसी निजी पार्टी द्वारा किया जाए" और इस प्रकार इसे अनुच्छेद 21 के सांविधानिक ढाँचे के अंतर्गत लाया गया।
- जीवन के अधिकार की व्यापक व्याख्या:
- यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के स्थापित न्यायशास्त्र को प्रतिबिंबित करता है कि अनुच्छेद 21 के "जीवन के अधिकार" में केवल जीवित रहने से आगे बढ़कर जीवन की गुणवत्ता के पहलू भी शामिल हैं, जिसमें सुरक्षित और सुलभ सड़क अवसंरचना को गरिमापूर्ण जीवन के आवश्यक घटक और जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है।
पारिवारिक कानून
कुष्ठ रोग का समावेशन
31-Jul-2025
फेडरेशन ऑफ लेप्रोसी ऑर्गनाइजेशन (FOLO) और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य “उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ और राज्यों/संघ शासित प्रदेशों से आग्रह किया कि वे कुष्ठ रोग से प्रभावित या ठीक हो चुके व्यक्तियों को लक्षित करने वाली भेदभावपूर्ण विधियों के विरुद्ध तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई करें।” न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जॉयमाल्या बागची |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
फेडरेशन ऑफ लेप्रोसी ऑर्गनाइजेशन (FOLO) और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने भारत संघ और राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों से आग्रह किया कि वे कुष्ठ रोग से प्रभावित या ठीक हो चुके व्यक्तियों को लक्षित करने वाली भेदभावपूर्ण विधियों के विरुद्ध तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई करें।
फेडरेशन ऑफ लेप्रोसी ऑर्गेनाइजेशन (FOLO) और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह याचिका फेडरेशन ऑफ लेप्रोसी ऑर्गेनाइजेशन (FOLO) द्वारा 2010 में एक जनहित याचिका के रूप में दायर की गई थी।
- प्रारंभ में, कुष्ठ रोग को एक भयानक, लाइलाज, अत्यधिक संक्रामक एवं संक्रमणकारी रोग माना जाता था।
- भारतीय कुष्ठ रोगी अधिनियम, 1898 को कुष्ठ रोगियों को समाज से अलग करने के लिये अधिनियमित किया गया था, जिसमें बिना वारण्ट के गिरफ्तारी, कुष्ठ रोगियों के आश्रय गृहों में नजरबंद करना, तथा संपत्ति और मतदान के अधिकार पर प्रतिबंध जैसे कठोर प्रावधान शामिल थे।
- 1979 में, किसी भी अवस्था में कुष्ठ रोग के पूर्ण उपचार के रूप में मल्टी-ड्रग थेरेपी (MDT) विकसित की गई थी।
- 1981 के पश्चात् भारत में कुष्ठ रोग को पूरी तरह से ठीक करने के लिये मल्टी-ड्रग थेरेपी (MDT) का व्यापक रूप से उपयोग किया जाने लगा।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुष्ठ रोग को पूर्णतः उपचार योग्य तथा संक्रामक नहीं घोषित किया, जिसके परिणामस्वरूप 1898 के अधिनियम को निरस्त कर दिया गया।
- वर्ष 2004 में याचिकाकर्त्ता ने राज्य सरकारों को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि उनकी विधियों, आदेशों आदि से कुष्ठ रोग से प्रभावित या ठीक हो चुके व्यक्तियों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण प्रावधानों को हटाया जाए, किंतु वे अब भी मौजूद हैं।
- याचिकाकर्त्ता ने बताया कि 2019 में 4 केंद्रीय अधिनियमों में संशोधन किया गया, लेकिन 100 से अधिक केंद्रीय विधियों में अभी भी भेदभावपूर्ण प्रावधान विद्यमान हैं।
- राज्यों में कुष्ठ रोग से प्रभावित व्यक्तियों के प्रति भेदभावपूर्ण प्रावधानों वाले 145 विधान पाए गए।
- 2019 में, केंद्र सरकार ने विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में कुष्ठ रोग को हटाने के लिये पर्सनल लॉ (संशोधन) अधिनियम 2019 को अधिसूचित किया, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 सहित पाँच अधिनियमों में संशोधन किया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- पीठ ने कुष्ठ रोग को तलाक का आधार बनाने की शर्मनाक प्रकृति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा, "सबसे गंभीर बात... हम इस शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहते, किंतु यह कितना शर्मनाक है... आपने विवाह-विच्छेद का आधार बना दिया है।"
- न्यायालय ने राज्यों को सलाह दी कि उन्हें अपनी विधियों में आवश्यक परिवर्तन करने के लिये विशेष विधानसभा सत्रों की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है और कहा कि कुछ राज्यों ने समितियों के गठन के संबंध में अनुपालन शपथपत्र दायर किये हैं, जबकि अन्य ने अनुपालन नहीं किया है।
- न्यायालय ने अनुपालन न करने वाले राज्यों को न्यायालय के पूर्व निदेश का अनुपालन करने के लिये 2 सप्ताह का अतिरिक्त समय दिया तथा राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों को आदेश दिया कि वे अपनी-अपनी समितियों की सिफारिशों के अनुसरण में की गई अनुवर्ती कार्रवाई पर स्थिति रिपोर्ट दाखिल करें।
- निदेश दिया गया कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के सचिव राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) अध्यक्ष से अनुमोदन प्राप्त करने के बाद न्यायालय को विवरण प्रस्तुत करेंगे, यह देखते हुए कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने स्वतंत्र रूप से इस मुद्दे की जांच की है।
- न्यायालय ने कुष्ठ रोग से प्रभावित या ठीक हो चुके व्यक्तियों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण प्रावधानों को समाप्त करने के सांविधानिक दायित्त्व पर बल दिया।
कुष्ठ रोग क्या है?
बारे में:
- कुष्ठ रोग को शुरू में एक भयावह रोग माना जाता था क्योंकि यह लाइलाज, अत्यधिक संक्रामक और संक्रमणकारी था।
- ऐतिहासिक रूप से, कुष्ठ रोग को अत्यधिक कलंकित माना जाता था, तथा इससे प्रभावित लोगों को अक्सर सामाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था।
- 1979 में, मल्टी-ड्रग थैरेपी (Multi-Drug Therapy - MDT) का विकास हुआ, जो कुष्ठ रोग को किसी भी अवस्था में पूर्णतः ठीक करने में सक्षम है।
- 1981 के बाद भारत में कुष्ठ रोग के पूर्ण उपचार के लिये मल्टी-ड्रग थैरेपी का व्यापक रूप से उपयोग किया जाने लगा।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुष्ठ रोग को पूर्णतः उपचार योग्य घोषित किया है तथा कहा है कि यह बिल्कुल भी संक्रामक नहीं है।
- चिकित्सा विज्ञान में प्रगति के साथ, कुष्ठ रोग अब उपचार योग्य है, तथा इस रोग से होने वाली स्थायी विकलांगता के मामलों में काफी कमी आई है।
हिंदू विधि के अधीन कुष्ठ रोग विवाह विच्छेद का आधार:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधीन, कुष्ठ रोग को मूल रूप से धारा 13(1)(iv) में तलाक के आधार के रूप में मान्यता दी गई थी।
- इस धारा के अनुसार, यदि पति-पत्नी "किसी अव्यवहित उग्र और असाध्य कुष्ठ रोग" से पीड़ित हों तो वे तलाक के लिये आवेदन कर सकते हैं ।
- यह उपबंध इस विश्वास से उपजा है कि कुष्ठ रोग, एक दीर्घकालिक और संक्रामक रोग है, जो अप्रभावित पति/पत्नी और परिवार के लिये स्वास्थ्य जोखिम उत्पन्न कर सकते है।
- इस विधि का उद्देश्य स्वस्थ पति/पत्नी को विधिक रूप से पृथक् होने का विकल्प देकर चिंताओं का समाधान करना था।
- केवल ऐसे मामले जिनमें कुष्ठ रोग को " अव्यवहित उग्र " (अत्यधिक संक्रामक) और "असाध्य" माना जाता था, तलाक के लिये आधार माने जाते थे।
- कुष्ठ रोग का उल्लेख तलाक की याचिकाओं के साथ-साथ न्यायिक पृथक्करण की याचिकाओं में भी किया जा सकता है, जहाँ पति-पत्नी विवाह को समाप्त किये बिना पृथक् रहते हैं।
- यह उपबंध उस समय कुष्ठ रोग से जुड़े सामाजिक कलंक और भय को दर्शाता था, क्योंकि भारतीय समाज में इस रोग को अक्सर गलत समझा जाता था और इसे बहुत कलंकित माना जाता था।
तलाक के लिये कुष्ठ रोग को आधार से हटाना:
- कुष्ठ रोग को उपचार योग्य बनाने वाले चिकित्सा परिवर्तनों को मान्यता देते हुए, भारतीय संसद ने 2019 में पर्सनल लॉ (संशोधन) अधिनियम पारित किया।
- इस संशोधन ने कुष्ठ रोग को तलाक के वैध आधार के रूप में हटा दिया।
- यह संशोधन समानता और गैर-भेदभाव के सिद्धांतों के अनुरूप है।
- इसने स्वीकार किया कि पूर्व विधि ने कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्तियों के प्रति सामाजिक कलंक को और मजबूत किया, जबकि यह एक उपचार योग्य रोग है।
पर्सनल लॉ (संशोधन) अधिनियम, 2019
भारतीय संसद द्वारा पर्सनल लॉ (संशोधन) अधिनियम, 2019 को विभिन्न व्यक्तिगत विधियों से कुष्ठ रोग को तलाक के आधार के रूप में हटाने के लिये अधिनियमित किया गया था। यह कुष्ठ रोग को एक उपचार योग्य और गैर-संक्रामक रोग के रूप में समझने की बदलती समझ को दर्शाता है, बशर्ते इसका उचित प्रबंधन किया जाए।
- संशोधित अधिनियम : 2019 अधिनियम ने निम्नलिखित में तलाक के आधार के रूप में कुष्ठ रोग को हटा दिया:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955
- मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939
- विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 (ईसाइयों के लिये)
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954
- हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956
- संशोधन का उद्देश्य : संशोधन का उद्देश्य कुष्ठ रोग से प्रभावित लोगों के लिये गरिमा, समता और समावेशन को बढ़ावा देना है।