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आपराधिक कानून
498-क की प्रथम सूचना रिपोर्ट में दो महीने में कोई गिरफ्तारी नहीं
25-Sep-2025
शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल “भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के दुरुपयोग के संबंध में सुरक्षा उपायों के लिये कुटुंब कल्याण समितियों के गठन के संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2022 के दाण्डिक पुनरीक्षण संख्या 1126 में दिनांक 13.06.2022 के विवादित निर्णय में पैरा 32 से 38 के अनुसार तैयार किये गए दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे और उपयुक्त अधिकारियों द्वारा कार्यान्वित किये जाएंगे।” भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह ने वैवाहिक विवादों में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-क के दुरुपयोग को रोकने के लिये कुटुंब कल्याण समितियों (FWC) के गठन हेतु इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2022 के दिशानिर्देशों को बरकरार रखा। न्यायालय ने निदेश दिया कि ये सुरक्षा उपाय लागू रहेंगे और प्राधिकारियों द्वारा इनका पालन किया जाना चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- शिवांगी बंसल और साहिब बंसल का विवाह 5 दिसंबर 2015 को उमराव फार्महाउस, दिल्ली में हुआ था और 23 दिसंबर 2016 को उनकी एक पुत्री रैना का जन्म हुआ।
- पक्षकारों और उनके परिवार के सदस्यों के बीच विवादों के कारण, दिल्ली के पीतमपुरा में विभिन्न स्थानों पर एक साथ रहने के बाद, दंपति 4 अक्टूबर, 2018 को पृथक् हो गए।
- पत्नी ने पति और उसके परिवार के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क (क्रूरता), 307 (हत्या का प्रयत्न), 376 (बलात्संग), 323, 504, 506, 120-ख, 377, 313, 342 और दहेज प्रतिषेध अधिनियम के साथ-साथ घरेलू हिंसा के मामले और भरण-पोषण याचिकाओं के अधीन गंभीर आपराधिक मामले दर्ज कराए।
- पति ने पत्नी के परिवार के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 365 (व्यपहरण), 323, 341, 506, 354, 385, 509 के अधीन आपराधिक मामले दर्ज कराए तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 500 और 501 के अधीन मानहानि के परिवाद के साथ-साथ तलाक और संरक्षकता याचिकाएँ भी दायर कीं।
- पत्नी के दाण्डिक मामलों के परिणामस्वरूप, पति को 109 दिन और उसके पिता को 103 दिन की जेल हुई, जिससे पूरे परिवार को शारीरिक और मानसिक आघात पहुँचा।
- दिल्ली और उत्तर प्रदेश के विभिन्न न्यायालयों में कई कार्यवाहियाँ लंबित रहीं, जिससे पक्षकारों के बीच लंबी विधिक लड़ाई चली।
- अंततः दोनों पक्षकारों ने सभी विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने तथा भविष्य में मुकदमेबाजी से बचने और शांति बनाए रखने के लिये लंबित मुकदमों का निपटारा करने की इच्छा व्यक्त की।
- यह मामला स्थानांतरण याचिकाओं और विशेष अनुमति याचिकाओं के माध्यम से उच्चतम न्यायालय पहुँचा, जहाँ न्यायालय ने पूर्ण न्याय प्रदान करने और सभी आपराधिक मामलों को रद्द करते हुए विवाह को भंग करने के लिये अनुच्छेद 142 का प्रयोग किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- धारा 498-क के दुरुपयोग पर चिंता: न्यायालय ने यह गंभीर चिंता व्यक्त की कि वैवाहिक विवादों में वादकारियों द्वारा पति एवं उसके समस्त पारिवारिक सदस्यों को व्यापक एवं सर्वग्राही आरोपों के आधार पर संलिप्त करने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है। न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क (क्रूरता संबंधी अपराध) के दुरुपयोग की प्रवृत्ति एक आवर्तक समस्या बन चुकी है, जिसके परिणामस्वरूप निर्दोष पारिवारिक सदस्यों को अपूरणीय क्षति पहुँच रही है।
- अपूरणीय क्षति का आकलन: न्यायालय ने पाया कि पत्नी द्वारा दायर गंभीर आपराधिक मामलों के कारण पति को 109 दिन और उसके पिता को 103 दिन जेल में रहना पड़ा, तथा यह भी कहा कि पति के परिवार को जो शारीरिक और मानसिक आघात सहना पड़ा, उसकी भरपाई या क्षतिपूर्ति किसी भी तरह से नहीं की जा सकती।
- कुटुंब कल्याण समिति का पृष्ठांकन: न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के दुरुपयोग को रोकने के लिये कुटुंब कल्याण समिति की स्थापना के संबंध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सुरक्षा उपायों का अनुमोदन किया तथा निदेश दिया कि ये दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे तथा उचित प्राधिकारियों द्वारा कार्यान्वित किये जाएंगे।
- पूर्ण न्याय के लिये अनुच्छेद 142 का आह्वान: न्यायालय ने पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 142 का आह्वान किया, जिसमें दोनों पक्षकारों के विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने की इच्छा को ध्यान में रखा गया, तथा दोनों पक्षकारों द्वारा दायर सभी लंबित आपराधिक और सिविल मुकदमों को रद्द करते हुए विवाह विच्छेद का आदेश दिया।
- संरक्षण और रोकथाम के उपाय: न्यायालय ने पति और उसके परिवार के लिये पुलिस सुरक्षा का निदेश दिया, आदेश दिया कि पत्नी कभी भी उनके विरुद्ध IPS अधिकारी के रूप में अपने पद का उपयोग नहीं करेगी, और दोनों पक्षकारों को इन वैवाहिक विवादों से उत्पन्न भविष्य में मुकदमा दायर करने से प्रतिबंधित कर दिया।
- बाल कल्याण प्राथमिकता: न्यायालय ने दोनों पक्षकारों द्वारा अवयस्क बच्चे के कल्याण के लिये अनुकूल आचरण करने की आवश्यकता पर बल दिया, तथा बच्चे की अभिरक्षा माता को प्रदान की तथा पिता और उसके परिवार को निगरानी में बच्चे से मिलने का अधिकार दिया।
- नैतिक क्षतिपूर्ति के लिये सार्वजनिक माफी: न्यायालय ने पत्नी और उसके माता-पिता को आदेश दिया कि वे मिथ्या अभिकथनों से हुई नैतिक क्षति को स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय समाचार पत्रों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के माध्यम से पति के परिवार से बिना शर्त सार्वजनिक माफी मांगें।
- भविष्य में दुरुपयोग की रोकथाम: न्यायालय ने निदेश दिया कि पक्षकार एक-दूसरे के व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, आधिकारिक पदों के दुरुपयोग पर रोक लगाई, तथा चेतावनी दी कि शर्तों का कोई भी भंग उच्चतम न्यायालय की अवमानना माना जाएगा।
भारतीय दण्ड संहिता और भारतीय न्याय संहिता के अधीन क्रूरता क्या है?
- वैवाहिक संदर्भ में क्रूरता को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498-क और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 86 के अधीन परिभाषित किया गया है।
धारा 498-क दिशानिर्देशों का विकास कैसे हुआ?
- राजेश शर्मा दिशानिर्देश (2017): राजेश शर्मा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2017) मामले में उच्चतम न्यायालय ने वैवाहिक विवादों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के दुरुपयोग को रोकने के लिये वर्तमान कुटुंब कल्याण समिति ढाँचे के समान व्यापक दिशानिर्देश निर्धारित किये थे।
- सोशल एक्शन फोरम की वापसी (2018): 2018 में, मानव अधिकार के लिये सोशल एक्शन फोरम बनाम भारत संघ में उच्चतम न्यायालय ने राजेश शर्मा के निदेशों को वापस ले लिया, यह मानते हुए कि न्यायालय विधायी अंतराल को नहीं भर सकता है और ऐसे नीतिगत निर्णय विधायिका पर छोड़ दिये जाने चाहिये।
- न्यायिक संयम तर्क: न्यायालय ने कहा कि न्यायिक निदेशों के माध्यम से प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय बनाना न्यायिक अतिक्रमण और विधायी क्षेत्र पर अतिक्रमण के समान है, जिसके लिये न्यायिक अधिदेश के बजाय विधायी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
- प्रभावी बहाली (2025): शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल में वर्तमान निर्णय ने कुटुंब कल्याण समितियों के लिये इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन का समर्थन और निदेश देकर राजेश शर्मा के निदेशों को काफी हद तक प्रभावी ढंग से बहाल कर दिया है।
क्रूरता के लिये न्यायालय द्वारा जारी निदेश क्या थे?
- प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद दर्ज होने के बाद दो महीने की " शांत अवधि (cooling period)" पूरी किये बिना, प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद दर्ज होने के बाद नामित अभियुक्तों के विरुद्ध कोई गिरफ्तारी या पुलिस कार्रवाई नहीं की जाएगी।
- कूलिंग पीरियड के दौरान, मामले को मध्यस्थता और समाधान के प्रयासों के लिये प्रत्येक जिले में कुटुंब कल्याण समिति को तुरंत भेजा जाएगा।
- केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क तथा अन्य धाराओं से संबंधित मामले, जिनमें कारावास 10 वर्ष से कम है (धारा 307 के सिवाय) कुटुंब कल्याण समिति को भेजे जाएंगे।
- प्रत्येक जिले में भौगोलिक आकार और जनसंख्या के आधार पर कम से कम एक या अधिक कुटुंब कल्याण समितियाँ होंगी, जिनका गठन जिला विधिक सहायता सेवा प्राधिकरण के अंतर्गत कम से कम तीन सदस्यों के साथ किया जाएगा।
- कुटुंब कल्याण समिति में युवा मध्यस्थ, पाँच वर्ष तक का अनुभव रखने वाले अधिवक्ता, स्वच्छ पृष्ठभूमि वाले मान्यता प्राप्त सामाजिक कार्यकर्त्ता, सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी या वरिष्ठ न्यायिक/प्रशासनिक अधिकारियों की शिक्षित पत्नियाँ सम्मिलित होंगी।
- समिति, परिवादकर्त्ता पक्षकारों को उनके चार वरिष्ठ व्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत बातचीत के लिये बुलाएगी तथा परिवाद दर्ज होने के दो मास के भीतर मामले को निपटाने का प्रयास करेगी।
- कुटुंब कल्याण समिति के सदस्यों को किसी भी बाद की विधिक कार्यवाही में साक्षी के रूप में कभी नहीं बुलाया जाएगा।
- समिति के समक्ष विचार-विमर्श के दौरान, पुलिस अधिकारी मेडिकल रिपोर्ट और साक्षियों के कथनों सहित परिधीय अन्वेषण जारी रखते हुए नामित अभियुक्तों के विरुद्ध किसी भी गिरफ्तारी या बलपूर्वक कार्रवाई से बचेंगे।
- समिति सभी तथ्यात्मक पहलुओं और अपनी राय के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगी, तथा दो मास की अवधि समाप्त होने के बाद उसे संबंधित मजिस्ट्रेट/पुलिस प्राधिकारियों को भेजेगी।
- विधिक सेवा सहायता समिति, कुटुंब कल्याण समिति के सदस्यों को बुनियादी प्रशिक्षण प्रदान करेगी (एक सप्ताह से अधिक नहीं) तथा सदस्य निशुल्क आधार पर काम करेंगे या जिला एवं सेशन न्यायाधीश द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानदेय प्राप्त करेंगे।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क से संबंधित ऐसी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) का अन्वेषण गतिशील अन्वेषण अधिकारियों द्वारा किया जाएगा, जिनकी सत्यनिष्ठा कम से कम एक सप्ताह के विशेष प्रशिक्षण के बाद प्रमाणित की गई हो।
- जब पक्षकारों के बीच समझौता हो जाता है, तो जिला एवं सेशन न्यायाधीश तथा उनके द्वारा नामित अन्य वरिष्ठ न्यायिक अधिकारियों को आपराधिक मामलों को बंद करने सहित कार्यवाही का निपटान करने का अधिकार होगा।
- कुटुंब कल्याण समितियों के गठन और कार्य की समीक्षा समय-समय पर जिला एवं सेशन न्यायाधीश/प्रधान न्यायाधीश, कुटुंब न्यायालय द्वारा की जाएगी, जो अध्यक्ष या सह-अध्यक्ष के रूप में कार्य करेंगे।
- संपूर्ण तंत्र का उद्देश्य आपराधिक अभियोजन से पहले, उग्र स्वभाव वाले प्रतियोगी पक्षकारों को शांत होने तथा संरचित मध्यस्थता के माध्यम से गलतफहमी और भ्रम को दूर करने की अनुमति देकर सामाजिक समस्याओं का समाधान करना है।
कुटुंब कल्याण समितियों (FWC) का उद्देश्य और कार्य क्या है?
- उद्देश्य और कार्य: कुटुंब कल्याण समितियाँ (FWC) विशिष्ट मध्यस्थता निकाय हैं, जो वैवाहिक विवादों में धारा 498-क भारतीय दण्ड संहिता (क्रूरता संबंधी अपराध) के दुरुपयोग को रोकने के लिये प्रत्येक जिले में स्थापित की जाती हैं। इसके अधीन दो मास की शांति अवधि प्रदान की जाती है, जिसके दौरान कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है, जबकि समिति संरचित बातचीत के माध्यम से अलग हुए दंपति के बीच विवादों को सुलझाने का प्रयास करती है।
- संरचना और प्रक्रिया: इन समितियों में तीन सदस्य होते हैं, जिनमें युवा अधिवक्ता, सामाजिक कार्यकर्त्ता, सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी या वरिष्ठ अधिकारियों के शिक्षित पति/पत्नी सम्मिलित होते हैं, जो आपराधिक अभियोजन शुरू होने से पहले वैवाहिक विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिये दोनों पक्षकारों को उनके बुजुर्ग परिवार के सदस्यों के साथ बुलाते हैं।
- विधिक ढाँचा: जिला विधिक सहायता सेवा प्राधिकरण के अधीन गठित और 2025 में उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुमोदित, कुटुंब कल्याण समितियाँ (FWC) धारा 498-क के मामलों (दहेज मृत्यु जैसे गंभीर अपराधों के सिवाय) के लिये अनिवार्य स्क्रीनिंग तंत्र के रूप में कार्य करते हैं, न्यायालयों के लिये विस्तृत रिपोर्ट तैयार करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि समिति के सदस्यों को बाद की कार्यवाही में साक्षी के रूप में नहीं बुलाया जा सकता है।
सिविल कानून
विधिक परिषद् की अनुशासनात्मक कार्यवाही और व्यावसायिक कदाचार
25-Sep-2025
बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा बनाम राजीव नरेशचंद्र नरूला और अन्य "उच्चतम न्यायालय ने तुच्छ अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द कर दिया, तथा इस बात पर बल दिया कि विधिक परिषद् की अनुशासनात्मक समितियों को परिवाद भेजने से पहले उचित कारण अभिलिखित करने चाहिये तथा परिवादकर्त्ता और अधिवक्ता के बीच वृत्तिक संबंध आवश्यक है।" न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता |
स्रोत:उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा बनाम राजीव नरेशचंद्र नरूला और अन्य (2025) के मामले में अधिवक्ताओं के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिससे विधिक परिषद् की अधिकारिता और अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के अधीन वैध अनुशासनात्मक परिवादों की आवश्यकताओं के संबंध में महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित हुए।
बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा बनाम राजीव नरेशचंद्र नरूला एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
प्रथम मामला - राजीव नरूला मामला:
- मेसर्स वोल्गा एंटरप्राइजेज से संबंधित एक संपत्ति विवाद के संबंध में खिमजी देवजी परमार द्वारा अधिवक्ता राजीव नरूला के विरुद्ध 2022 में परिवाद दर्ज किया गया था।
- परमार ने अभिकथित किया कि उनके दिवंगत पिता देवजी परमार, दारा नरीमन सरकारी के साथ मेसर्स वोल्गा एंटरप्राइजेज में भागीदार थे और कुछ भूमि संपत्ति पर उनका अधिकार था।
- संपत्ति विवाद का निपटारा बॉम्बे उच्च न्यायालय में मेसर्स यूनिक कंस्ट्रक्शन और नुस्ली रांडेलिया के बीच 1985 के वाद संख्या 2541 में सहमति शर्तों के माध्यम से किया गया था।
- परिवादकर्त्ता ने अभिकथित किया कि मेसर्स यूनिक कंस्ट्रक्शन का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता राजीव नरूला ने महत्त्वपूर्ण तथ्यों को दबा दिया और दारा नरीमन सरकारी की जानकारी के बिना सम्मति डिक्री प्राप्त कर ली।
- बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा (BCMG) के न्यायाधीश-अधिवक्ता ने 6 जुलाई, 2023 को एक आदेश पारित किया, जिसमें परिवाद को जांच के लिये अनुशासन समिति को भेज दिया गया।
- अधिवक्ता नरूला ने इस आदेश को बॉम्बे उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने अनुशासनात्मक कार्यवाही पर रोक लगा दी।
द्वितीय मामला - गीता शास्त्री मामला:
- बंसीधर अन्नाजी भाकड़ ने अनुशासनात्मक मामला संख्या 264/2017 में अधिवक्ता गीता रामानुग्रह शास्त्री के विरुद्ध परिवाद दर्ज कराया।
- भाकड़ ने अभिकथित किया कि शास्त्री ने एक सिविल वाद में दायर चैंबर समन में शपथपत्र के साक्षी की पहचान की, जिससे शपथपत्र में मिथ्या कथनों के लिये उन्हें उत्तरदायी ठहराया गया।
- अगस्त 2023 में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आरोपों को पूरी तरह से बेतुका और अपुष्ट पाते हुए अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- वृत्तिक संबंध की आवश्यकताएँ:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि सामान्यतः, परिवादकर्त्ता और संबंधित अधिवक्ता के बीच न्यायिक (वृत्तिक) संबंध का अस्तित्व "वृत्तिक अवचार" के आधार पर अनुशासनात्मक अधिकारिता लागू करने के लिये एक पूर्व शर्त है।
- चूँकि राजीव नरूला ने कभी भी परिवादकर्त्ता या उसके पूर्ववर्ती का प्रतिनिधित्व नहीं किया, इसलिये अवचार के परिवाद में उनके विरुद्ध अभियोग चलाने का कोई औचित्य नहीं था।
- किसी अधिवक्ता पर केवल इसलिये अभियोजन चलाना क्योंकि वह विरोधी पक्ष का अधिवक्ता है, "अत्यधिक आपत्तिजनक, पूर्णतया अग्राह्य और पूर्णतया अनुचित" माना गया।
- धारा 35 की आवश्यकताएँ:
- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के अधीन, राज्य विधिक परिषद् को अनुशासन समिति को मामला भेजने से पहले विश्वास करने के कारण अभिलिखित करने होंगे कि कोई भी अधिवक्ता वृत्तिक अवचार का दोषी है।
- परिवाद संप्रेषित से पहले विश्वास करने के कारणों को अभिलिखित करना कि अधिवक्ता ने अवचार किया है, एक अनिवार्य शर्त है।
- न्यायालय ने नंदलाल खोडीदास बारोट बनाम बार काउंसिल ऑफ गुजरात (1980) का हवाला देते हुए इस बात पर बल दिया कि विधिक परिषद् को अपना विवेक प्रयोग करना चाहिये तथा प्रथम दृष्टया अवचार के संबंध में तर्कसंगत विश्वास रखना चाहिये।
- अपर्याप्त संदर्भ आदेश:
- न्यायालय ने 6 जुलाई, 2023 के आदेश को "पूर्णतया गूढ़ और संक्षिप्त" पाया, क्योंकि इसमें अवचार के संबंध में कोई संतुष्टि अभिलिखित नहीं की गई थी या अभिकथनों पर चर्चा नहीं की गई थी।
- "अभिकथनों पर न्यूनतम चर्चा" के बिना दिये गए ऐसे आदेश वैध संदर्भ आदेशों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते हैं और किसी अधिवक्ता के वृत्तिक कैरियर पर गंभीर प्रभाव डाल सकते हैं।
- तुच्छ परिवाद:
- न्यायालय ने कहा कि केवल सम्मति पत्र या शपथपत्र में पक्षकारों की पहचान करना वृत्तिक अवचार नहीं माना जा सकता।
- गीता शास्त्री मामले में न्यायालय ने कहा कि अधिवक्ता केवल शपथपत्र को सत्यापित करने से ही उसकी विषय-वस्तु से अवगत नहीं हो जाते।
- दोनों मामलों को विरोधी वादियों के इशारे पर "विद्वेषपूर्ण अभियोजन" के रूप में चिह्नित किया गया।
शपथपत्र
- परिभाषा:
- प्राधिकृत अधिकारी/मजिस्ट्रेट के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञान के अधीन लिखित रूप में दिया गया शपथ कथन।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) में परिभाषित नहीं है।
- शपथ दिलाने वाले प्राधिकारी के समक्ष लिखित रूप में तथ्यों की घोषणा।
- विधिक ढाँचा:
- सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 19 शपथपत्र उपबंधों से संबंधित है।
- प्रक्रिया, विषय-वस्तु और ग्राह्यता को नियंत्रित करता है।
- आवश्यक तत्त्व
- किसी व्यक्ति द्वारा की गई उद्घोषणा।
- उद्घोषणा तथ्यों से संबंधित होनी चाहिये, अनुमान से नहीं।
- उद्घोषणा प्रथम पुरुष (First Person) में की जानी चाहिये।
- प्रथम पुरुष में होना चाहिये।
- उद्घोषणा मजिस्ट्रेट अथवा सक्षम प्राधिकृत अधिकारी के समक्ष शपथपूर्वक या सत्यापन सहित की जानी चाहिये।
अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 क्या है?
बारे में:
- विधि व्यवसायियों से संबंधित विधि का संशोधित और समेकन करने तथा विधिक परिषदों और अखिल भारतीय भारतीय विधिक परिषद् का गठन करने हेतु उपबंध करने के लिये अधिनियम ।
- यह अधिनियम 19 मई 1961 को लागू हुआ ।
- यह अधिनियम संपूर्ण भारत में लागू है ।
- इस अधिनियम में कुल 60 धाराएँ हैं जो 7 अध्यायों में विभाजित हैं।
अधिनियम की धारा 35:
- यह अवचार के लिये अधिवक्ताओं को दण्डित करने से संबंधित है।
कार्यवाही आरंभ करना [उपधारा (1)]:
- राज्य विधिक परिषद् के पास यह विश्वास करने का "कारण" होना चाहिये कि अधिवक्ता ने वृत्तिक या अन्य अवचार किया है।
- परिवाद प्राप्त होने पर या स्वप्रेरणा से मामले को निपटारे के लिये अनुशासन समिति को निर्दिष्ट किया जाना चाहिये।
- इसके लिये बुद्धि के प्रयोग और तर्कपूर्ण विश्वास की आवश्यकता होती है, न कि स्वतः संदर्भ की।
कार्यवाही का स्थानांतरण [उपधारा (1क)]:
- राज्य विधिक परिषद् एक अनुशासन समिति से लंबित कार्यवाही वापस ले सकती है।
- उसी राज्य विधिक परिषद् की किसी अन्य अनुशासनात्मक समिति द्वारा जांच का निदेश दिया जा सकता है।
- यह कार्य स्वप्रेरणा से अथवा इच्छुक व्यक्ति के आवेदन पर किया जा सकता है।
नोटिस और सुनवाई [उपधारा (2)]
- अनुशासन समिति को सुनवाई की तारीख नियत करनी होगी।
- अनिवार्य सूचना:
- संबंधित अधिवक्ता
- राज्य के महाधिवक्ता
अनुशासन समिति की शक्तियां [उपधारा (3)]:
- अधिवक्ता एवं महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर प्रदान करने के पश्चात् समिति निम्नलिखित कार्य कर सकती है:
- परिवाद को खारिज करें या कार्यवाही दर्ज करने का निदेश दें सकेगी।
- अधिवक्ता को धिग्दंड दे सकेगी ।
- अधिवक्ता को निर्दिष्ट अवधि के लिये व्यवसाय से निलंबित कर सकेगी ।
- राज्य नामावली से अधिवक्ता का नाम हटा सकेगी ।
निलंबन के परिणाम [उपधारा (4)]:
- निलंबित अधिवक्ता को भारत की किसी भी न्यायालय में व्यवसाय करने से विवर्जित किया जा जाएगा।
- निलंबन पूरे भारत में किसी भी प्राधिकारी या व्यक्ति के समक्ष लागू होता है।
- निलंबन अवधि के दौरान पूर्ण प्रतिबंध।
महाधिवक्ता की भागीदारी [उपधारा (5)]:
- महाधिवक्ता अनुशासन समिति के समक्ष उपस्थित हो सकते हैं।
- वह व्यक्तिगत रूप से या किसी अधिवक्ता के माध्यम से अपनी ओर से उपस्थित हो सकता है।
- उपधारा (2) के अधीन सूचना प्राप्त होने पर भागीदारी।
दिल्ली के लिये विशेष प्रावधान [स्पष्टीकरण]:
- दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में:
- "महाधिवक्ता" का अर्थ है भारत के अपर सॉलिसिटर जनरल
- धारा 35, 37 और 38 पर लागू होता है।
प्रमुख प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ:
- तर्कसंगत विश्वास - संदर्भ से पूर्व अनिवार्य।
- प्राकृतिक न्याय - सुनवाई का अवसर प्रदान करना अनिवार्य।
- श्रेणीबद्ध दंड - धिग्दंड से लेकर नामावली से विलोपन तक ।
- अखिल भारतीय प्रभाव - निलंबन का प्रभाव संपूर्ण भारत में लागू होगा ।