ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (नई दिल्ली)   |   ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (प्रयागराज)









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

अपील द्वारा सजा में वृद्धि

 19-May-2025

सचिन बनाम महाराष्ट्र राज्य

"हमारे विचार से, अभियुक्त द्वारा दायर अपील में अपीलीय न्यायालय दोषसिद्धि को यथावत रखते हुए, सज़ा में वृद्धि नहीं कर सकता। दोषी के कहने पर अपनी अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करते हुए, उच्च न्यायालय एक पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर सकता, विशेष रूप से, जब राज्य, पीड़ित या शिकायतकर्त्ता द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध सज़ा बढ़ाने की मांग के लिये कोई अपील या पुनरीक्षण दायर नहीं किया गया हो।"

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं एस.सी. शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति एस.सी. शर्मा की पीठ ने कहा कि किसी दोषी द्वारा दायर अपील में अपीलीय न्यायालय को सजा बढ़ाने का अधिकार नहीं है, जब तक कि राज्य, पीड़ित या शिकायतकर्त्ता द्वारा ऐसी वृद्धि की विशेष मांग करते हुए अलग से अपील या पुनरीक्षण दायर न किया गया हो।

सचिन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता पर लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 4 के अंतर्गत दण्डनीय धारा 3(a) तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363-A एवं 376 के साथ-साथ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(1)(xii) एवं 3(2)(v) के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया था।
  • इस मामले में आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्त्ता, जो पीड़िता के परिवार का पड़ोसी था, ने चार वर्षीय अप्राप्तवय पीड़िता को उसके माता-पिता के घर न जाने पर बहला-फुसलाकर अपने घर बुलाया, उसके कपड़े उतारे और उसके साथ बलात्संग कारित किया।
  • वरोरा के विशेष न्यायाधीश ने अपीलकर्त्ता को POCSO  अधिनियम की धारा 3(a) एवं 4 तथा IPC की धारा 376 के अंतर्गत दण्डनीय अपराधों के लिये दोषी मानते देते हुए सात वर्ष के कठोर कारावास तथा 2,000 रुपये के जुर्माने की सजा दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने अपनी दोषसिद्धि एवं सजा को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील संख्या 30/2015 दायर की। राज्य ने सजा की अपर्याप्तता के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की।
  • उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि को यथावत रखते हुए कहा कि विशेष न्यायालय ने POCSO अधिनियम की धारा 5(m) एवं 6 तथा IPC की धारा 376(2)(i) के प्रावधानों की अनदेखी की है। उच्च न्यायालय ने सजा में वृद्धि करने के संबंध में अपीलकर्त्ता को कारण बताओ नोटिस जारी किया।
  • अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता की आपत्तियों के बावजूद उच्च न्यायालय ने सजा की मात्रा पर पुनर्विचार के लिये मामले को विशेष न्यायालय को सौंप दिया।
  • विशेष न्यायालय ने बाद में सजा को सात वर्ष से बढ़ाकर आजीवन कारावास एवं 5,000 रुपये के जुर्माने में बदल दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने इस वृद्धि को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील संख्या 311/2021 दायर की। खंडपीठ ने सुझाव दिया कि अपीलकर्त्ता उच्चतम न्यायालय का रुख करें।
  • इन कार्यवाहियों के कारण, अपीलकर्त्ता, जिसे शुरू में सात वर्ष की सजा दी गई थी, पहले ही ग्यारह वर्ष एवं आठ महीने जेल में काट चुका था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी अभियुक्त द्वारा दोषसिद्धि के विरुद्ध दायर अपील में अपीलीय न्यायालय सजा में वृद्धि नहीं कर सकता, जब न तो राज्य, न ही पीड़ित, न ही शिकायतकर्त्ता ने ऐसी वृद्धि की मांग करते हुए कोई अपील या पुनरीक्षण दायर किया हो।
  • न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 386(b)(iii) में स्पष्ट रूप से दोषी द्वारा दोषसिद्धि के विरुद्ध दायर अपील में सजा में वृद्धि पर रोक लगाई गई है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी दोषी के कहने पर अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर सकता, विशेषकर तब जब राज्य, पीड़ित, या शिकायतकर्त्ता द्वारा सजा में वृद्धि की मांग करते हुए कोई अपील या पुनरीक्षण दायर नहीं किया गया हो।
  • न्यायालय ने पाया कि सजा बढ़ाने के लिये अपीलीय न्यायालय की शक्तियों के प्रयोग के लिये, CrPC विशिष्ट प्रावधान प्रदान करता है, और ऐसी वृद्धि पर राज्य, पीड़ित या शिकायतकर्त्ता द्वारा अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण बताने का अवसर देने के बाद ही विचार किया जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता पर अध्यारोपित की गई सजा बढ़ाने के लिये मामले को विशेष न्यायालय को वापस भेजने में चूक की, विशेष रूप से अभियुक्त द्वारा अपनी दोषसिद्धि एवं सजा को रद्द करने की मांग करने वाली अपील में।
  • न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय और परिणामस्वरूप विशेष न्यायालय के आदेश त्रुटिपूर्ण थे तथा इसके कारण अपीलकर्त्ता को मूल सजा से चार वर्ष से अधिक कारावास भुगतना पड़ा।
  • उच्चतम न्यायालय ने सात वर्ष की मूल सजा को बहाल करने के लिये भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी शक्तियों का प्रयोग किया तथा अपीलकर्त्ता की त्वरित रिहाई का आदेश दिया, क्योंकि वह पहले ही निर्धारित अवधि से अधिक सजा काट चुका था।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 427 क्या है?

  • धारा 427(c) विशेष रूप से सजा बढ़ाने की अपील से निपटान करने के दौरान अपीलीय न्यायालय की शक्तियों को संबोधित करती है। 
  • नए आपराधिक विधानों से पहले यह प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 386 के अंतर्गत आता था। 
  • अपीलीय न्यायालय को सजा बढ़ाने की अपील में कार्यवाही के तीन अलग-अलग तरीकों से सशक्त किया गया है:
    • उप-खण्ड (i) के अन्तर्गत न्यायालय अपने निष्कर्ष और सजा को पलट सकता है, तथा अभियुक्त को दोषी या दोषमुक्त कर सकता है, या सक्षम न्यायालय द्वारा पुनः सुनवाई का आदेश दे सकता है।
    • उप-खण्ड (ii) के अन्तर्गत न्यायालय अपने निष्कर्ष को बदल सकता है, जबकि पहले दी गई सजा को यथावत रख सकता है।
    • उप-खण्ड (iii) के अन्तर्गत न्यायालय अपने निष्कर्ष को बदले बिना या बदले, सजा की प्रकृति या सीमा, या प्रकृति और सीमा दोनों को संशोधित कर सकता है, या तो उसे बढ़ा सकता है या घटा सकता है।
  • यह प्रावधान एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार करता है जिसके अंतर्गत सजा में वृद्धि तभी हो सकती है जब वृद्धि के लिये विशेष रूप से अपील दायर की गई हो।
  • यह विधि खंड (b) के अंतर्गत दोषसिद्धि से अपील और खंड (c) के अंतर्गत वृद्धि के लिये अपील के बीच स्पष्ट रूप से अंतर करता है, प्रत्येक परिदृश्य के लिये अलग-अलग प्रक्रियाएँ एवं शक्तियाँ स्थापित करता है।
  • इस प्रावधान को पहले प्रावधान के साथ पढ़ा जाना चाहिये जो यह अनिवार्य करता है कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण बताने का अवसर दिये बिना सजा में वृद्धि का आदेश नहीं दिया जा सकता है।
  • दूसरा प्रावधान यह निर्धारित करके अपीलीय न्यायालय की सजा बढ़ाने की शक्ति पर सीमा लगाता है कि वह अपील के अंतर्गत आदेश या सजा पारित करने वाले मूल न्यायालय द्वारा लगाए जा सकने वाले दण्ड से अधिक दण्ड नहीं लगा सकता है।
  • खण्ड (c) इस प्रकार सजा बढ़ाने के लिये एक पूर्ण सांविधिक योजना बनाता है जो विशेष रूप से वृद्धि की मांग करने वाली उचित रूप से गठित अपील के ढाँचे के अंदर ही प्रयोग योग्य है।
  • विधायी मंशा स्पष्ट रूप से स्थापित करती है कि वृद्धि शक्तियाँ वृद्धि की मांग करने के विशिष्ट उद्देश्य से दायर अपीलों तक सीमित हैं, सामान्यतया राज्य, शिकायतकर्त्ता या पीड़ित द्वारा, और अभियुक्त द्वारा दोषसिद्धि को चुनौती देने वाली अपीलों में नहीं।

संदर्भित मामले

नादिर खान बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन), (1975):

  • इस मामले में यह पूछा गया कि क्या उच्च न्यायालय को CrPC  की धारा 401 के अंतर्गत पुनरीक्षण में धारा 377 के अधीन सजा की अपर्याप्तता के विरुद्ध राज्य द्वारा अपील के अभाव में सजा में वृद्धि करने का अधिकार है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय के पास उचित मामलों में आपराधिक पुनरीक्षण में स्वप्रेरणा से कार्यवाही करने का निस्संदेह अधिकार है, तब भी जब राज्य ने धारा 377 के अंतर्गत अपील नहीं की हो। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 401 स्पष्ट रूप से किसी अन्य एजेंसी के हस्तक्षेप के बिना रिकॉर्ड मांगने की उच्च न्यायालय की शक्ति को संरक्षित करती है, जब कुछ असाधारण तथ्य उसके संज्ञान में आती है तो शक्ति के प्रयोग को जीवित रखती है।

एकनाथ शंकरराव मुक्कवर बनाम महाराष्ट्र राज्य, (1977):

  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि उच्च न्यायालय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के अंतर्गत अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करके स्वप्रेरणा से सजा नहीं बढ़ा सकता।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नई दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 ने स्वप्रेरणा से पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करके सजा में वृद्धि करने की उच्च न्यायालय की शक्ति को समाप्त नहीं किया है।
  • न्यायालय ने माना कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 401 के साथ धारा 397 के अधीन पुनरीक्षण की स्वप्रेरणा शक्ति का प्रयोग करके उचित मामलों में सजा बढ़ाने की उच्च न्यायालय की शक्ति अभी भी प्राप्त है।

सिविल कानून

वाणिज्यिक वाद में PIMS

 19-May-2025

मेसर्स धनबाद फ्यूल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ

“20.08.2022 से पहले 2015 अधिनियम की धारा 12A का अनुपालन किये बिना आरंभ किये गए वाद में, जो ट्रायल न्यायालय के समक्ष निर्णय के लिये लंबित हैं, न्यायालय वाद को स्थगित रखेगी तथा यदि प्रतिवादी द्वारा कोई आपत्ति दर्ज की जाती है तो पक्षों को 2015 अधिनियम की धारा 12A के अनुसार समयबद्ध मध्यस्थता के लिये भेजेगी।”

न्यायमूर्ति आर. महादेवन एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति आर. महादेवन एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि धारा 12A का पालन किये बिना 20 अगस्त 2022 से पहले दायर किये गए वाद को तब तक खारिज नहीं किया जा सकता जब तक कि पाटिल ऑटोमेशन प्राइवेट लिमिटेड बनाम रखेजा इंजीनियर्स (2022) में विशिष्ट अपवाद लागू न हों।

  • उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स धनबाद फ्यूल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

मेसर्स धनबाद फ्यूल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 9 अगस्त 2019 को, भारत संघ ने अंतर भाड़ा एवं जुर्माना के लिये ₹8,73,36,976 की वसूली के लिये अपीलकर्त्ता के विरुद्ध अलीपुर में वाणिज्यिक न्यायालय में मनी सूट दायर किया। 
  • उक्त वाद में भारत संघ द्वारा कोई त्वरित अंतरिम अनुतोष नहीं माँगा गया था। 
  • 20 दिसंबर 2019 को, अपीलकर्त्ता ने, प्रतिवादी के रूप में, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 12 A और प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता और निपटान नियम, 2018 का अनुपालन न करने के कारण वाद की स्थिरता पर प्रारंभिक आपत्ति दर्ज करते हुए एक लिखित अभिकथन दायर किया, जो 3 जुलाई 2018 को लागू हुआ। 
  • 30 सितंबर 2020 को, अपीलकर्त्ता ने CPC के आदेश VII नियम 11 (d) के अंतर्गत अंतरिम आवेदन दायर किया, जिसमें अनिवार्य प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता के प्रयोग में विफलता के कारण शिकायत को खारिज करने की मांग की गई।
  • 21 दिसंबर 2020 को, वाणिज्यिक न्यायालय ने आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसे विलंब से दायर किया गया था तथा शिकायत को खारिज करने से न्याय मिलने की बजाय इसमें विलंब होगा।
  • वाणिज्यिक न्यायालय ने उल्लेख किया कि 5 जुलाई 2019 को वाणिज्यिक न्यायालय की स्थापना के तुरंत बाद वाद दायर किया गया था, ऐसे समय में जब कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता के लिये उचित मूलभूत ढाँचा और एक मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) अभी तक लागू नहीं की गई थी। 
  • न्यायालय ने विवाद को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने का आदेश दिया तथा श्री जयंत मुखर्जी, एक अधिवक्ता को मध्यस्थ नियुक्त किया, दोनों पक्षों को 4 जनवरी 2021 से आरंभ होने वाली मध्यस्थता कार्यवाही में भाग लेने और 11 जनवरी 2021 तक प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया।
  • आवेदन की अस्वीकृति से असंतुष्ट, अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक सिविल पुनरीक्षण दायर किया। 
  • अपने निर्णय में, उच्च न्यायालय ने माना कि उस स्तर पर शिकायत को खारिज करना धारा 12A के उद्देश्य के अनुरूप नहीं होगा तथा इसके बजाय मुकदमे को स्थगित रखने का निर्देश दिया, जिससे वादी को अब मध्यस्थता का अनुपालन करने की अनुमति मिल सके। 
  • उच्च न्यायालय ने माना कि दिसंबर 2020 तक, पश्चिम बंगाल में SOP एवं मध्यस्थता का मूलभूत ढाँचा अभी तक पूरी तरह से अधिसूचित या चालू नहीं था, जो प्रारंभिक गैर-अनुपालन को उचित मानता है। 
  • उच्च न्यायालय ने यह भी नोट किया कि प्रशिक्षित वाणिज्यिक मध्यस्थों का पैनल वाद दायर होने के बाद ही तैयार किया गया था। 
  • उच्च न्यायालय ने मध्यस्थ की वाणिज्यिक न्यायालय द्वारा की गई नियुक्ति को खारिज कर दिया तथा वादी को आदेश के दो सप्ताह के अंदर 11 दिसंबर 2020 की SOP के अनुसार जिला विधिक सेवा प्राधिकरण से संपर्क करने का निर्देश दिया। 
  • मुकदमे को सात महीने या मध्यस्थता रिपोर्ट प्राप्त होने तक, जो भी पहले हो, स्थगित रखने का निर्देश दिया गया। 
  • उच्च न्यायालय के आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता (मूल प्रतिवादी) ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय द्वारा निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले गए:
    • पाटिल ऑटोमेशन में उच्चतम न्यायालय ने माना कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 (CCA) की धारा 12A अनिवार्य है। 
    • यह अनिवार्य प्रकृति संशोधन के लागू होने की तिथि से लागू होती है। 
    • पाटिल ऑटोमेशन के पैराग्राफ 113.1 के अनुसार, धारा 12A का पालन किये बिना दायर किये गए वाद को आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत खारिज किया जाना चाहिये, लेकिन यह केवल 20 अगस्त 2022 को या उसके बाद दायर किये गए वाद पर लागू होता है। 
    • यदि किसी वाद में त्वरित अंतरिम अनुतोष के लिये प्रार्थना शामिल है, तो इसे धारा 12A के अंतर्गत मध्यस्थता के बिना दायर किया जा सकता है। 
    • CPC की धारा 80(2) के विपरीत, धारा 12A के अंतर्गत मध्यस्थता को छोड़ने के लिये न्यायालय से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। 
    • न्यायालयों को मामले की प्रकृति के आधार पर यह आकलन करना चाहिये कि वादी को वास्तव में त्वरित अंतरिम अनुतोष की आवश्यकता है या नहीं।
    • न्यायालयों को मध्यस्थता से बचने के लिये फर्जी त्वरित अनुतोष दावों का उपयोग करने वाले वादी से सावधान रहना चाहिये।
    • भले ही अंतरिम अनुतोष को अंततः अस्वीकार कर दिया गया हो, लेकिन यदि त्वरित आवश्यकता वास्तविक थी, तो वाद मध्यस्थता के बिना भी आगे बढ़ सकता है।
    • धारा 12A का पालन किये बिना 20 अगस्त 2022 से पहले दायर किये गए वाद को तब तक खारिज नहीं किया जा सकता जब तक कि पाटिल ऑटोमेशन में विशिष्ट अपवाद लागू न हों।
    • ऐसे पुराने वाद में, यदि प्रतिवादी आपत्ति करता है या कोई पक्ष मध्यस्थता चाहता है, तो न्यायालय को मामले को रोक देना चाहिये तथा धारा 12A के अंतर्गत समयबद्ध मध्यस्थता के लिये भेजना चाहिये।
  • न्यायालय ने वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि यदि वाद CCA की धारा 12 A का अनुपालन किये बिना 20 अगस्त 2022 से पहले आरंभ किया गया था तथा यह पाटिल ऑटोमेशन के निर्णय में उल्लिखित अपवादात्मक श्रेणियों में नहीं आता है, तो न्यायालय के लिये वाद को स्थगित रखना और पक्षों को CCA के अनुसार मध्यस्थता की संभावना तलाशने का निर्देश देना उचित होगा। 

प्री इंस्टीट्युशनल मध्यस्थता एवं निपटान क्या है?

  • CCA की धारा 12A के अंतर्गत प्री इंस्टीट्युशनल मध्यस्थता एवं निपटान (PIMS) का प्रावधान किया गया है। 
  • यह धारा निम्नलिखित का प्रावधान करती है:
    • खंड (1): ऐसा वाद जिसमें त्वरित अंतरिम अनुतोष शामिल नहीं है, तब तक दायर नहीं किया जा सकता जब तक कि वादी पहले केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता की प्रक्रिया का प्रयोग न करे। 
    • खंड (2): केंद्र सरकार विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अंतर्गत स्थापित प्राधिकरणों को प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता करने के लिये अधिकृत कर सकती है। 
    • खंड (3): अधिकृत प्राधिकरण को वादी द्वारा आवेदन करने की तिथि से तीन महीने के अंदर मध्यस्थता प्रक्रिया पूरी करनी होगी। यदि दोनों पक्ष सहमत हों तो इस अवधि को दो महीने और बढ़ाया जा सकता है।
    • खंड (3) - दूसरा प्रावधान: परिसीमा अधिनियम, 1963 के अंतर्गत परिसीमा अवधि की गणना करते समय प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता में बिताया गया समय नहीं गिना जाएगा। 
    • खंड (4): यदि पक्ष मध्यस्थता के दौरान किसी समझौते पर पहुँचते हैं, तो इसे लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिये तथा दोनों पक्षों और मध्यस्थ द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिये। 
    • खंड (5): धारा 12A के अंतर्गत किये गए समझौते को माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 30(4) के अंतर्गत सहमत शर्तों पर मध्यस्थ पंचाट के रूप में माना जाएगा तथा इसका वही विधिक प्रभाव होगा।

PIMS पर आधारित ऐतिहासिक मामले क्या हैं?

  • मेसर्स पाटिल ऑटोमेशन प्राइवेट लिमिटेड बनाम रखेजा इंजीनियर्स (2022)
    • न्यायालय ने माना कि CCA की धारा 12A अनिवार्य प्रकृति की है तथा धारा 12A के अधिदेश का उल्लंघन करके दायर किया गया कोई भी वाद सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत खारिज कर दिया जाएगा।
  • यामिनी मनोहर बनाम टी.के.डी. कीर्ति (2024)
    • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य की पुष्टि की कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की धारा 12A अनिवार्य है, जिसके अंतर्गत वाद दायर करने से पहले वाद -पूर्व मध्यस्थता की आवश्यकता होती है, जब तक कि त्वरित अंतरिम अनुतोष की मांग न की जाए।
    • एक वादी केवल त्वरित अंतरिम अनुतोष का अनुरोध करके मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता की आवश्यकता को अनदेखा नहीं कर सकता।
    • वाणिज्यिक न्यायालय को यह आकलन करना चाहिये कि त्वरित अंतरिम अनुतोष के लिये याचिका वास्तविक है या केवल मध्यस्थता से बचने का बहाना है।
    • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि त्वरितता का कोई भी दावा धारा 12A के अंतर्गत दायित्वों से बचने के लिये "छिपाना या मुखौटा" नहीं होना चाहिये।
    • धारा 12A में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि किसी वाद में त्वरित अंतरिम अनुतोष शामिल नहीं है, तो उसे पहले प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता का प्रयोग किये बिना दायर नहीं किया जा सकता है।

वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम् खण्डों का प्रारूपण

 19-May-2025

दक्षिण दिल्ली नगर निगम बनाम एसएमएस लिमिटेड 

"दुराशयपूर्ण वाद" को "न्यायिक समय की आपराधिक बर्बादी" की संज्ञा दी गई है, जो लम्बे समय से न्यायिक प्रणाली में अनावश्यक रूप से चल रहे हैं। न्यायालयों ने यह अपेक्षा व्यक्त की है कि न्यायिक मंच इस प्रकार के वादों के विरुद्ध स्वतः संज्ञान लेकर कठोर कार्रवाई करें" 

जस्टिस सूर्यकांत और एन. कोटिस्वर सिंह 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह नेनेकहा कि अस्पष्ट रूप से प्रारूपित माध्यस्थम् खण्ड केवल न्यायिक समय की आपराधिक बर्बादी के तुल्य हैं, अपितु ऐसे खण्डों को प्रारंभिक स्तर पर ही न्यायिक मंचों द्वारा नामंजूर कर देना चाहिये 

  • उच्चतम न्यायालय ने दक्षिण दिल्ली नगर निगम बनाम एसएमएस लिमिटेड (2025)मामले में यह निर्णय दिया।  

दक्षिण दिल्ली नगर निगम बनाम एसएमएस लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • यह मामला दिल्ली नगर निगमों और निजी ठेकेदारों के बीच पार्किंग और वाणिज्यिक परिसरों के विकास के लिये निष्पादित तीन अलग-अलग रियायत करारों के संबंध में विवादों से उत्पन्न हुआ 
  • प्राथमिक विवाद इन करारों में अनुच्छेद 20 की व्याख्या पर केंद्रित था, विशेष रूप से यह कि क्या ये प्रावधान वैध माध्यस्थम् खण्ड का गठन करते हैं। 
  • दक्षिण दिल्ली नगर निगम बनाम एस.एम.एस. लिमिटेड मामलेमें , डिफेंस कॉलोनी, नई दिल्ली में बहुमंजिला पार्किंग सुविधा के निर्माण के लिये 24 अप्रैल 2012 को एक रियायत करार निष्पादित किया गया था । 
  • विवाद तब उत्पन्न हुआ जब एस.एम.एस. लिमिटेड ने आरोप लगाया कि एस.डी.एम.सी. वास्तुकला चित्रों के लिये समय पर अनुमोदन देने में असफल रही, जिसके कारण उसे गंभीर आर्थिक हानि हुई 
  • डिफेंस कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन ने रियायत करार को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की, जिसके परिणामस्वरूप यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया गया, जिससे परियोजना की प्रगति रुक ​​गई। 
  • एस.एम.एस. लिमिटेड ने इसके पश्चात् करार को समाप्त करने और जमा की गई राशि वापस करने तथा क्षतिपूर्ति का दावा करने की मांग की। 
  • इसी प्रकार का विवादमेसर्स डी.एस.सी. लिमिटेड बनाम दिल्ली नगर निगम मामलेमें ग्रेटर कैलाश I में पार्किंग सुविधा के संबंध में हुआ था, तथा इसी प्रकार का विवाद दिल्ली नगर निगम बनाम मेसर्स कंसॉलिडेटेड कंस्ट्रक्शन कंसोर्टियम लिमिटेड मामले में साउथ एक्सटेंशन में एक कॉम्प्लेक्स के संबंध में हुआ था। 
    • प्रत्येक वाद में लगभग एक दशक तक विस्तृत न्यायिक प्रक्रिया चली, जिसका मुख्य विवाद इस बात पर केंद्रित रहा कि संबंधित करारों का अनुच्छेद 20 एक माध्यस्थम् खण्ड है या केवल सुलह की प्रक्रिया का प्रावधान करता है।   

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने 15 मई 2025 को भारत में माध्यस्थम् विधि के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय सुनाया, जिसमें अस्पष्ट रूप से वर्णित माध्यस्थम् खण्डों पर कड़ी असहमति व्यक्त की गई। 
  • न्यायालय ने कहा कि इस तरह का अस्पष्ट मसौदा तैयार करना "न्यायिक समय की आपराधिक बर्बादी" है, तथा माध्यस्थम् तंत्र के मूल उद्देश्य को भी नष्ट करता है। 
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंहकी पीठ नेइस बात पर बल दिया कि माध्यस्थम् संबंधी प्रावधानों को "अस्पष्ट शब्दावली में नहीं अपितु अत्यंत सटीकता और स्पष्टता के साथ" तैयार किया जाना चाहिये 
  • न्यायालय ने कहा कि स्पष्ट प्रारूपण का उत्तरदायित्त्व विधिक सलाहकारों, सलाहकारों और चिकित्सकों का है, जिन्हें "इस कर्त्तव्य को पूर्ण कर्तव्यनिष्ठा से निभाना चाहिये।" 
  • निर्णय में न्यायालयों और न्यायिक मंचों से आग्रह किया गया कि वे "खराब ढंग से तैयार किये गए खण्डों" को आरंभिक चरण पर ही नामंजूर कर दें तथा जहाँ जानबूझकर अस्पष्टता पाई जाए, वहाँ उचित मामलों में स्वतः संज्ञान शक्ति का प्रयोग करें। 
  • न्यायालय ने चेतावनी दी कि ऐसे "अनैतिक कृत्यों" के लिये जल्द ही व्यक्तिगत दायित्त्व निर्धारित किया जा सकता है, साथ ही "अभिनेताओं के विरुद्ध कठोरतम दण्डात्मक उपाय भी किये जा सकते हैं।" 
  • माध्यस्थम् के संबंध में भारतीय विधिक पारिस्थितिकी तंत्र में प्रगति को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने कहा कि प्रभावी विवाद समाधान सुनिश्चित करने के लिये अभी भी महत्त्वपूर्ण सुधार आवश्यक हैं। 
  • निर्णय में यह निष्कर्ष निकाला गया कि तीनों रियायत करारों में अनुच्छेद 20, माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अंतर्गत वैध माध्यस्थम् करार गठित करने में असफल रहा। 

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 (माध्यस्थम् अधिनियम) की धारा 7 क्या है? 

  • माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 7 परिभाषित करती है कि विधि के अधीन "माध्यस्थम् करार" क्या होता है। यह धारा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि एक वैध माध्यस्थम् समझौता माध्यस्थम् कार्यवाही का आधार बनता है।  
  • धारा 7 के प्रमुख तत्त्व हैं: 
    • परिभाषा: माध्यस्थम् करार पक्षकारों के बीच कुछ विवादों को माध्यस्थम् के लिये प्रस्तुत करने का एक करार है, चाहे ये विवाद पहले से उत्पन्न हो चुके हों या भविष्य में उत्पन्न हो सकते हैं। 
    • प्रारूप: माध्यस्थम् करार या तो संविदा के भीतर एक माध्यस्थम् खण्ड हो सकता है या एक पृथक् करार हो सकता है। 
    • लिखित आवश्यकता: करार को वैध होने के लिये लिखित रूप में होना चाहिये 
  • "लिखित रूप में" क्या माना जाएगा: यह धारा निर्दिष्ट करती है कि किसी करार को "लिखित रूप में" माना जाता है यदि वह: 
    • पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित दस्तावेज़ में निहित 
    • पत्रों, टेलेक्स, टेलीग्राम या अन्य दूरसंचार साधनों (इलेक्ट्रॉनिक साधनों के माध्यम से संसूचना भी है) के आदान-प्रदान में पाया जाता है जो करार का रिकॉर्ड अभिलेख की व्यवस्था करते हैं 
    • दावे और प्रतिरक्षा के कथनों के आदान-प्रदान में उपस्थित होना, जहाँ एक पक्षकार करार के अस्तित्व का अभिकथन किया गया है और दूसरा उससे इंकार नहीं करता 
  • संदर्भ द्वारा समावेशन: लिखित संविदा में माध्यस्थम् खण्ड वाले दस्तावेज़ का संदर्भ माध्यस्थम् करार का गठन कर सकता है, यदि संदर्भ उस खण्ड को संविदा में सम्मिलित करता है। 
  • यह धारा औपचारिक आवश्यकताओं को निर्धारित करती है जिन्हें अधिनियम के अधीन किसी माध्यस्थम् करार को विधिक रूप से मान्यता प्राप्त और लागू करने योग्य बनाने के लिये पूर्ण किया जाना चाहिये