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सिविल कानून

मकान मालिक-किरायेदार विवाद

 05-Jun-2025

मोहित सुरेश हरचंद्राय बनाम हिंदुस्तान ऑर्गेनिक केमिकल्स लिमिटेड

"हम बॉम्बे उच्च न्यायालय के संबंधित मुख्य न्यायाधीश से अनुरोध करते हैं कि वे इस मुद्दे को सामने लाएँ तथा मकान मालिक-किराएदार विवादों में लंबित अवधि के विषय में संबंधित न्यायालयों से रिपोर्ट मांगें। यदि यह पाया जाता है कि वर्तमान मामले जैसे कई उदाहरण हैं, तो इन मामलों के शीघ्र निपटान के लिये उचित कदम उठाए जाने चाहिये या निर्देश जारी किये जाने चाहिये।"

न्यायमूर्ति संजय करोल एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय करोल एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने मकान मालिक-किराएदार विवाद में बॉम्बे उच्च न्यायालय के निर्णय को यथावत बनाए रखा, केवल ब्याज दर को 8% से 6% तक संशोधित किया तथा किरायेदार को 3 महीने के अंदर बकाया राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया, जबकि बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से इसी तरह के लंबित मामलों में विलंब को दूर करने का आह्वान किया।

  • उच्चतम न्यायालय ने मोहित सुरेश हरचंद्राय बनाम हिंदुस्तान ऑर्गेनिक केमिकल्स लिमिटेड (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

मोहित सुरेश हरचंद्राय बनाम हिंदुस्तान ऑर्गेनिक केमिकल्स लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हिंदुस्तान ऑर्गेनिक केमिकल्स लिमिटेड (HOCL) ने आरंभ में 'हरचंद्राय हाउस', 81/ए महर्षि कर्वे रोड, मुंबई में परिसर पट्टे पर लिया था, जिसमें भूतल एवं दूसरी मंजिल शामिल थी, जिसका कुल निर्मित क्षेत्रफल 7,825 वर्ग फीट था। 
  • मूल पट्टा करार 1 अप्रैल 1962 से 31 मार्च 1966 तक तीन वर्षों के लिये निष्पादित किया गया था, जिसमें मासिक किराया 10,955 रुपये और प्रशासनिक शुल्क 55,557 रुपये प्रति माह था। 
  • मार्च 1966 में पट्टे की अवधि समाप्त होने पर, HOCL ने नया पट्टा करार निष्पादित किये बिना मासिक किरायेदार के रूप में परिसर पर कब्जा करना जारी रखा।
  • मकान मालिक-किराएदार का यह संबंध 34 वर्ष तक बिना किसी रुकावट के चलता रहा, जब तक कि मकान मालिकों ने 25 अप्रैल 2000 को मकान समापन का नोटिस नहीं दे दिया। 
  • महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम, 1999 की धारा 3(1)(बी) के प्रावधानों के कारण HOCL ने किराया नियंत्रण विधियों के अंतर्गत अपना सांविधिक संरक्षण खो दिया, जिसने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिये विशेष संरक्षण को हटा दिया।
  • समापन नोटिस के बाद, मकान मालिक मोहित सुरेश हरचंद्राय और अन्य ने 2 सितंबर 2000 को लघु कारण न्यायालय, मुंबई (टी.ई.एंड आर सूट संख्या 122/152/2000) के समक्ष बेदखली का मुकदमा दायर किया। 
  • लघु कारण न्यायालय ने अप्रैल 2009 में बेदखली का आदेश दिया, जिसमें HOCL को तीन महीने के अंदर खाली करने और 1 जून 2000 से कब्जे की बहाली तक अंतःकालीन लाभ का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।
  • बेदखली आदेश के विरुद्ध HOCL की अपील अगस्त 2012 में खारिज कर दी गई थी, तथा मई 2013 में उच्च न्यायालय ने उनकी बाद की पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया था। 
  • HOCL ने आखिरकार 23 अप्रैल 2014 को परिसर खाली कर दिया तथा मकान मालिकों को कब्जा सौंप दिया, जिससे पाँच दशकों से अधिक समय से चल रहा कब्जा खत्म हो गया। 
  • प्राथमिक विवाद जून 2000 से अप्रैल 2014 तक अनधिकृत कब्जे की अवधि के दौरान अंतःकालीन लाभ की गणना के लिये उचित प्रति वर्ग फुट दर निर्धारित करने पर केंद्रित था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर गहरी चिंता व्यक्त की कि मकान मालिक-किराएदार विवाद ढाई दशक से अधिक समय से न्यायिक मंचों पर लंबित है, जिसमें मकान मालिकों को मौद्रिक लाभ वर्ष 2000 में समाप्ति की कार्यवाही आरंभ होने के एक चौथाई सदी बाद ही प्राप्त हुआ है। 
  • न्यायालय ने कहा कि मकान मालिक-किराएदार विवादों में, वंचना का दोहरा आयाम उपलब्ध है - मकान मालिकों को संपत्ति के उपभोग और मौद्रिक लाभ की हानि होती है, जबकि किरायेदारों को मामले के अंतिम रूप से निपटान के समय कम समय सीमा के अंदर पर्याप्त संचित राशि का भुगतान करने का भार उठाना पड़ता है। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि सरकारी इकाई या सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम होने से किरायेदार को कोई विशेष प्रतिफल या अतिरिक्त उपचार का अधिकार नहीं मिलता है, तथा ऐसी संस्थाएँ विधिक कार्यवाही में निजी किरायेदारों के बराबर स्तर पर खड़ी होती हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि हालाँकि मुकदमेबाजी में विलंब के लिये कभी-कभी पक्षकार स्वयं उत्तरदायी होते हैं, लेकिन न्यायिक मंच भी विवादों के लंबे समाधान के लिये उत्तरदायी होते हैं तथा विधि एवं न्याय के लिये न्यायालय यह सुनिश्चित करने के लिये बाध्य हैं कि प्रणालीगत विलंब के कारण किसी भी पक्ष को हानि न हो। 
  • न्यायालय ने माना कि ऐसे विवादों में विलंब से निर्णय लेने से क्षण क्षण हार की स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ मकान मालिक एवं किरायेदार दोनों को इसका परिणाम भुगतना पड़ता है - मकान मालिक संपत्ति के अधिकारों एवं मौद्रिक बकाया से वंचित होकर और किरायेदार संचित वित्तीय दायित्वों के माध्यम से। 
  • न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को संबंधित न्यायालयों में मकान मालिक-किरायेदार विवादों में लंबित अवधि की जाँच करने तथा यदि अत्यधिक विलंब के समान मामलों की पहचान की जाती है तो शीघ्र निपटान के लिये उचित निर्देश जारी करने का निर्देश दिया।

उल्लिखित विधिक प्रावधान क्या हैं?

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश XX नियम 12 - कब्जे और अंतःकालीन लाभ के लिये डिक्री

  • उप-नियम (1) अचल संपत्ति के कब्जे और किराए या अंतःकालीन लाभ की वसूली के लिये वाद में न्यायालयों को विवाद के कई पहलुओं को शामिल करते हुए व्यापक डिक्री पारित करने का अधिकार देता है।
  • खण्ड (a) न्यायालयों को संपत्ति के कब्जे का आदेश देने की अनुमति देता है, जिससे बेदखली की कार्यवाही में मांगी गई प्राथमिक अनुतोष स्थापित होती है।
  • खण्ड (b) न्यायालयों को वाद की शुरूआत से पहले अर्जित किराए के भुगतान का आदेश देने या वाद से पहले के मौद्रिक दावों को शामिल करते हुए ऐसे किराए की जाँच करने का निर्देश देने में सक्षम बनाता है।
  • खण्ड (b) विशेष रूप से अंतःकालीन लाभ को संबोधित करता है, जिससे न्यायालयों को अनधिकृत कब्जे के लिये मुआवजे का निर्धारण करने के लिये निश्चित राशि का आदेश देने या जाँच कार्यवाही करने का निर्देश देने की अनुमति मिलती है।
  • खंड (c) में तीन निर्दिष्ट घटनाओं में से एक होने तक वाद संस्था से किराए या अंतःकालीन लाभ के विषय में निरंतर जाँच का प्रावधान है - डिक्री-धारक को कब्जे की डिलीवरी, न्यायालय के नोटिस के साथ निर्णय-ऋणी द्वारा त्याग, या डिक्री की तिथि से तीन वर्ष का समापन। 
  • उप-नियम (2) में यह अनिवार्य किया गया है कि जहाँ खंड (b) या (c) के अंतर्गत जाँच का निर्देश दिया जाता है, किराए या अंतःस्थायी लाभ के विषय में अंतिम डिक्री जाँच के परिणामों के आधार पर पारित की जानी चाहिये, जिससे मौद्रिक दावों का व्यापक समाधान सुनिश्चित हो सके।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 227 - उच्च न्यायालय द्वारा न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति

  • खंड (1) प्रत्येक उच्च न्यायालय को उसकी क्षेत्रीय अधिकारिता के अंदर सभी न्यायालयों और अधिकरणों पर अधीक्षण प्राधिकार प्रदान करता है, जिससे पदानुक्रमिक न्यायिक निरीक्षण स्थापित होता है। 
  • खंड (2) (a) उच्च न्यायालयों को अधीनस्थ न्यायालयों से रिटर्न मांगने का अधिकार देता है, जिससे न्यायिक प्रशासन और केस प्रबंधन की निगरानी संभव हो पाती है। 
  • खंड (2) (b) उच्च न्यायालयों को न्यायिक प्रक्रियाओं में एकरूपता सुनिश्चित करते हुए अधीनस्थ न्यायालयों में विधिक व्यवसाय और कार्यवाही को विनियमित करने के लिये सामान्य नियम बनाने और प्रपत्र निर्धारित करने का अधिकार देता है। 
  • खंड (2) (c) उच्च न्यायालयों को प्रशासनिक प्रक्रियाओं को मानकीकृत करते हुए न्यायालय अधिकारियों द्वारा पुस्तकों, प्रविष्टियों और खातों को बनाए रखने के लिये प्रारूप निर्धारित करने की अनुमति देता है।
  • खंड (3) उच्च न्यायालयों को पुलिस, क्लर्क, अधिकारियों, अधिवक्ताओं एवं प्लीडरों के लिये शुल्क तालिका तय करने की अनुमति देता है, जो मौजूदा विधानों और राज्यपाल की स्वीकृति के अनुरूप है। 
  • खंड (4) विशेष रूप से सशस्त्र सेना न्यायालयों और अधिकरणों को उच्च न्यायालय के अधीक्षण से बाहर रखता है, सैन्य न्याय प्रणाली के स्वायत्त चरित्र को मान्यता देता है।

निर्णयज विधियों के उदाहरण:

  • बिजय कुमार मनीष कुमार (HUF) बनाम अश्विन भानुलाल देसाई, (2024) इस उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर मकान मालिक-किराएदार विवादों में अंतःकालीन लाभ के भुगतान को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों के लिये व्यापक रूप से विश्वास किया गया था। 
  • आचल मिश्रा बनाम राम शंकर सिंह, (2005) इस पूर्वनिर्णय ने स्थापित किया कि किरायेदार उस तिथि से अंतःकालीन लाभ के बराबर किराया देने के लिये उत्तरदायी हैं, जिस दिन से वे कब्ज़ा बनाए रखने के अधिकारी नहीं रह जाते हैं, तथा इस तरह के अधिकार को मानक किराए से नहीं जोड़ा जा सकता है। 
  • आचल मिश्रा (2) बनाम राम शंकर सिंह, (2006) - इस बाद के निर्णय ने अनधिकृत कब्जे के लिये अंतःकालीन लाभ देयता के विषय में विधिक स्थिति को दोहराया। 

आत्मा राम प्रॉपर्टीज (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम फेडरल मोटर्स (प्राइवेट) लिमिटेड, (2005) इस मामले को इस सिद्धांत का समर्थन करने के लिये संदर्भित किया गया था कि जब किरायेदारों के पास कब्ज़ा करने का विधिक अधिकार नहीं रह जाता है, तो मकान मालिकों का अंतःकालीन लाभ का अधिकार मानक किराए की दरों तक सीमित नहीं है।


सिविल कानून

ट्रांसजेंडर माता-पिता

 05-Jun-2025

"यद्यपि उपर्युक्त उल्लिखित विधिक प्रावधानों के माध्यम से ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को वैधानिक मान्यता प्रदान की जा चुकी है, तथापि संपूर्ण समाज द्वारा उक्त वास्तविकता को स्वीकार किया जाना अभी शेष है, तथा यह एक समय-साध्य मामला है।" 

न्यायमूर्ति ज़ियाद रहमान ए.ए. 

स्रोत:केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति जियाद रहमान ए.. की पीठ ने निर्णय दिया कि जन्म प्रमाण पत्र में पिता और माता के नाम के लिये निर्धारित कॉलम को हटाकर तथा याचिकाकर्त्ताओं के लिंग का उल्लेख किये बिना, माता-पिता के रूप में उनके नाम को सम्मिलित करके संशोधन के साथ जारी किया जाना चाहिये 

ज़हाद एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?  

  • रिट याचिका में ट्रांसजेंडर माता-पिता के अधिकारों और उनके बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र पर दर्ज लिंग पहचान की जानकारी के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया है।  
  • प्रथम याचिकाकर्त्ता का जन्म महिला के रूप में हुआ था, किंतु बाद में उसकी पहचान पुरुष के रूप में हुई और उसने लिंग परिवर्तन को दर्शाते हुए ट्रांसजेंडर पहचान पत्र और आधार कार्ड प्राप्त कर लिया। 
  • दूसरा याचिकाकर्त्ता पुरुष के रूप में पैदा हुआ था, किंतु बाद में उसकी पहचान महिला के रूप में हुई और उसने लिंग परिवर्तन को दर्शाते हुए ट्रांसजेंडर पहचान पत्र और आधार कार्ड भी प्राप्त कर लिया। 
  • प्रथम याचिकाकर्त्ता, जो एक ट्रांस-मैन (trans-man) है, ने 08.02.2023 को मेडिकल कॉलेज अस्पताल, कोझीकोड में एक बच्चे को जन्म दिया। 
  • बच्चे का जन्म कोझिकोड निगम में पंजीकृत किया गया था, तथा जन्म प्रमाण पत्र में प्रथम याचिकाकर्त्ता को माता तथा दूसरे याचिकाकर्त्ता को पिता के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। 
  • याचिकाकर्त्ताओं को चिंता है कि जन्म प्रमाण पत्र में उनकी वर्तमान लिंग पहचान को गलत तरीके से दर्शाया गया है और इससे भविष्य में उनके बच्चे को शिक्षा या रोजगार जैसे क्षेत्रों में समस्या हो सकती है। 
  • उन्होंने कोझिकोड निगम से अनुरोध किया कि वह एक नया जन्म प्रमाणपत्र जारी करे, जिसमें माता-पिता दोनों को केवल "माता-पिता" के रूप में दर्शाया जाए, तथा लिंग का उल्लेख न किया जाए। 
  • निगम ने अनुरोध को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 और केरल नियम, 1999 के अधीन, प्रमाण पत्र के लिये फॉर्म 5 का पालन करना होगा, जिसमें "माता" और "पिता" के लिये कॉलम अनिवार्य रूप से सम्मिलित हैं 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर मांग की थी कि प्रारूप 1, 3, 5, एवं 7 एवं संबंधित नियमों की ऐसी व्याख्या की जाए जिससे जन्म प्रमाण पत्रों पर नाम तथा लिंग पहचान में परिवर्तन की अनुमति प्रदान की जा सके 
  • प्रत्यर्थी 2 और 3 ने तर्क दिया कि याचिकाकर्त्ता ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम के अधीन संरक्षण का दावा नहीं कर सकते क्योंकि बालक ट्रांसजेंडर नहीं है। 
  • प्रत्यर्थी 5 और 6 ने कहा कि वे विद्यमान विधिक ढाँचे से आबद्ध हैं और विहित प्रारूप के अतिरिक्त किसी अन्य प्रारूप में प्रमाण पत्र जारी नहीं कर सकते। 
  • मुख्य विधिक प्रश्न यह है कि जन्म पंजीकरण की वैधानिक रूपरेखा तथा ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 (Transgender Persons Act) के अंतर्गत स्व-पहचानी गई लिंग पहचान को प्राप्त सांविधानिक एवं सांविधिक मान्यता के मध्य अंतर्विरोध विद्यमान है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • प्रत्यर्थियों ने इस आधार पर अनुतोष का विरोध किया कि जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 और केरल नियम, 1999 के अधीन विद्यमान विधिक ढाँचे में जन्म प्रमाण पत्र में "पिता" और "माता" का उल्लेख अनिवार्य है। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि उन्हें माता और पिता के रूप में अभिलिखित करना उनकी विधिक रूप से मान्यता प्राप्त लिंग पहचान के विपरीत है और इससे भविष्य में उनके बच्चे के प्रति प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न हो सकता है। 
  • न्यायालय ने स्वीकार किया कि याचिकाकर्त्ताओं द्वारा उठाई गई आशंकाएं वास्तविक हैं और उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, विशेषकर इसलिये क्योंकि उनकी वर्तमान लिंग पहचान को ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के अधीन विधिक मान्यता प्राप्त है। 
  • न्यायालय ने कहा कि बच्चे की पहचान स्वाभाविक रूप से उसके माता-पिता से जुड़ी होती है, और यद्यपि बच्चा ट्रांसजेंडर व्यक्ति नहीं है, फिर भी ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम के अधीन संरक्षण इस मामले में प्रासंगिक है। 
  • न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि विधि को समाज के साथ विकसित होना चाहिये, और चूंकि 1969 का अधिनियम द्विलिंगी (Binary Gender) संरचना के अधीन अधिनियमित किया गया था, अतः उसने ट्रांसजेंडर मातृत्व/पितृत्व से उत्पन्न होने वाले उन जटिल प्रश्नों की कल्पना नहीं की थी, जिन्हें अब राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) निर्णय एवं 2019 के अधिनियम के पश्चात् विधिक मान्यता प्राप्त हो चुकी है। 
  • न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि यद्यपि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को सांविधानिक  तथा सांविधिक  मान्यता प्रदान की जा चुकी है, तथापि जन्म और मृत्यु का रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 एवं उसके अधीन निर्मित नियमों में अब तक ऐसे परिवर्तनों को प्रतिबिंबित करने हेतु कोई उपयुक्त संशोधन नहीं किया गया है 
  • न्यायालय ने "सामाजिक संदर्भ में न्यायनिर्णयन" (Social Context Adjudication) सिद्धांत का सहारा लेते हुए यह स्पष्ट किया कि विधि का ऐसा निर्वचन किया जाना चाहिये जो सामाजिक न्याय को बढ़ावा दे तथा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करे 
  • न्यायालय ने कहा कि चूंकि यह मामला जन्म प्रमाण पत्र जारी करने का व्यक्तिगत विवाद्यक है और यह किसी तीसरे पक्षकार या संस्था को प्रभावित नहीं करता है, इसलिये विधि का कठोर तकनीकी निर्वचन अनुचित है। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जन्म रिकॉर्ड बनाए रखने का उद्देश्य सटीक और आवश्यक पहचान दस्तावेज़ों को संरक्षित करना है, न कि पुराने लिंग वर्गीकरण को लागू करना। 
  • न्यायालय ने पाया कि बालक के जन्म प्रमाण पत्र पर दोनों याचिकाकर्त्ताओं को केवल "माता-पिता" के रूप में दर्ज करने से अधिनियम का उद्देश्य नष्ट नहीं होगा तथा यह न्याय के हित में एक आवश्यक संशोधन है। 
  • न्यायालय ने कोझिकोड निगम को निदेश दिया कि वह फॉर्म 5 में नया जन्म प्रमाण पत्र जारी करे, जिसमें "पिता" और "माता" कॉलम के स्थान पर एक कॉलम हो, जिसमें दोनों याचिकाकर्त्ताओं को "माता-पिता" के रूप में सूचीबद्ध किया जाए, तथा लिंग का उल्लेख न किया जाए। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह संशोधन केवल जन्म प्रमाण पत्र पर लागू होगा, न कि आधिकारिक रजिस्टर प्रविष्टियों पर, जिनमें परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। 

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार क्या हैं? 

  • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (National Legal Services Authority (NALSA)) बनाम भारत संघ (2014) मामलेमें उच्चतम न्यायालय नेसंविधान के अधीन हिजड़ों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को “तीसरे लिंग” के रूप में मान्यता दी। 
    • न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के स्वयं को पुरुष, महिला या तीसरे लिंग के रूप में पहचानने के अधिकार को बरकरार रखा।  
    • न्यायालय ने सरकारों को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये विधिक मान्यता, आरक्षण, स्वास्थ्य देखभाल, लोक सुविधाएं और सामाजिक कल्याण योजनाएं प्रदान करने का निदेश दिया। 
    • निर्णय में इस बात पर बल दिया गया कि लिंग पहचान के लिये सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी (sex reassignment surgery (SRS)) पर बल देना अवैध और अनैतिक है।  
    • न्यायालय ने कलंक को कम करने के लिये जागरूकता अभियान चलाने तथा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार सुनिश्चित करने का आग्रह किया। 
    • इसके पश्चात्, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ भेदभाव को रोकने और उनके अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 लागू किया गया। 

 इस मामले में कौन से ऐतिहासिक निर्णय चर्चित हुए? 

  • दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण और अन्य (2013) 
    • माता, पिता और बच्चों वाली एक निश्चित इकाई के रूप में परिवार की पारंपरिक धारणा पुरानी और संकीर्ण हो चुकी है। 
    • मृत्यु, तलाक, पृथक्करण, पुनर्विवाह, दत्तक या पालन-पोषण जैसी परिस्थितियों के कारण पारिवारिक संरचनाओं में परिवर्तन संभव है 
    • पारिवारिक संरचना में एकल अभिभावक, घरेलू साझेदारी और समलैंगिक रिश्ते सम्मिलित हो सकते हैं। 
    • ये गैर-पारंपरिक परिवार भी पारंपरिक परिवारों की तरह ही वास्तविक और वैध हैं। 
    • विधि को सभी प्रकार के परिवारों को सामाजिक कल्याण लाभों का संरक्षण और विस्तार प्रदान करना चाहिये, न कि केवल पारंपरिक परिवारों को। 
    • जो महिलाएं अपरंपरागत तरीकों से मातृत्व को अपनाती हैं, उन्हें भी समान विधिक मान्यता और समर्थन की हकदार हैं 
  • .बी.सी. बनाम राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) (2015) 
    • उच्चतम न्यायालय ने एकल अभिभावक द्वारा अपने बच्चे के लिये पिता का नाम सम्मिलित किये बिना जन्म प्रमाण पत्र प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों को स्वीकार किया। 
    • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि जन्म प्रमाण पत्र के अभाव में भविष्य में बच्चे को गंभीर समस्या हो सकती है। 
    • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि न्यायालय पहले ही यह निर्णय दे चुके हैं कि स्कूल में प्रवेश या पासपोर्ट प्राप्त करने के लिये पिता का नाम अनिवार्य नहीं है, फिर भी ऐसे मामलों में अक्सर जन्म प्रमाण पत्र की आवश्यकता होती है। 
    • न्यायालय ने कहा कि विधि को परिवर्तित सामाजिक वास्तविकताओं के साथ विकसित होना चाहिये तथा तदनुसार नई विधिक चुनौतियों का समाधान करना चाहिये 
    • माता की पहचान पर कभी प्रश्न नहीं उठता, इसलिये जन्म प्रमाण-पत्र जारी करने के लिये एकल या अविवाहित माता से केवल शपथ-पत्र लेना ही पर्याप्त होना चाहिये 
    • प्राधिकारियों को ऐसे शपथपत्रों के आधार पर जन्म प्रमाण पत्र जारी करना होगा, जब तक कि न्यायालय ने इसके विपरीत आदेश जारी न कर दिया हो। 
    • न्यायालय ने दोहराया कि यह सुनिश्चित करना राज्य का उत्तरदायित्त्व है कि माता-पिता द्वारा जन्म का रजिस्ट्रीकरण न कराने के कारण किसी भी नागरिक को कठिनाई का सामना न करना पड़े। 
    • यह निर्णय व्यापक रूप से लागू होता है तथा केवल वर्तमान मामले के तथ्यों या पक्षकारों तक ही सीमित नहीं है।