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आपराधिक कानून
रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में विलंब
23-Sep-2025
किम्ति लाल उर्फ़ किम्ति लाल भगत बनाम पंजाब राज्य और अन्य "यद्यपि यह निर्विवाद है कि विधायिका ने अपने विवेक से चालान/अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये अनिवार्य समय सीमा विहित करने से साशय परहेज किया है - इस प्रकार अन्वेषण अभिकरण को विवेकाधिकार की अनुमति दी है - यह विवेकाधिकार न तो पूर्ण है और न ही निरंकुश है।" न्यायमूर्ति सुमीत गोयल |
स्रोत: पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति सुमीत गोयल ने 2007 के एक आपराधिक मामले में रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में 15 वर्ष के विलंब के लिये पंजाब पुलिस की खिंचाई की और इसे "अत्यधिक और अनुचित" करार दिया। न्यायालय ने पंजाब सरकार पर ₹1 लाख का जुर्माना अधिरोपित किया और बल देते हुए कहा कि इस तरह की निष्क्रियता विधि के शासन को कमज़ोर करती है और न्याय में जनता का विश्वास कम करती है।
- पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने सतेन्द्र कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
किम्ति लाल उर्फ़ किम्ति लाल भगत बनाम पंजाब राज्य और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- किम्ति लाल उर्फ किम्ति लाल भगत ने चंडीगढ़ में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 528 के अधीन CRM-M- 43052-2025 दायर किया, जिस पर माननीय न्यायमूर्ति सुमित गोयल ने 22 सितंबर 2025 को निर्णय सुनाया।
- याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध पुलिस स्टेशन डिवीजन नंबर 6, जालंधर में दिनांक 09 अगस्त 2007 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 281 दर्ज की गई थी, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 (स्वेच्छया उपहति कारित करने के लिये दण्ड), 341 (सदोष अवरोध के लिये दण्ड), 506 (आपराधिक अभित्रास के लिये दण्ड) और 34 (सामान्य आशय से कई व्यक्तियों द्वारा किये गए कृत्य) के अधीन मामला दर्ज किया गया था।
- प्रतिद्वंद्वी निजी पक्षकारों के बीच गलतफहमी को परिवार के बुजुर्गों और इलाके के सम्मानित व्यक्तियों के हस्तक्षेप से 2007 में ही सुलझा लिया गया था, और प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) परिवादकर्त्ता ने संबंधित पुलिस थाने में इस समझौते के बारे में एक शपथपत्र प्रस्तुत किया था।
- अन्वेषण अभिकरण ने पक्षकारों के बीच समझौते के बाद वर्ष 2007/2009 में एक निरस्तीकरण रिपोर्ट तैयार की, जिसमें स्वीकार किया गया कि आपराधिक विवाद सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया था।
- 2007/2009 में निरस्तीकरण रिपोर्ट तैयार होते हुए भी, उसे लगभग 18 वर्षों तक सक्षम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे याचिकाकर्त्ता को लंबे समय तक विधिक अनिश्चितता और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा।
- याचिकाकर्त्ता ने जालंधर के पुलिस आयुक्त सहित संबंधित पुलिस अधिकारियों को निरस्तीकरण रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये विभिन्न अभ्यावेदन दिये, किंतु संबंधित अधिकारियों से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया या कार्रवाई नहीं मिली।
- पंजाब राज्य ने पुलिस महानिदेशक के माध्यम से इस चूक को स्वीकार किया तथा जवाब दाखिल किया, जिसमें कहा गया कि प्रमुख अन्वेषण अधिकारी 4 वर्ष से अधिक समय पहले सेवानिवृत्त हो चुके थे, सेवानिवृत्त अधिकारियों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई के लिये विधिक बाधाएँ विद्यमान थीं, तथा तत्कालीन पर्यवेक्षण अधिकारी को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था।
- पुलिस महानिदेशक (DGP) पंजाब ने 15 सितंबर 2025 को परिपत्र संख्या 30/2025 जारी किया, जिसमें रद्दीकरण रिपोर्टों को समय पर प्रस्तुत करने और अनुवर्ती कार्रवाई, केस फाइलों की उचित ट्रैकिंग और भविष्य में इसी तरह की घटनाओं को रोकने के लिये पुलिस थानों और न्यायालयों के बीच समन्वय सुनिश्चित करने के लिये सुधारात्मक उपायों को लागू किया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि अभियोजन आरंभ करने और उसे आगे बढ़ाने का अधिकार राज्य की संप्रभु शक्ति का एक अंतर्निहित और अविभाज्य तत्त्व है, तथा इस बात पर बल दिया कि यह शक्ति मात्र एक विशेषाधिकार नहीं है, अपितु एक गंभीर लोक विश्वास है, जिसका प्रयोग विधि के शासन के आधारभूत सिद्धांतों को बनाए रखने के लिएव अत्यंत तत्परता और पारदर्शिता के साथ किया जाना चाहिये।
- न्यायमूर्ति सुमित गोयल ने कहा कि यद्यपि विधायिका ने अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये अनिवार्य समय-सीमा विहित करने से साशय परहेज किया है, जिससे अन्वेषण अभिकरणों को विवेकाधिकार की अनुमति मिल गई है, परंतु ऐसा विवेकाधिकार न तो पूर्ण है और न ही निरंकुश है, तथा इसमें तर्कसंगतता पर आधारित तथा न्याय के उद्देश्यों की ओर निदेशित तर्कसंगत और परिश्रमपूर्ण अभ्यास की आवश्यकता है।
- न्यायालय ने लॉर्ड हेल्सबरी के स्थापित सिद्धांत का हवाला दिया कि विवेक का अर्थ है कि कोई कार्य तर्क और न्याय के नियमों के अनुसार किया जाए, न कि निजी राय के अनुसार, विधि के अनुसार किया जाए, न कि मनमाने ढंग से, न कि अस्पष्ट या काल्पनिक, अपितु विधिक और नियमित रूप से किया जाए, जिसका प्रयोग उन सीमाओं के भीतर किया जाए, जिनके भीतर एक ईमानदार व्यक्ति को अपने पद का निर्वहन करने के लिये स्वयं को सीमित रखना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि जब अभियोजन पक्ष का विवेकाधिकार 15 वर्षों तक चलने वाले अनुचित और अत्यधिक विलंब में परिवर्तित हो जाता है, तो यह विधि के शासन के विपरीत होता है, तथा विवेक का प्रयोग न करना या तत्परता का अभाव, प्रभावी रूप से सांविधिक और सांविधानिक कर्त्तव्य का परित्याग करने के समान होता है, तथा प्रक्रियागत लचीलेपन को मनमानी के साधन में परिवर्तित कर देता है।
- न्यायमूर्ति सुमित गोयल ने इस मामले को उचित तत्परता के अभाव का एक अप्रिय दृष्टांत बताया, जो एक उदासीन दृष्टिकोण को दर्शाता है, उन्होंने संबंधित पुलिस अधिकारियों के आचरण को शिथिल और उदासीन पाया, जिससे न्यायालय को लंबे समय से चली आ रही आधिकारिक सुस्ती और समय पर और कर्तव्यनिष्ठ तरीके से गंभीर उत्तरदायित्त्वों का निर्वहन करने की स्पष्ट अनिच्छा की निंदा करने के लिये बाध्य होना पड़ा।
- न्यायालय ने कहा कि इस तरह के सुस्त आचरण पर तभी अंकुश लगाया जा सकता है, जब पूरे तंत्र में न्यायालय एक संस्थागत दृष्टिकोण अपनाएँ, जो इस तरह के आचरण को दण्डित करे, तथा जुर्माना अधिरोपित करने को एक आवश्यक साधन के रूप में पहचाने, जिससे बेईमान आचरण को समाप्त किया जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य के अधिकारी अपेक्षित तत्परता के साथ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करें।
- न्यायालय ने कहा कि पंजाब के पुलिस महानिदेशक ने संबंधित दोषी अधिकारियों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्रवाई शुरू की है और 2025 के परिपत्र संख्या 30 के माध्यम से सुधारात्मक उपाय लागू किये हैं। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि ऐसे परिपत्रों का ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिये और उन्हें केवल औपचारिकता या कागजी निदेश बनकर रह जाने के बजाय सही अर्थों में लागू किया जाना चाहिये।
- न्यायमूर्ति सुमीत गोयल ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन के अपने संप्रभु घटक का निर्वहन करते समय, राज्य और उसके तंत्रों को तत्परता और सावधानीपूर्वक परिश्रम के साथ कार्य करना चाहिये, तथा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय विलंब और अन्याय का साधन न बनें, विशेषकर तब जब प्रशासनिक निष्क्रियता लगभग दो दशकों तक जारी रहे और आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रभावकारिता और निष्पक्षता में जनता के विश्वास को कमजोर करे।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 क्या है?
- अन्वेषण समाप्त होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट
- उपधारा (1): अन्वेषण अनावश्यक विलंब के बिना पूर्ण किया जाएगा। उपधारा (3)(i): अधिकारी अन्वेषण पूर्ण होते ही मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजेगा।
- रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में विलंब
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193(1) "अनावश्यक विलंब के बिना" अन्वषण समाप्त करने का आदेश देती है, जिससे समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना सांविधिक कर्त्तव्य बनता है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193(3)(i) के अनुसार, "अन्वेषण पूर्ण होते ही" मजिस्ट्रेट को अग्रेषित करना आवश्यक है, जिससे प्रशासनिक विलंब पर रोक लगती है।
- रद्दीकरण रिपोर्ट दाखिल करने में 15 वर्ष का विलंब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के अधीन शीघ्र निपटारे के मूल अधिदेश का उल्लंघन है।
- इस तरह का दीर्घ विलंब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के अनिश्चितकालीन लंबित मामलों को रोकने के विधायी आशय को निष्प्रभावी कर देता है।
- रिपोर्ट तैयार होने होते हुए भी 15 वर्षों तक रिपोर्ट दाखिल न करना भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के सांविधानिक कर्त्तव्य ढाँचे का उल्लंघन है।
- प्रशासनिक निष्क्रियता भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को विधिक उत्पीड़न के साधनों में परिवर्तित कर देती है।
- न्यायिक हस्तक्षेप भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 के अनुपालन को लागू करता है, जो प्रणालीगत पुलिस प्रशासन की विफलताओं को उजागर करता है।
- लागत अधिरोपण भविष्य में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 193 समयसीमा के उल्लंघन को रोकने के न्यायिक दृढ़ संकल्प को दर्शाता है।
आपराधिक कानून
समकालिक प्रकटीकरण कथनों की कठोरता से जांच की आवश्यकता है
23-Sep-2025
नागम्मा उर्फ़ नागरत्ना एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य "निस्संदेह, यह मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्य का है, जिसे तभी साबित माना जाता है जब परिस्थितियों की एक पूरी श्रृंखला हो, जिसमें ठोस और विश्वसनीय सामग्री सम्मिलित हो, जो एक अटूट कड़ी प्रदान करती हो, जो केवल अभियुक्त के दोषसिद्धि की ओर ले जाती हो।" न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की उच्चतम न्यायालय की पीठ ने नागम्मा उर्फ़ नागरत्ना एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2025) मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के साथ धारा 302 के अधीन हत्या के लिये दोषी ठहराए गए तीन अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया, जिसमें भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 27 के अधीन परिस्थितिजन्य साक्ष्य और बरामदगी को नियंत्रित करने वाले महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया।
नागम्मा बनाम कर्नाटक राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला दो पुलिसकर्मियों के बीच कथित ऋण विवाद से उत्पन्न एक क्रूर हत्या से संबंधित था।
मामले के तथ्य:
- A1 (पुलिसकर्मी) ने कथित तौर पर मृतक (जो स्वयं भी पुलिसकर्मी था) से 1 लाख रुपए का ऋण लिया था।
- मृतक निरंतर ऋण चुकाने की मांग कर रहा था।
- A2 (A1 की पत्नी) ने कथित तौर पर मृतक को 10.03.2006 को कर्ज चुकाने के बहाने अपने घर बुलाया।
- 11.03.2006 को लगभग 2 बजे, पीड़ित को कथित तौर पर मिर्च पाउडर फेंककर स्थिर कर दिया गया और चाकू से काटकर उसकी हत्या कर दी गई।
- सूर्योदय के पश्चात् A2 पुलिस थाने गया और अपना अपराध संस्वीकृत कर लिया।
- अभियोजन पक्ष ने अभिकथित किया कि A3 और A4 (A1 के भाई और बहनोई) ने हत्या में सहायता की।
विचारण न्यायालय की कार्यवाही:
- अभियोजन पक्ष ने 24 साक्षियों की परीक्षा की तथा 33 दस्तावेज़ों और 16 भौतिक वस्तुओं को चिन्हित किया।
- A1 को पूर्णतया सही सबूत (दूसरे पुलिस थाने में रात्रि ड्यूटी) के कारण दोषमुक्त कर दिया गया।
- A2 से A4 को धारा 302 सहपठित धारा 34 भारतीय दण्ड संहिता के अधीन दोषसिद्ध ठहराया गया और आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया।
- उच्च न्यायालय ने अपील में दोषसिद्धि की पुष्टि की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य को ठोस और विश्वसनीय सामग्री के साथ परिस्थितियों की एक पूरी श्रृंखला बनानी चाहिये, जो एक अटूट कड़ी प्रदान करे जो केवल अभियुक्त के अपराध की ओर ले जाए।
- प्रमुख सिद्धांत:
- अपराध को छोड़कर हर उचित परिकल्पना को बाहर रखा जाना चाहिये।
- प्रत्येक परिस्थिति को युक्तियुक्त संदेह से परे साबित किया जाना चाहिये।
- परिस्थितियों की श्रृंखला पूर्ण एवं अटूट होनी चाहिये।
न्यायेतर संस्वीकृति पर:
महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष:
- सभी कथित न्यायेतर संस्वीकृति पुलिस थाने के भीतर की गई थीं और साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 के अधीन अग्राह्य थीं।
न्यायालय का तर्क:
- धारा 25 के अधीन पुलिस अधिकारियों (PW-15, PW-17) के समक्ष संस्वीकृति वर्जित है।
- धारा 26 के अधीन मजिस्ट्रेट की उपस्थिति के बिना पुलिस अभिरक्षा में की गई संस्वीकृति पर रोक है।
- पुलिस थाने के भीतर स्थित होने के कारण सभी संस्वीकृति संदिग्ध हो गईं।
धारा 27 बरामदगी पर:
- न्यायालय ने कहा कि धारा 27 के अधीन बरामदगी में न केवल भौतिक वस्तु सम्मिलित है, अपितु छिपाने का स्थान और ज्ञान भी सम्मिलित है, जिसे स्पष्ट रूप से स्थापित किया जाना चाहिये।
अंतिम निर्णय:
दोषमुक्त करने का आदेश: न्यायालय ने दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया और सभी अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया, यह कहते हुए:
- हेतु स्थापित नहीं हुआ - मुख्य साक्षी अविश्वसनीय एवं विरोधाभासी।
- अभियुक्त के घर पर शव की उपस्थिति संदिग्ध – साक्षी अपने कथन से पक्षद्रोही गए या विरोधाभासी कथन दिये।
- न्यायेतर संस्वीकृति अग्राह्य- पुलिस थाने परिसर के भीतर की गई सभी संस्वीकृति।
- धारा 27 बरामदगी अविश्वसनीय - समकालिक प्रकटीकरण, पक्षद्रोही साक्षी, कोई फोरेंसिक लिंक नहीं।
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य अपूर्ण - केवल अपराध की ओर संकेत करने वाली अटूट श्रृंखला बनाने में असफल।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 क्या है?
बारे में:
- यह धारा इस बात से संबंधित है कि अभियुक्त से प्राप्त कितनी जानकारी को साबित किया जा सकता है।
- इसमें कहा गया है कि परंतु जब किसी तथ्य के बारे में यह अभिसाक्ष्य दिया जाता है कि किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से, जो पुलिस आफिसर की अभिरक्षा में हो, प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप उसका पता चला है, तब ऐसी जानकारी में से, उतनी चाहे वह संस्वीकृति की कोटि में आती हो या नहीं, जितनी एतद्वारा पता चले हुए तथ्य में स्पष्टतया संबंधित है, साबित की जा सकेगी।
- धारा 27, भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 के परंतुक के रूप में कार्य करती है, तथा इस सामान्य नियम के लिये एक विशिष्ट अपवाद निर्मित करती है कि अभिरक्षा में रहते हुए पुलिस अधिकारियों के समक्ष की गई संस्वीकृति साक्ष्य के रूप में अग्राह्य हैं।
- यह धारा पश्चात्वर्ती घटनाओं द्वारा पुष्टि के सिद्धांत पर आधारित है - दी गई जानकारी के परिणामस्वरूप वास्तव में एक तथ्य की खोज होती है, जिसके परिणामस्वरूप एक भौतिक वस्तु की प्राप्ति होती है।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) में उपबंध:
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) में इस धारा को धारा 23 के उपबंध के रूप में सम्मिलित किया गया है।
उद्देश्य:
- यह धारा दोहरा उद्देश्य पूरा करती है:
- यह पुलिस के कदाचार के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करती है, क्योंकि इसमें संस्वीकृति की तथ्यात्मक पुष्टि की आवश्यकता होती है, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि मूल्यवान साक्ष्य को केवल इसलिये खारिज न किया जाए क्योंकि वह अभिरक्षा में अभियुक्त द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के माध्यम से प्राप्त किया गया था।
निर्णय विधि:
- दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र राज्य बनाम नवजोत संधू उर्फ अफसान गुरु (2005) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अर्थ में खोजा गया तथ्य कुछ ठोस तथ्य होना चाहिये जिससे वह जानकारी प्रत्यक्षत: संबंधित हो।
- राजेश एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि औपचारिक आरोप और औपचारिक पुलिस अभिरक्षा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अधीन आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ हैं।
सिविल कानून
द्वितीय पत्नी को पेंशन
23-Sep-2025
महेश राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य "यह सच है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के अनुसार, याचिकाकर्त्ता का सुश्री कमलेश देवी के साथ अपने प्रथम विवाह के दौरान सुश्री ज्वाला देवी अर्थात् द्वितीय पत्नी के साथ विवाह अवैध कहा जा सकता है, लेकिन मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों में... प्रत्यर्थियों को याचिकाकर्त्ता के मामले को नामंजूर नहीं करना चाहिये था।" न्यायमूर्ति संदीप शर्मा |
स्रोत: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संदीप शर्मा ने एक निर्णय दिया है कि एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी की द्वितीय पत्नी को पेंशन लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता, भले ही वह विवाह हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन तकनीकी रूप से अमान्य हो। न्यायालय ने श्रीरामबाई बनाम कैप्टन रिकॉर्ड ऑफिसर मामले में उच्चतम न्यायालय के 2023 के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें वैध विवाह की उपधारणा के रूप में लंबे समय तक सहवास पर बल दिया गया था।
- हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने महेश राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
महेश राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- महेश राम को 1973 में सरकारी विभाग में नियमित आधार पर बढ़ई/फोरमैन के पद पर नियुक्त किया गया था।
- उन्होंने 1994 में श्री घौंडलू राम की पुत्री सुश्री कमलेश देवी से विवाह किया।
- उनके विवाह से कोई संतान पैदा नहीं हुई, जिसके कारण सुश्री कमलेश देवी और उनके माता-पिता ने उन पर द्वितीय विवाह करने का दबाव डाला।
- अपनी प्रथम विवाह के दौरान, उन्होंने हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार सुश्री ज्वाला देवी, जो उनकी प्रथम पत्नी की छोटी बहन थीं, के साथ द्वितीय विवाह किया।
- याचिकाकर्त्ता 2003 में सेवानिवृत्त हो गया और PPO No. 62182/HP के अधीन पेंशन लेना शुरू कर दिया।
- उनके पेंशन रिकार्ड में कमलेश देवी का नाम नामांकित व्यक्ति के रूप में दर्ज था।
- उनकी प्रथम पत्नी सुश्री कमलेश देवी का 20 अप्रैल 2020 को निधन हो गया।
- उन्होंने 31 जनवरी 2021 को एक अभ्यावेदन दायर कर सुश्री कमलेश देवी से सुश्री ज्वाला देवी को नामित करने का अनुरोध किया।
- उन्होंने इसी उद्देश्य के लिये 29 अप्रैल 2021 को एक और अभ्यावेदन/अनुस्मारक दिया।
- विभाग ने यह कहते हुए उनके अनुरोध को नामंजूर कर दिया कि द्वितीय पत्नी पारिवारिक पेंशन के लिये पात्र नहीं है।
- याचिकाकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर नामंजूरी आदेश को रद्द करने तथा प्राधिकारियों को उसकी द्वितीय पत्नी का नाम पेंशन रिकॉर्ड में दर्ज करने का निदेश देने की मांग की।
- विभाग ने तर्क दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 के अधीन द्वितीय विवाह अवैध है।
- उन्होंने केंद्रीय सिविल सेवा पेंशन नियम, 1972 के नियम 54 का हवाला दिया, जो प्रथम विवाह के रहते द्वितीय पत्नी से विवाह करने पर उसे पेंशन लाभ से वंचित करता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के अधीन याचिकाकर्त्ता का अपने प्रथम विवाह के दौरान सुश्री ज्वाला देवी के साथ विवाह अवैध माना जा सकता है, परंतु विशेष तथ्यों और परिस्थितियों के कारण अलग से विचार किये जाने की आवश्यकता है।
- न्यायालय ने शिरमाबाई बनाम कैप्टन रिकॉर्ड ऑफिसर (2023) में उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि लंबे समय तक निरंतर सहवास करने से वैध विवाह की उपधारणा बनती है और विधिक रिश्ते को गलत साबित करने की कोशिश करने वालों पर भारी भार पड़ता है।
- न्यायालय ने पाया कि चूँकि याचिकाकर्त्ता और सुश्री ज्वाला देवी के बीच विवाह को लेकर कोई विवाद नहीं था, तथा वे 1994 से साथ रह रहे थे, इसलिये पहले विवाह के रहते हुए द्वितीय विवाह के संबंध में आपत्ति को खारिज किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता के सभी विधिक प्रतिनिधि वयस्क हो चुके हैं और उन्हें नामिती परिवर्तन पर कोई आपत्ति नहीं है, तथा न्यायालय ने सुश्री ज्वाला देवी को विधिक रूप से विवाहित पत्नी के रूप में मान्यता दी, तथा यह निर्धारित किया कि किसी भी पक्षकार को कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा।
- न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं है जो उसकी मृत्यु की स्थिति में पारिवारिक पेंशन का दावा कर सके, जिससे यह एक असाधारण परिस्थिति बन जाती है।
- न्यायालय ने कुसुम लता बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2024) और राधा देवी बनाम मुख्य महाप्रबंधक (2022) सहित सहायक पूर्व निर्णयों का हवाला दिया, जहाँ तुलनीय परिस्थितियों में द्वितीय पत्नियों को भी इसी प्रकार का अनुतोष दिया गया था।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि प्रथम विवाह के अस्तित्व के दौरान द्वितीय विवाह पर प्रतिबंध लगाने के नियमों के बावजूद, लंबे समय तक सहवास, प्रतिस्पर्धी दावेदारों की अनुपस्थिति और परिवार की सम्मति की विशिष्ट परिस्थितियों ने याचिका को अनुमति देने को उचित ठहराया।
- न्यायालय ने सेवा अभिलेखों में सुश्री कमलेश देवी के स्थान पर सुश्री ज्वाला देवी का नाम दर्ज करने का निदेश दिया तथा नामंजूरी आदेश को निरस्त करते हुए प्राधिकारियों को दो मास के भीतर प्रक्रिया शीघ्रता से पूरी करने का आदेश दिया।
संदर्भित विधिक उपबंध क्या हैं?
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5
- किसी भी दो हिंदुओं के बीच विवाह संपन्न हो सकता है, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं:
- (i) विवाह के समय किसी भी पक्षकार का कोई पति/पत्नी जीवित नहीं है।
- (ii) विवाह के समय, न तो कोई भी पक्षकार चित्त विकृति, मानसिक विकार या पागलपन के कारण वैध सम्मति देने में असमर्थ हो।
- (iii) वर ने इक्कीस वर्ष की आयु पूरी कर ली हो तथा वधू ने अठारह वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
- (iv) पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर नहीं हैं।
- (v) पक्षकार एक दूसरे के सपिंड नहीं हैं।
- केंद्रीय सिविल सेवा (CCS) पेंशन नियम, 1972 का नियम 54
- यदि कोई सरकारी कर्मचारी अपने पति/पत्नी के जीवनकाल में द्वितीय विवाह कर लेता है, तो ऐसे सरकारी कर्मचारी द्वारा अर्जित पेंशन और ग्रेच्युटी जब्त कर ली जाएगी।
- यद्यपि, प्राधिकारी आदेश द्वारा जब्त की गई पेंशन और ग्रेच्युटी का पूरा या आंशिक भाग बहाल कर सकते हैं।
- ऐसी पत्नी या पति को कोई पारिवारिक पेंशन देय नहीं होगी जिसका विवाह सरकारी कर्मचारी के साथ उसकी पूर्व पत्नी या पति के जीवनकाल में हुआ हो।
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 142
- (1) उच्चतम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकता है या ऐसा आदेश दे सकता है जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या मामले में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक हो।
- (2) संसद द्वारा बनाए गई किसी विधि या अनुच्छेद 145 के अधीन बनाए गए किसी नियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को किसी व्यक्ति की उपस्थिति सुनिश्चित करने, किसी दस्तावेज़ की खोज या प्रस्तुति, या अपने प्रति किसी अवमानना की जांच या दण्ड देने के प्रयोजन के लिये कोई आदेश देने की शक्ति होगी।
संदर्भित मामले
- शिरमाबाई एवं अन्य बनाम कैप्टन रिकॉर्ड ऑफिसर एवं अन्य (2023) – उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि लंबे समय तक निरंतर सहवास वैध विवाह के पक्ष में एक उपधारणा बनाता है, यद्यपि यह उपधारणा खंडनीय है और रिश्ते को गलत साबित करने की मांग करने वालों पर भारी भार है।
- कुसुम लता बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2024) – उसी उच्च न्यायालय की एक समन्वय पीठ ने द्वितीय पत्नी को पारिवारिक पेंशन प्रदान की, जिसने कर्मचारी के प्रथम विवाह के दौरान विवाह किया था, जहाँ किसी अन्य उत्तराधिकारी ने पेंशन अधिकार का दावा नहीं किया था।
- राधा देवी बनाम मुख्य महाप्रबंधक एवं अन्य, विशेष अनुमति याचिका (2022) – उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए प्रथम विवाह के अस्तित्व के दौरान द्वितीय विवाह करने वाली द्वितीय पत्नी को पारिवारिक पेंशन का संदाय करने का निदेश दिया, जिसमें लंबे समय तक साथ रहने के कारण उसकी पतिव्रता स्थिति को मान्यता दी गई।