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आपराधिक कानून
भारतीय न्याय संहिता की धारा 316 और 318
26-Sep-2025
अरशद नेयाज खान बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य "यह उल्लेख करना उचित है कि यदि परिवादकर्त्ता/प्रत्यर्थी संख्या 2 का मामला यह है कि अभियुक्त द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 405 के अधीन परिभाषित आपराधिक न्यासभंग का अपराध किया गया है, जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406 के अधीन दण्डनीय है, तो उसी सांस में यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ने धारा 415 में परिभाषित छल का अपराध भी किया है, जो भारतीय दण्ड संहिता की की धारा 420 के अधीन दण्डनीय है।" न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने स्पष्ट किया कि छल (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420/ भारतीय न्याय संहिता की धारा 318) एवं आपराधिक न्यासभंग (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 405/ भारतीय न्याय संहिता की धारा 316) को एक ही तथ्यों के आधार पर एक साथ आरोपित नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये दोनों अपराध परस्पर विरोधाभासी हैं। यह निर्णय संपत्ति विक्रय विवाद के संदर्भ में दिया गया, जिसमें न्यायालय ने दोनों अपराधों के लिये एक साथ दायर आपराधिक कार्यवाही को अपास्त कर दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने अरशद नेयाज खान बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।
अरशद नेयाज खान बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- अरशद नेयाज खान Khata No.186, MS Plot No.1322, Sub Plot No.1322/38-A पर स्थित एक संपत्ति के स्वामी थे और उनके पास Sub-Plot No.1322/39-A-1पर स्थित एक निकटवर्ती संपत्ति के लिये पावर ऑफ अटॉर्नी भी थी। जनवरी 2013 में, अतीक आलम नामक एक व्यक्ति ने परिवादकर्त्ता मोहम्मद मुस्तफा से संपर्क किया और उन्हें बताया कि खान की संपत्ति विक्रय के लिये उपलब्ध है।
- खान से मिलने पर, परिवादकर्त्ता को आश्वासन दिया गया कि संपत्ति के सभी दस्तावेज़ और स्वामित्व सही क्रम में हैं। खान ने यह भी बताया कि बगल वाली ज़मीन छह अलग-अलग व्यक्तियों के स्वामित्व में है, जिन्होंने उसके पक्ष में पावर ऑफ़ अटॉर्नी जारी की है, जिससे उसे वह संपत्ति भी बेचने का अधिकार मिल गया है। इन अभ्यावेदनों के आधार पर, दोनों पक्षकारों ने 16 फ़रवरी 2013 को कुल ₹43,00,000/- के लिये एक विक्रय करार पर हस्ताक्षर किये।
- करार की शर्तों के अनुसार, परिवादकर्त्ता ने खान को निष्पादन की तिथि पर 20,00,000 रुपए की अग्रिम राशि का संदाय किया, और शेष राशि विक्रय विलेख के रजिस्ट्रीकरण के दौरान चुकानी थी। यद्यपि, करार करने के बाद, खान ने परिवादकर्त्ता को संपत्तियों का स्वामित्व नहीं दिया और न ही उसके पास जमा की गई अग्रिम राशि वापस की।
- लगभग आठ वर्ष तक कोई कार्रवाई न करने के बाद, 29 जनवरी 2021 को परिवादकर्त्ता ने खान के विरुद्ध परिवाद संख्या 619/2021 दर्ज कराया। इस परिवाद के परिणामस्वरूप, 8 फरवरी 2021 को हिंदपीढ़ी थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 18/2021 दर्ज की गई, जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406 (आपराधिक न्यासभंग), 420 (छल) और 120ख (आपराधिक षड्यंत्र) के अधीन अपराध दर्ज किये गए।
- गिरफ्तारी की आशंका के चलते, खान ने अग्रिम जमानत याचिका दायर की, जिसे न्यायिक आयुक्त, रांची ने 23 दिसंबर 2021 को मंजूर कर लिया। कार्यवाही के दौरान, पक्षकारों को मध्यस्थता के लिये भेजा गया, जहाँ वे खान द्वारा परिवादकर्त्ता को पाँच किश्तों में 24,00,000 रुपए का संदाय करने के लिये एक करार पर पहुँचे। खान ने 5,00,000 रुपए की पहली किश्त का संदाय किया, लेकिन बाद की किश्तों की शर्तों का पालन करने में असफल रहा, जिसके कारण 15 जून 2022 को उनकी अग्रिम जमानत रद्द कर दी गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आपराधिक न्यासभंग और छल एक ही आरोप पर एक साथ नहीं रह सकते क्योंकि ये एक-दूसरे के "विरोधाभासी" हैं। छल के लिये आरंभ से ही आपराधिक आशय की आवश्यकता होती है, जबकि आपराधिक न्यासभंग में वैध रूप से सौंपे गए अधिकार के बाद दुर्विनियोग सम्मिलित होता है।
- न्यायालय ने कहा कि छल को स्थापित करने के लिये, अभ्यावेदन करते समय छल या बेईमानी का आशय प्रदर्शित करना आवश्यक है। ऐसे बईमानीपूर्ण आशय की उपधारणा नहीं की जा सकती और इसे ठोस तथ्यों के माध्यम से साबित किया जाना चाहिये। केवल वचन पूरा न करने से प्रारंभ से ही कपटपूर्ण आशय स्थापित नहीं होता।
- न्यायालय ने कहा कि जब तक कपटपूर्ण दुर्विनियोग का कोई सबूत न हो, हर न्यासभंग दण्डनीय अपराध नहीं माना जा सकता। परिवादकर्त्ता यह साबित करने में असफल रहा कि संपत्ति कैसे परिदत्त की गई और बाद में वैयक्तिक प्रयोग के लिये उसका दुर्विनियोग कैसे किया गया।
- न्यायालय ने पाया कि इस मामले में न तो छल और न ही आपराधिक न्यासभंग का कोई मामला साबित हुआ। करार के निष्पादन के दौरान बेईमानी के आशय का स्पष्ट अभाव था और प्रारंभ से ही साशय प्रवंचना का कोई सबूत नहीं था।
- न्यायालय ने कहा कि परिवाद दर्ज करने में आठ वर्ष के विलंब से नेकनीयती पर संदेह उत्पन्न होता है। जब कोई प्रथम दृष्टया मामला न हो, तो आपराधिक विधि को प्रतिशोधात्मक कार्यवाही या वैयक्तिक बदला लेने का मंच नहीं बनना चाहिये।
भारतीय न्याय संहिता की धारा 316 और 318 क्या है?
- धारा 316 - आपराधिक न्यासभंग
- संपत्ति को न्यस्त करना: किसी व्यक्ति को किसी भी रीति से संपत्ति या संपत्ति पर प्रभुत्व न्यस्त किया जाना चाहिये, जिससे पक्षकारों के बीच एक प्रत्ययी संबंध स्थापित हो।
- बेईमानी से दुर्विनियोग या रूपांतरण : सौंपे गए व्यक्ति को, सौंपे जाने की शर्तों से हटकर, बेईमानी से संपत्ति का दुर्विनियोग या रूपांतरण करना चाहिये।
- विधिक निदेश या संविदा का उल्लंघन : अभियुक्त को न्यास के उन्मोचन की रीति को निर्धारित करने वाली विधि के किसी भी निदेश का उल्लंघन करते हुए संपत्ति का बेईमानी से उपयोग या निपटान करना चाहिये, या न्यास उन्मोचन के संबंध में किसी भी विधिक संविदा (अभिव्यक्त या विवक्षित) का भंग करना चाहिये।
- अन्य को जानबूझकर अनुमति देना: यह धारा उन स्थितियों की बात करती है, जहाँ अभियुक्त जानबूझकर किसी अन्य व्यक्ति को उपरोक्त कार्य करने के लिये अनुमति देता है, जिससे निष्क्रिय सुविधा के लिये दायित्त्व का विस्तार होता है।
- धारा 318 – छल
- प्रवंचना : अभियुक्त को मिथ्या कथन, महत्त्वपूर्ण तथ्यों के छिपाव या अन्य कपट के माध्यम से किसी भी व्यक्ति को प्रवंचित करना चाहिये।
- कपटपूर्ण या बेईमानी से उत्प्रेरित करना : प्रवंचना में कपटपूर्ण या बेईमानी से प्रवंचित किये गए व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति को संपत्ति परिदत्त करने या किसी अन्य द्वारा संपत्ति रखने की सहमति देने के लिये उत्प्रेरित किया जाना चाहिये।
- साशय कार्रवाई/लोप के लिये उत्प्रेरित करना : अभियुक्त को साशय प्रवंचित किये गए व्यक्ति को कुछ ऐसा करने या लोप के लिये उत्प्रेरित करना चाहिये जो उसने प्रवंचना न दिये जाने पर नहीं किया होता या नहीं लोप करता।
- नुकसान या अपहानि कारित होना : प्रवंचना के कारण किये गए कृत्य या लोप के परिणामस्वरूप प्रवंचित किये गए व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, ख्याति संबंधी या संपत्ति में नुकसान या अपहानि होनी चाहिये या होने की संभावना होनी चाहिये।
धारा 316 (आपराधिक न्यासभंग) और धारा 318 (छल) में क्या अंतर है?
पहलू |
धारा 316 – आपराधिक न्यासभंग |
धारा 318 – छल |
प्रारंभिक संबंध की प्रकृति |
संपत्ति का विधिपूर्ण न्यस्त; अभियुक्त के पास विधिपूर्ण रूप से संपत्ति पर कब्जा होना |
प्रारंभ से ही कपटपूर्ण उत्प्रेरण; अभियुक्त ने प्रवंचना से संपत्ति प्राप्त की |
आपराधिक आशय की समयरेखा |
विधिपूर्ण न्यस्त किये जाने के पश्चात् आपराधिक आशय उत्पन्न होता है |
आपराधिक आशय आरंभ से ही विद्यमान है |
संपत्ति अधिग्रहण |
विधिपूर्ण रूप से अभियुक्त को न्यस्त गई संपत्ति |
कपटपूर्ण रूप से प्राप्त संपत्ति |
अपराध का आधार |
विधिपूर्ण कब्जा प्राप्त होने के पश्चात् न्यासभंग |
संपत्ति परिदत्त करने में प्रवंचना |
मानसिक तत्त्व |
न्यस्त की गई संपत्ति का बेईमानी से दुर्विनियोग या रूपांतरण |
प्रवंचना के माध्यम से कपट या बेईमानी से उत्प्रेरित करना |
आपराधिक कानून
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 438 और 422
26-Sep-2025
आर.ए.पी. बनाम ए.एम. "यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि अपनी माता/पत्नी के जीवनकाल में उनका भरण-पोषण करना पुरुष का विधिक और नैतिक कर्त्तव्य है। यह उत्तरदायित्त्व संतान के अपने माता-पिता की देखभाल करने के अंतर्निहित दायित्त्व से उपजा है। इसी प्रकार, पति और संतान का यह कर्त्तव्य है कि वे पत्नी और माता की वृद्धावस्था में देखभाल और भरण-पोषण सुनिश्चित करें।" न्यायमूर्ति शमीम अहमद |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति शमीम अहमद ने एक कुटुंब न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, जिसमें एक पति और उसके दो पुत्रों को पत्नी/माता को 21,000 रुपए मासिक भरण-पोषण देने का निदेश दिया गया था, जिसमें इस बात पर बल दिया गया था कि अपनी पत्नी और माता का समर्थन करना, उनके बुढ़ापे में सम्मान और देखभाल सुनिश्चित करना एक पुरुष का विधिक और नैतिक कर्त्तव्य है।
- उच्चतम न्यायालय ने आर.ए.पी. बनाम ए.एम. (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
आर.ए.पी. बनाम ए.एम. (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण विवाद से उत्पन्न हुई है।
- प्रथम याचिकाकर्त्ता और प्रत्यर्थी के बीच विवाह 7 जनवरी, 1986 को संपन्न हुआ था। प्रत्यर्थी ने स्वेच्छया से वैवाहिक घर छोड़ दिया और वर्ष 2015 के दौरान याचिकाकर्त्ताओं को छोड़ दिया।
- परित्याग की तारीख से चार वर्ष की अवधि के बाद, प्रत्यर्थी ने 2019 M.C. No. 64 में कुटुंब न्यायालय, मदुरै के समक्ष कार्यवाही शुरू की, जिसमें कथित तौर पर विवाह के उपहार के रूप में दिये गए 290 सॉवरेन वजन के सोने के आभूषणों की वसूली के साथ-साथ 40,000 रुपए का मासिक भरण-पोषण और याचिकाकर्त्ताओं से 5,00,000 रुपए की वसूली की मांग की गई।
- मदुरै स्थित कुटुंब न्यायालय ने 18 मार्च, 2025 के अपने आदेश के अधीन प्रत्यर्थी को 21,000 रुपए प्रति माह भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दिया। इस आदेश से व्यथित होकर, याचिकाकर्त्ताओं ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 438 सहपठित धारा 442 के अंतर्गत वर्तमान आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
- याचिकाकर्त्ताओं ने तर्क दिया कि प्रथम याचिकाकर्त्ता, 60 वर्ष से अधिक आयु का होने के कारण, स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं से ग्रस्त था और आय का कोई स्रोत नहीं था। दूसरे याचिकाकर्त्ता की आय कथित रूप से अल्प और अपर्याप्त थी जिससे वह अपने घरेलू खर्च, अपने पिता के चिकित्सा व्यय और अपनी पत्नी व संतान के भरण-पोषण का प्रबंध नहीं कर पाता था। तीसरे याचिकाकर्त्ता, जो बैंगलोर में कार्यरत थे, के बारे में कहा गया कि उनके पास अपने वैयक्तिक खर्चों को पूरा करने के लिये पर्याप्त आय नहीं थी और उन्हें अक्सर दूसरे याचिकाकर्त्ता से वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती थी।
- याचिकाकर्त्ताओं ने आगे दलील दी कि प्रत्यर्थी के पास पर्याप्त वित्तीय साधन हैं, जैसा कि उसके वैयक्तिक वाहन के रखरखाव और एक ड्राइवर की नियुक्ति से साबित होता है। उन्होंने अभिकथित किया कि कुटुंब न्यायालय ने इस बात पर विचार नहीं किया कि प्रत्यर्थी बिना किसी उचित या युक्तियुक्त कारण के पृथक् रह रही थी और इसलिये वह भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं थी। याचिकाकर्त्ताओं ने प्रत्यर्थी की क्रमशः पत्नी और माता के रूप में देखभाल करने की इच्छा व्यक्त की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि अपनी माता और पत्नी का भरण-पोषण करना एक विधिक और नैतिक दायित्त्व है। यह कर्त्तव्य संतान की माता-पिता की देखभाल करने और पतियों की वृद्धावस्था में पत्नियों का भरण-पोषण करने की अंतर्निहित उत्तरदायित्त्व से उपजा है। न्यायालय ने बल देते हुए कहा कि यह एक विधिक दायित्त्व है जिसे विभिन्न न्यायालयों में वृद्ध माता-पिता के लिये वित्तीय सहायता अनिवार्य करने वाले सांविधिक प्रावधानों के माध्यम से मान्यता प्राप्त है।
- न्यायालय ने कहा कि पति और पुत्र क्रमशः अपनी पत्नियों और माताओं का भरण-पोषण करने के सामाजिक उत्तरदायित्त्व लेते हैं। एक माता द्वारा प्रदान की गई अमूल्य देखभाल की भरपाई आर्थिक रूप से नहीं की जा सकती, और प्रसव और संतान के पालन-पोषण के दौरान सहे गए कष्ट और त्याग की भरपाई कोई भी भुगतान नहीं कर सकता।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता न्यायिक हस्तक्षेप की मांग करने वाली कोई भी अवैधता, अनौचित्य या त्रुटिपूर्णता प्रदर्शित करने में असफल रहे। बढ़ती कीमतों और जीवन-यापन की उच्च लागत को देखते हुए, 21,000 रुपए की भरण-पोषण राशि को उचित माना गया।
- न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को बेसहारा पत्नियों और माताओं की आवारागर्दी रोकने के लिये लागू किये गए लाभकारी विधि के रूप में मान्यता दी। पक्षकरीं (पति-पत्नी और माता-पुत्र) के बीच निर्विवाद संबंध पर ध्यान दिया गया।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विवादित आदेश में किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। इसमें कोई अवैधता या प्रक्रिया का दुरुपयोग न पाते हुए, दाण्डिक पुनरीक्षण याचिका में कोई दम नहीं था। परिणामस्वरूप, याचिका खारिज कर दी गई और कुटुंब न्यायालय को विधि के अनुसार आगे बढ़ने का निदेश दिया गया।
(भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धाराएँ 438 और 422 क्या हैं?
- धारा 438: पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेख मंगाना
- उच्च न्यायालय और सेशन न्यायाधीश अपनी अधिकारिता में अवर दण्ड न्यायालयों के समक्ष किसी भी कार्यवाही के अभिलेख को मंगा सकते हैं और उनकी परीक्षा कर सकते हैं जिससे निष्कर्ष, दण्डादेश या आदेशों की शुद्धता, वैधता या औचित्य की जांच की जा सके।
- इस धारा के अंतर्गत पुनरीक्षण प्रयोजनों के लिये सभी मजिस्ट्रेट (कार्यपालक या न्यायिक, मूल या अपीलीय) को सेशन न्यायाधीश से निम्न माना जाता है।
- दण्ड/आदेश के निष्पादन को निलंबित करके और अभिलेख की परीक्षा के दौरान अभियुक्त को जमानत पर रिहा करके अंतरिम अनुतोष प्रदान किया जा सकता है।
- अपील, जांच, विचारण या अन्य कार्यवाहियों में अंतर्वर्ती आदेशों के लिये पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता ।
- कोई डुप्लिकेट आवेदन नहीं - यदि कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय या सेशन न्यायाधीश के पास आवेदन करता है, तो उसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य न्यायालय में आवेदन करने की अनुमति नहीं है।
- धारा 442: उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्तियां
- उच्च न्यायालय को उन मामलों में पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करने की विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है, जहाँ अभिलेख स्वयं द्वारा मांगे जाते हैं या अन्यथा उसके ज्ञान में आते हैं, तथा इसमें अपीलीय और सेशन न्यायालयों के समान शक्तियां हैं।
- प्राकृतिक न्याय सिद्धांत - अभियुक्त के विरुद्ध कोई भी पूर्वाग्रहपूर्ण आदेश उसे व्यक्तिगत रूप से या अधिवक्ता के माध्यम से सुनवाई का अवसर दिये बिना नहीं दिया जा सकता।
- मौलिक परिसीमा - उच्च न्यायालय पुनरीक्षण शक्तियों के अधीन दोषमुक्ति के निर्णय को दोषसिद्धि में परिवर्तित नहीं कर सकता।
- पुनरीक्षण पर रोक – जहाँ अपील की जा सकती है, किंतु कोई अपील नहीं की जाती है, वहाँ उस पक्षकार के कहने पर पुनरीक्षण पर विचार नहीं किया जा सकता, जो अपील कर सकता था।
- परिवर्तन उपबंध - उच्च न्यायालय पुनरीक्षण आवेदन को अपील याचिका के रूप में मान सकता है यदि यह गलत धारणा के अधीन किया गया हो कि कोई अपील नहीं है और न्याय के हित में ऐसा अपेक्षित है।
- समान विभाजन खण्ड - जब पुनरीक्षण न्यायालय के न्यायाधीशों की राय समान रूप से विभाजित हो, तो मामले का निपटान धारा 433 प्रक्रिया का पालन करता है।
सिविल कानून
सैनिक स्कूल चिकित्सीय मानक और दिव्यांगजन अधिकार
26-Sep-2025
एम.आर.वाई.यजीथ कृष्णा (अवयस्क) बनाम भारत संघ और अन्य (2025) "मद्रास उच्च न्यायालय ने सैनिक स्कूलों में प्रवेश के लिये कठोर चिकित्सीय मानकों को बरकरार रखा तथा सैन्य अकादमियों के लिये सहायक संस्थान के रूप में उनकी भूमिका पर बल दिया।" न्यायमूर्ति जी.के. इलांथिरयान |
स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जी.के. इलंथिरैयन की पीठ ने एम.आर. यजिथ कृष्ण (अल्पवयस्क) बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) के मामले में अखिल भारतीय सैनिक स्कूल प्रवेश परामर्श (AISSAC) के लिये मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) को चुनौती देने वाली रिट याचिका को खारिज कर दिया, विशेषकर सैनिक स्कूलों में कक्षा 6 में प्रवेश के लिये विहित नेत्र (दृष्टि) मानकों को।
एम.आर. यजिथ कृष्ण (अल्पवयस्क) बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता, जो एक 12 वर्षीय छात्र है, जिसका प्रतिनिधित्व उसके नैसर्गिक संरक्षक और माता द्वारा किया गया हैं, ने सैनिक स्कूल, अमरावती नगर, उदुमलपेट, जिला तिरुप्पुर में छठी कक्षा में प्रवेश के लिये आवेदन किया था।
- याचिकाकर्त्ता ने प्रवेश परीक्षा में 300 में से 227 अंक प्राप्त किये, जो अनुसूचित जाति श्रेणी के अंतर्गत निर्धारित कट-ऑफ अंकों के भीतर थे।
- शैक्षणिक प्रदर्शन के होते हुए भी, याचिकाकर्त्ता को दिनांक 27.06.2025 की संसूचना के अनुसार मेडिकल फिटनेस के सत्यापन के लिये मेडिकल कॉलेज अस्पताल, कोयंबटूर में चिकित्सा परीक्षा के लिये उपस्थित होने का निदेश दिया गया था।
- मेडिकल जांच में याचिकाकर्त्ता को 6/36 दृष्टि दोष के कारण नेत्र मानक-II के लिये चिकित्सकीय रूप से अयोग्य घोषित किया गया।
- याचिकाकर्त्ता ने पुनर्विलोकन के लिये आवेदन किया और उसे आगे की जांच के लिये सैन्य अस्पताल, चेन्नई में रिपोर्ट करने का निदेश दिया गया, किंतु प्रारंभिक चिकित्सा रिपोर्ट की पुष्टि की गई।
- याचिकाकर्त्ता ने इस नामंजूरी को दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के अधीन विभेदपूर्ण बताते हुए चुनौती दी, तथा तर्क दिया कि यह अधिनियम की धारा 3, 4 और 16 का उल्लंघन है।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि उनकी अस्वीकृति केवल चिकित्सा आधार पर थी, न कि शैक्षणिक अयोग्यता के कारण, जो संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि सभी सैनिक स्कूल सैनिक स्कूल सोसायटी और रक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करते हैं और कक्षा 6 से शुरू होने वाले आवासीय संस्थान हैं।
- सैनिक स्कूलों का प्राथमिक उद्देश्य राष्ट्रीय रक्षा अकादमी और भारतीय नौसेना अकादमी के लिये सहायक संस्थान के रूप में कार्य करना है, जिसके लिये कठोर चिकित्सा मानकों की आवश्यकता होती है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि सैनिक स्कूलों का उद्देश्य छात्रों को सैन्य अधिकारियों के रूप में भविष्य की भूमिकाओं के लिये तैयार करना है, तथा उनकी मानसिक और शारीरिक तैयारी पर ध्यान केंद्रित करना है।
- सैनिक स्कूलों में प्रवेश से पहले मेडिकल परीक्षण अनिवार्य है और यह रक्षा मंत्रालय के अधीन कार्यरत सैनिक स्कूल सोसायटी द्वारा अनिवार्य है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 की धारा 12 (ग) और दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 3, 4 और 16 के प्रावधान ऐसे विशेष सैन्य तैयारी स्कूलों पर लागू नहीं होते हैं।
- न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) को शुरू में स्वीकार करने और प्रवेश परीक्षा में बैठने के बाद उसे चुनौती नहीं दे सकता।
- न्यायालय ने याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसे "अखिल भारतीय सैनिक स्कूल प्रवेश परामर्श (AISSAC) 2025 के लिये मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) में कोई कमी या अवैधता नहीं मिली।"
सैनिक स्कूल क्या हैं?
बारे में:
- सैनिक स्कूल भारत में आवासीय शैक्षणिक संस्थान हैं जो छात्रों को सशस्त्र बलों में करियर के लिये तैयार करते हैं।
- ये स्कूल सैनिक स्कूल सोसायटी और रक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करते हैं।
- वे कक्षा 6 से शुरू होते हैं और राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) और भारतीय नौसेना अकादमी (INA) के लिये फीडर संस्थान के रूप में कार्य करते हैं।
- इसका प्राथमिक उद्देश्य छात्रों को मानसिक और शारीरिक तत्परता पर ध्यान केंद्रित करते हुए सैन्य अधिकारियों के रूप में भविष्य की भूमिकाओं के लिये तैयार करना है।
सैनिक स्कूल में प्रवेश के लिये चिकित्सा मानक:
अखिल भारतीय सैनिक स्कूल प्रवेश परामर्श (AISSAC) के लिये मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) विशिष्ट नेत्र (दृष्टि) मानक विहित करती है:
- मानक-I: 6/6 और 6/6 (दोनों आँखों में पूर्ण दृष्टि)
- मानक-II: असंशोधित VA 6/18 और 6/18; BCVA 6/6 और 6/6
- निकट दृष्टि सीमाएँ: <-1.25 D Sph, अधिकतम दृष्टिवैषम्य सहित < +/-0.5 D Cyl
- हाइपरमेट्रोपिया परिसीमाएँ: < + 1.25 D Sph, अधिकतम दृष्टिवैषम्य सहित < +/-0.5 D Cyl
- LASIK और समकक्ष प्रक्रियाओं की अनुमति नहीं है
- रंग दृष्टि आवश्यकताएँ: CP II
- अतिरिक्त आवश्यकताओं में भेंगापन, रुग्ण नेत्र स्थिति और सक्रिय ट्रेकोमा का अभाव सम्मिलित है।
प्रवेश प्रक्रिया:
- चयन और प्रवेश कई मानदंडों को पूरा करने के अधीन हैं: प्रवेश मानदंड, पात्रता, रैंक, मेरिट सूची, मेडिकल फिटनेस और मूल दस्तावेज़ों का सत्यापन।
- छात्रों को प्रवेश परीक्षा से गुजरना पड़ता है, जिसके बाद चयनित उम्मीदवारों की मेडिकल परीक्षा होती है।
- चिकित्सा योग्यता का मूल्यांकन निर्दिष्ट चिकित्सा संस्थानों में किया जाता है, तथा सैन्य अस्पतालों में समीक्षा का प्रावधान भी है।
- अयोग्य चिकित्सा रिपोर्ट के मामले में, प्रधानाचार्य को ई-परामर्श पोर्टल के माध्यम से उम्मीदवारी को अस्वीकार करने का अधिकार है।
निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009
- यह 3 सितंबर 2009 को अधिनियमित हुआ और 1 अप्रैल 2010 को लागू हुआ
- इसने 6 से 14 वर्ष के बालकों के लिये प्रारंभिक शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य कर दी ।
- राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को पर्यवेक्षी निकाय बनाया गया।
- किसी भी स्कूल को ऐसे बालकों को प्रवेश देने से इंकार करने की अनुमति नहीं थी जो किसी अन्य स्कूल से निकल चुके हों या जिनका कहीं और नामांकन न हुआ हो।
- निजी शिक्षण संस्थानों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों के लिये 25% सीटें आरक्षित करने का निदेश दिया गया।
- इसने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिये शिक्षकों की संख्या तय की।
- इसने सतत व्यापक शिक्षा नामक मूल्यांकन तंत्र का निर्णय लिया।
- यह अधिनियम प्रकृति में प्रवर्तनीय और न्यायोचित है, न कि केवल निर्देशात्मक।
दिव्यांगजन के अधिकार अधिनियम, 2016
- इसे 27 दिसंबर 2016 को दिव्यांगजन (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 के स्थान पर अधिनियमित किया गया था।
- यह अधिनियम 19 अप्रैल 2017 को लागू हुआ, जिसने भारत में दिव्यांगजन (PWDs) के अधिकारों और मान्यता के एक नए युग की शुरुआत की।
- यह अधिनियम दिव्यांगजन के दायरे को बढ़ाकर 21 स्थितियों को सम्मिलित करता है, जिनमें शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक और संवेदी दिव्यांगताएँ सम्मिलित हैं।
- यह अधिनियम शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी संगठनों को दिव्यांगजनों के लिये सीटें और पद आरक्षित करने का आदेश देता है, जिससे शिक्षा और नियोजन के अवसरों तक उनकी पहुँच सुनिश्चित हो सके।
- यह अधिनियम लोक स्थलों, परिवहन साधनों तथा सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों में बाधा-रहित वातावरण के सृजन पर बल देता है, जिससे दिव्यांगजन के लिये अधिक सुलभता सुनिश्चित हो सके।
- यह सरकार को दिव्यांगजन की सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और पुनर्वास के लिये योजनाएँ और कार्यक्रम तैयार करने का अधिकार देता है।
- यह अधिनियम सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये लोक भवनों के लिये दिशानिर्देश और मानक तैयार करने का आदेश देता है।