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आपराधिक कानून

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत गैर लोकसेवक की दोषसिद्धि का प्रावधान

 14-May-2025

पी. शांति पुगाजेंती  बनाम राज्य

"दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति जो किसी लोक सेवक को रिश्वत लेने के लिये राजी करता है, लोक सेवक के साथ रिश्वत के माध्यम से धन जुटाने का निर्णय करता है तथा ऐसे लोक सेवक को धन अपने पास रखने के लिये प्रेरित करता है या लोक सेवक की संचित संपत्ति को अपने नाम पर रखता है, वह 1988 अधिनियम की धारा 13(1)(e) के अंतर्गत अपराध के लिये दुष्प्रेरण कारित करने के अपराध करने का दोषी है।"

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं के. विनोद चंद्रन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत एक गैर-लोक सेवक को भी अप्रमाणित आस्तियाँ अर्जित करने में लोक सेवक को दुष्प्रेरित करने के लिये दोषी माना जा सकता है।

पी. शांति पुगाजेंती  बनाम राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • पी. शांति पुगाजेंती चेन्नई पोर्ट ट्रस्ट में सहायक अधीक्षक के पद पर कार्यरत थीं। 
  • उनके पति यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड में डिवीजनल मैनेजर के पद पर कार्यरत थे। 
  • जून 2009 में, मोटर दुर्घटना दावे से संबंधित चेक सौंपने के लिये कथित तौर पर 3,000 रुपये की मांग करने और प्राप्त करने के लिये उनके पति के विरुद्ध FIR दर्ज की गई थी। 
  • जाँच के दौरान उनके आवास पर छापे मारे गए। 
  • 31 दिसंबर, 2009 को, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (PC अधिनियम) की धारा 13(2) सहपठित 13(1)(e) के अंतर्गत उनके पति के विरुद्ध एक और FIR दर्ज की गई।
  • जाँच में अपीलकर्त्ता एवं उसके पति दोनों के नाम पर चल एवं अचल संपत्तियों से संबंधित दस्तावेज मिले। 
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि 1 सितंबर, 2002 और 16 जून, 2009 के बीच की अवधि के दौरान, उसके पति ने अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति अर्जित की थी। 
  • 18 दिसंबर, 2010 को एक आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसमें उसे PC अधिनियम की धारा 13 (2) और 13 (1) (e) के साथ IPC की धारा 109 के अधीन आरोपित किया गया था। 
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि दंपति ने 60,99,216 रुपये की अप्रमाणित आस्तियाँ अर्जित की थी। 
  • ट्रायल कोर्ट ने उसके पति को PC अधिनियम की धारा 13 (2) के साथ 13 (1) (e) के अधीन दोषी माना और उसे 2 वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई। 
  • अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 109 के साथ 1988 अधिनियम की धारा 13(2) और 13(1)(e) के अधीन दोषी माना गया और 1 वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई। 
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों को यथावत रखते हुए उनकी अपील खारिज कर दी। 
  • अपीलकर्त्ता ने बाद में अपनी सजा को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में अपील किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य की जाँच की कि क्या अपीलकर्त्ता को PC अधिनियम की धारा 13(1)(e) के अंतर्गत अपराध के दुष्प्रेरण कारित करने के लिये उचित तरीके से दोषी माना गया था। 
  • न्यायालय ने पी. नल्लम्मल एवं अन्य बनाम राज्य (1999) में अपने पूर्व निर्णय पर विश्वास किया, जिसने स्थापित किया कि 1988 के अधिनियम की धारा 13(1)(e) के अंतर्गत अपराध को गैर-सरकारी कर्मचारियों द्वारा दुष्प्रेरित किया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि कोई भी व्यक्ति जो किसी सरकारी कर्मचारी को रिश्वत लेने के लिये राजी करता है, वह PC अधिनियम की धारा 13(1)(e) के अंतर्गत दुष्प्रेरण कारित करने का अपराध करने का दोषी है। 
  • न्यायालय ने कहा कि PC अधिनियम में 2018 के संशोधन ने धारा 12 को प्रतिस्थापित कर दिया है, जिससे अधिनियम के अंतर्गत सभी अपराध दुष्प्रेरण कारित करने के तुल्य हो गए हैं। 
  • उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि अपीलकर्त्ता का मामला पी. नल्लम्मल मामले में दिये गए दूसरे या तीसरे दृष्टांत के अंतर्गत आता है।
  • न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्त्ता अपने नाम पर संपत्ति रखकर अप्रमाणित आस्तियाँ छिपाने में सक्रिय रूप से शामिल थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्त्ता भी अपराध के समय एक लोक सेवक थी, हालाँकि उस पर मुख्य आरोपी की पत्नी के रूप में वाद लाया गया था।
  • न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि वह अब सह-आरोपी की पत्नी नहीं है, क्योंकि अपराध के समय वह उसकी पत्नी थी।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि यह सुस्थापित विधि है कि एक गैर-लोक सेवक को भी 1988 अधिनियम की धारा 13(1)(e) के साथ IPC की धारा 109 के अंतर्गत दोषी माना जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालयों के समवर्ती निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया और तदनुसार अपील को खारिज कर दिया।
  • न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को, जो जमानत पर था, निर्णय की तिथि से चार सप्ताह के अंदर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।

PC अधिनियम की धारा 13(1)(e) क्या है?

  • धारा 13(1) लोक सेवक द्वारा आपराधिक कदाचार से संबंधित है। 
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(1)(e) के अंतर्गत लोक सेवक द्वारा आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक वित्तीय संसाधनों या संपत्ति के कब्जे को अपराध माना गया है। 
  • यह प्रावधान तब लागू होता है जब कोई लोक सेवक या उनकी ओर से कोई व्यक्ति ऐसे संसाधनों या संपत्ति का स्वामी होता है जिसका लोक सेवक अपने कार्यकाल के दौरान संतोषजनक हिसाब नहीं दे सकता। 
  • धारा 13(1)(e) के स्पष्टीकरण में "आय के ज्ञात स्रोतों" को किसी भी वैध स्रोत से प्राप्त आय के रूप में परिभाषित किया गया है जिसे लोक सेवकों को नियंत्रित करने वाले लागू विधानों, नियमों या आदेशों के अनुसार उचित रूप से घोषित किया गया हो। 
  • इस धारा ने लोक सेवकों द्वारा रखी गई आय से संबंधित एक विशिष्ट अपराध बनाया, जो अन्य भ्रष्टाचार अपराधों से अलग है।
  • यह प्रावधान सरकारी कर्मचारियों द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान अघोषित संपत्ति के संचय को संबोधित करने के लिये बनाया गया था। 
  • भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2018 ने भ्रष्टाचार विरोधी विधि के व्यापक सुधार के भाग के रूप में धारा 13(1)(e) को विधि से निरसित कर दिया। 
  • इसके निरसित किये जाने से पहले, धारा 13(1)(e) एक प्रमुख प्रावधान था जिसका उपयोग जाँच एजेंसियों द्वारा सरकारी कर्मचारियों पर उनकी आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति रखने के लिये वाद लाने के लिये किया जाता था। 
  • 2018 में इसके निरसित किये जाने के बावजूद, संशोधन से पहले प्रारंभ हुए मामलों में असंशोधित प्रावधानों के अंतर्गत वाद लाया जाना और उनका निर्णय लिया जाना जारी है, इस सिद्धांत का पालन करते हुए कि कार्यवाही का कारण उत्पन्न होने पर मूल अधिकार एवं दायित्व लागू विधान द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। 
  • धारा 13 (2) यह प्रावधानित करती है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी जो आपराधिक कदाचार करता है, उसे चार वर्ष से कम नहीं बल्कि दस वर्ष तक की अवधि के कारावास से दण्डित किया जाएगा और जुर्माना भी देना होगा।

आपराधिक कानून

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 161

 14-May-2025

रेणुका प्रसाद बनाम सहायक पुलिस अधीक्षक द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया राज्य 

" केवल इस आधार पर कि कथन अन्वेषण अधिकारी (IO) के मुख से आया है, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और ही उसे ऐसी विधिक मान्यता दी जा सकती है जो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 162 के अंतर्गत धारा 161 में उपबंधित कथनों से अधिक हो। " 

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय   

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रनकी पीठने उस अभियुक्त की दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अंतर्गत अभिलिखित साक्षियों के कथनों को साबित करने वाले अन्वेषण अधिकारी के कथनों के आधार पर की गई थी 

  • उच्चतम न्यायालय ने रेणुका प्रसाद बनाम राज्य, सहायक पुलिस अधीक्षक द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया राज्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया। 

रेणुका प्रसाद बनाम सहायक पुलिस अधीक्षक प्रतिनिधि (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?   

  • यह मामला एक हत्या से संबंधित है जिसमें अभियोजन पक्ष के 87 साक्षियों में से 71 अपने कथन से पलट गए, जिनमें प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी भी सम्मिलित थे, जो हमलावरों की पहचान करने में असफल रहे। 
  • पीड़ित एक कर्मचारी था, जिसने प्रथम अभियुक्त (A1) द्वारा प्रबंधित संस्थान से इस्तीफा दे दिया था और PW4 (जो A1 का भाई है) द्वारा प्रबंधित संस्थान में सम्मिलित हो गया था। 
  • अभियोजन पक्ष के अनुसार, प्रथम अभियुक्त (A1) मृतक के प्रति शत्रुता रखता था, क्योंकि मृतक ने पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे को लेकर भाई-बहन के बीच प्रतिद्वंद्विता में PW4 का सक्रिय रूप से समर्थन किया था।   
  • अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि प्रथम अभियुक्त (A1) ने अपने कर्मचारियों (A2 से A4) के साथ मिलकर एक वकील (A7) के माध्यम से मृतक की हत्या के लिये दो भाड़े के हत्यारों (A5 और A6) को नियुक्त किया था। 
  • मृतक की कथित तौर पर उसके पुत्र (PW8) के सामने 28 अप्रैल, 2011 को शाम 7:45 बजे हत्या कर दी गई थी और उसी दिन रात 8:40 बजे उसकी मृत्यु हो गई थी। 
  • PW8, जिसने प्रथम सूचना कथन दाखिल किया था, हमलावरों या हथियारों की पहचान करने में असफल रहा, यद्यपि उसने शुरू में ऐसा करने में सक्षम होने का दावा किया था। 
  • विचारण न्यायालय ने अपर्याप्त साक्ष्य के कारण सभी अभियुक्तों को दोषमुक्त कर दिया क्योंकि अधिकांश साक्षी पक्षद्रोही साक्षी हो गए। 
  • उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के निर्णय को पलट दिया और A1 से A6 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 सहपठित धारा 120-ख के अधीन दोषसिद्ध ठहराया, जबकि A7 को दोषमुक्त करने के निर्णय को बरकरार रखा।  
  • इस मामले की अपील उच्चतम न्यायालय में की गई, जहाँ अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें दोषमुक्त करने के निर्णय को पलटने की वैधता को चुनौती दी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्च न्यायालय ने अन्वेषण के दौरान दिये गए कथनों के संबंध में पुलिस अधिकारियों के अभिसाक्ष्य पर अनुचित रूप से विश्वास किया, जिसे विचारण में साक्ष्यों की संपुष्टि के बिना सत्य नहीं माना जा सकता। 
  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 162 स्पष्ट रूप से स्थापित करती है कि अन्वेषण के दौरान पुलिस अधिकारियों को दिये गए कथन (धारा 161 के कथन) का प्रयोग केवल साक्षियों का खण्डन करने के लिये किया जा सकता है, ठोस सबूत के रूप में नहीं। 
  • न्यायालय ने कहा कि साक्षियों का पक्षद्रोही हो जाने का अर्थ या तो यह है कि उन्हें अपना कथन बदलने के लिये आश्वस्त किया गया/विवश किया गया या फिर उन्होंने पुलिस अधिकारियों के समक्ष ऐसा कोई कथन दिया ही नहीं। 
  • उच्च न्यायालय द्वारा जिन जब्तियों और बरामदगी पर विश्वास किया गया था, वे साक्ष्य के रूप में वैध नहीं थे, क्योंकि महाजरों (जब्ती के अभिलेखों) को प्रमाणित करने वाले स्वतंत्र साक्षी पक्षद्रोही साक्षी में पलट गए थे। 
  • अभियुक्तों से बरामद नकदी (A2 से A6) का अपराध से कोई साबित संबंध नहीं था और यह धारा 27 के अधीन बरामदगी नहीं थी, जिससे यह साक्ष्य के रूप में अग्राह्य है। 
  • धारा 27 के अधीन संस्वीकृति पर अन्य अभियुक्तों को फंसाने के लिये विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 25 और 26 का उल्लंघन करती है।  
  • उच्च न्यायालय द्वारा विचारण न्यायालय के दोषमुक्त करने के निर्णय को पलटना महज अनुमानों और अटकलों पर आधारित था, जिसमें अन्वेषण अधिकारियों द्वारा धारा 161 के अधीन दिये गए कथनों पर अनुचित रूप से विश्वास किया गया था। 
  • उच्च न्यायालय की यह धारणा कि व्यापक स्तर पर साक्षियों का पक्षद्रोही होना अभियुक्त के प्रभाव के कारण था, उच्चतम न्यायालय द्वारा दुराग्रहपूर्ण और तर्कहीन माना गया 
  • इस निर्मम हत्या पर उच्च न्यायालय की चिंता को साझा करते हुए, उच्चतम न्यायालय धारा 161 के अधीन अग्राह्य कथनों, असाबित स्वैच्छिक कथनों, या अपराध से असंबद्ध बरामदगी पर विश्वास नहीं कर सकता था। 
  • न्यायालय ने कहा कि साक्षियों का पक्षद्रोही होना विभिन्न कारकों के कारण हो सकता है, जिनमें भय, राजनीतिक दबाव, पारिवारिक दबाव, सामाजिक दबाव या आर्थिक कारण सम्मिलित हैं। 
  • इस प्रकार, न्यायालय ने अभियुक्त व्यक्तियों को दोषमुक्त कर दिया और उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 क्या है? 

  • यह उपबंध भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 180में उपबंधित है । 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 180 अन्वेषण के दौरानपुलिस द्वारा साक्षियों की परीक्षासे संबंधित हैऔर इसमें अतिरिक्त उपबंधों के साथ तीन उपधाराएँ सम्मिलित हैं।  
  • उपधारा (1) के अंतर्गत: 
    • कोई भी अन्वेषणकर्त्ता पुलिस अधिकारी या प्राधिकृत पुलिस अधिकारी (राज्य सरकार द्वारा निर्धारित निम्नतर पंक्ति नहीं है) उन व्यक्तियों से मौखिक परीक्षा कर सकता है जिनके बारे में माना जाता है कि वह परिस्थितियों से परिचित है। 
  • उपधारा (2) के अंतर्गत, परीक्षा की जा रहे व्यक्ति को: 
    • मामले से संबंधित सभी प्रश्नों का सही-सही उत्तर दें। 
    • उन पर ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिये दबाव न डाला जाए जो उन्हें दोषी ठहरा सकते हों या उन्हें शास्ति/समपहरण का सामना करना पड़ सकता हो। 
  • उपधारा (3) के अंतर्गत पुलिस अधिकारी: 
    • परीक्षा के दौरान लिखित कथन अभिलिखित किया जा सकता है। 
    • प्रत्येक व्यक्ति के कथन के लिये पृथक् और सही अभिलेख बनाए रखना होगा। 
    • श्रव्य-दृश्य इलेक्ट्रॉनिक साधनों से कथन अभिलिखित कर सकते हैं। 
  • महिला पीड़ितों के कथन अभिलिखित करने के लिये विशेष उपबंध किये गए हैं: 
    • भारतीय न्याय संहिता की धारा 64-71, 74-79 और 124 के अंतर्गत अपराधों पर लागू होता है। 
    • कथन या तो किसी एक द्वारा अभिलिखित किया जाना चाहिये: (क) एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा, या (ख) किसी भी महिला अधिकारी द्वारा। 
  • इस धारा का उद्देश्य है: 
    • उचित अन्वेषण की सुविधा प्रदान करना। 
    • आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध साक्षियों के अधिकारों की रक्षा करें। 
    • साक्षियों के कथनों का उचित दस्तावेज़ीकरण सुनिश्चित करें। 
    • महिला पीड़ितों के मामलों को लिंग-संवेदनशील (Gender-Sensitive) तरीके से निपटाना। 

वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम की धारा 36

 14-May-2025

एंग्लो अमेरिकन मेटलर्जिकल कोल प्राइवेट लिमिटेड बनाम MMTC लिमिटेड

“निर्णय ऋणी माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम की धारा 36 के अंतर्गत मध्यस्थता पंचाट के निष्पादन के दौरान CPC की धारा 47 के अंतर्गत आपत्तियाँ दर्ज नहीं करा सकते हैं, क्योंकि यह दूसरी चुनौती के बराबर होगा और धारा 34 के अंतर्गत इच्छित अंतिमता को कमजोर करेगा।”

न्यायमूर्ति जसमीत सिंह

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की पीठ ने कहा कि एक निर्णय ऋणी मध्यस्थता अधिनियम की धारा 36 के अंतर्गत मध्यस्थता पंचाट के निष्पादन में CPC की धारा 47 के अंतर्गत आपत्तियाँ दर्ज नहीं कर सकता है, क्योंकि यह धारा 34 के अंतर्गत सीमित चुनौती तंत्र को कमजोर करेगा।

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने एंग्लो-अमेरिकन मेटलर्जिकल कोल प्राइवेट लिमिटेड बनाम MMTC लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय सुनाया।

एंग्लो-अमेरिकन मेटलर्जिकल कोल प्राइवेट लिमिटेड बनाम MMTC लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 7 मार्च, 2007 को, विक्रेता के रूप में एंग्लो अमेरिकन मेटलर्जिकल कोल प्राइवेट लिमिटेड (डिक्री धारक) और क्रेता के रूप में MMTC लिमिटेड (निर्णय देनदार) के बीच ऑस्ट्रेलिया में DBCT ग्लैडस्टोन से FOB (छंटनी) आधार पर कोकिंग कोयले की विक्रय और खरीद के लिये एक दीर्घकालिक करार (LTA) निष्पादित किया गया था। 
  • LTA में आरंभ में एक-एक वर्ष की तीन डिलीवरी अवधि शामिल थी, जो 30 जून, 2007 को समाप्त हो रही थी, जिसमें MMTC के लिये दो अतिरिक्त डिलीवरी अवधियों के लिये विस्तार करने का विकल्प था। 
  • MMTC ने इस विकल्प का प्रयोग करते हुए करार को एक चौथी डिलीवरी अवधि (1 जुलाई, 2007 से 30 जून, 2008) और एक पाँचवी डिलीवरी अवधि (1 जुलाई, 2008 से 30 जून, 2009) को शामिल करने के लिये बढ़ाया। 
  • पाँचवी डिलीवरी अवधि को बाद में एंग्लो अमेरिकन के 14 अगस्त, 2008 के पत्र द्वारा 30 सितंबर, 2009 को समाप्त होने तक बढ़ा दिया गया था। 
  • पाँचवी डिलीवरी अवधि के लिये दो प्रकार के कोकिंग कोयले (आइजैक कोकिंग कोल ब्लेंड और डॉसन वैली ब्लेंड) के लिये सहमत मूल्य 300 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन था, जिसकी पुष्टि MMTC ने 20 नवंबर, 2008 के पत्र में की थी। 
  • पाँचवी डिलीवरी अवधि के दौरान, MMTC ने 300 अमेरिकी डॉलर प्रति मीट्रिक टन की संविदा मूल्य पर केवल दो शिपमेंट उठाए:
    • 30 अक्टूबर, 2008 को 2,366 मीट्रिक टन
    • 5 अगस्त, 2009 को 9,600 मीट्रिक टन (50,000 मीट्रिक टन के लिये एक तदर्थ करार का हिस्सा)
  • उठाई गई कुल मात्रा 11,966 मीट्रिक टन थी, जबकि संविदा में उल्लिखित मात्रा 466,000 मीट्रिक टन थी, जिससे MMTC द्वारा 454,034 मीट्रिक टन नहीं उठाया जा सका। 
  • LTA में एक मध्यस्थता खंड (पैराग्राफ 20) शामिल था, जिसमें कहा गया था कि विवादों का निपटान ICC नियमों के अंतर्गत किया जाएगा, जिसमें मध्यस्थता का स्थान नई दिल्ली, भारत होगा। 
  • एंग्लो अमेरिकन ने दावा किया कि MMTC ने संविदा में उल्लिखित कोयला की मात्रा को उठाने में विफल रहने के कारण LTA की शर्तों का उल्लंघन किया तथा उल्लंघन की तिथि (30 सितंबर, 2009) पर संविदा मूल्य (यूएस $ 300) और बाजार मूल्य (औसत यूएस $ 126.62) के बीच के अंतर के बराबर क्षतिपूर्ति मांगा। 
  • MMTC ने संविदा में उल्लिखित माल की अनुपलब्धता और लेहमैन ब्रदर्स के पतन के बाद बाजार की स्थितियों सहित विभिन्न आधारों पर इन दावों को विवादित किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) व्यापक विधायी ढाँचे के साथ एक पूर्ण, आत्मनिर्भर संहिता स्थापित करता है, जो साशय मध्यस्थता मामलों के लिये कॉमन लॉ पर निर्भरता को कम करता है। 
  • सीमित न्यायिक हस्तक्षेप 1996 अधिनियम का एक आधारशिला सिद्धांत है, जिसमें धारा 5 स्पष्ट रूप से न्यायालय के हस्तक्षेप को केवल उन मामलों तक सीमित करती है जो अधिनियम के भाग I के अंतर्गत विशेष रूप से प्रदान किये गए हैं। 
  • न्यायालय ने देखा कि A & C अधिनियम की धारा 36 एक सीमित विधिक कल्पना का निर्माण करती है, जो मध्यस्थ पंचाट को "एक डिक्री के रूप में" केवल प्रवर्तन उद्देश्यों के लिये मानती है, पंचाट को वास्तविक डिक्री में परिवर्तित किये बिना। 
  • एक मध्यस्थ पंचाट मूल रूप से एक न्यायालयी डिक्री से अलग रहता है, क्योंकि यह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 2 (2) के अंतर्गत डिक्री की आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं करता है।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि CPC प्रावधान केवल विशिष्ट प्रवर्तन तंत्रों (जैसे कि आदेश XXI के अंतर्गत कुर्की, विक्रय और अभिरक्षा प्रक्रिया) के लिये मध्यस्थ पंचाटों पर लागू होते हैं, न कि ठोस आपत्तियों को उठाने के लिये। 
  • प्रवर्तन के दौरान CPC की धारा 47 के अंतर्गत आपत्तियों की अनुमति देने से प्रभावी रूप से मध्यस्थ पंचाटों को चुनौतियों का एक अतिरिक्त दौर शुरू हो जाएगा, जो A & C अधिनियम की धारा 34 और 35 द्वारा इच्छित अंतिमता का खंडन करता है। 
  • न्यायालय ने माना कि शून्यता या अवैधता के आधार पर किसी पंचाट को चुनौती केवल 1996 अधिनियम की धारा 34 की कार्यवाही के माध्यम से ही दी जा सकती है, प्रवर्तन चरण के दौरान नहीं। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि छल या संलिप्तता के आरोपों के लिये पंचाट प्रवर्तन को रोकने के लिये वैध आधार बनाने के लिये केवल प्रारंभिक जाँच के बजाय उचित अधिकारियों द्वारा औपचारिक निष्कर्षों की आवश्यकता होती है।

माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 36 क्या है?

  • धारा 36(1) यह प्रावधानित करती है कि धारा 34 के अंतर्गत मध्यस्थ पंचाट को चुनौती देने की समय अवधि समाप्त हो जाने के बाद, पंचाट CPC के अनुसार प्रवर्तनीय हो जाता है, जैसे कि यह न्यायालय का आदेश हो।
  • वाक्यांश "उसी तरह से जैसे कि यह न्यायालय का आदेश हो" मध्यस्थ पंचाट को वास्तविक आदेश में परिवर्तित किये बिना, प्रवर्तन प्रक्रियाओं तक सीमित एक विधिक कल्पना बनाता है।
  • धारा 36(2) स्पष्ट करती है कि धारा 34 के अंतर्गत मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के लिये केवल एक आवेदन दाखिल करने से पंचाट स्वतः ही अप्रवर्तनीय नहीं हो जाता है।
  • मध्यस्थ पंचाट पर रोक लगाने के लिये एक अलग, विशिष्ट आवेदन दायर किया जाना चाहिये, और धारा 36(3) के अनुसार न्यायालय के आदेश के माध्यम से ही रोक लगाई जा सकती है।
  • धारा 36(3) न्यायालय को मध्यस्थ पंचाट के संचालन पर रोक लगाने का अधिकार देती है, हालाँकि जैसा वह उचित समझे, लेकिन यह आवश्यक है कि इस तरह की रोक लगाने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिये।
  • धारा 36(3) के प्रावधान में यह अनिवार्य किया गया है कि मौद्रिक पंचाटों पर रोक लगाने के आवेदनों पर विचार करते समय, न्यायालयों को CPC के अंतर्गत मौद्रिक आदेशों पर रोक लगाने के प्रावधानों पर विचार करना चाहिये। 
  • धारा 36 के अंतर्गत प्रवर्तन तंत्र मध्यस्थ पंचाटों को अंतिम एवं बाध्यकारी मानने के लिये एक साशय विधायी विकल्प का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें प्रवर्तन प्रक्रिया में हस्तक्षेप के लिये सीमित आधार हैं। 
  • धारा 36 की संरचना इस सिद्धांत को पुष्ट करती है कि मध्यस्थ पंचाटों को चुनौती देने के लिये मध्यस्थता अधिनियम द्वारा स्थापित विशिष्ट मार्ग का पालन करना चाहिये, मुख्य रूप से धारा 34 के माध्यम से, न कि प्रवर्तन के दौरान संपार्श्विक चुनौतियों के माध्यम से। 
  • धारा 36 1996 अधिनियम के प्रवर्तन-समर्थक पूर्वाग्रह को दर्शाती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रवर्तन कुशल बना रहे, जबकि उचित होने पर प्रवर्तन को रोकने के लिये सीमित, नियंत्रित तंत्र प्रदान करता है। 
  • धारा 36 के प्रावधानों का निर्वचन मध्यस्थता अधिनियम की न्यायिक हस्तक्षेप को न्यूनतम करने तथा मध्यस्थता निर्णयों के प्रवर्तन में तेजी लाने की समग्र योजना के प्रकाश में की जानी चाहिये।