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आपराधिक कानून
चित्त विकृति
27-May-2025
राज्य बनाम नीरज “धारा 328, 329 एवं 330 सहित अध्याय XXV के प्रावधानों को ‘करेगा’ जैसे शब्दों के प्रयोग द्वारा अनिवार्य भाषा में प्रस्तुत किया गया है।” न्यायमूर्ति डॉ. स्वर्णकांताा शर्मा |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति डॉ. स्वर्णकांता शर्मा की पीठ ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 328, 329 एवं 330 सहित अध्याय XXV के प्रावधान अनिवार्य भाषा में लिखे गए हैं। इस प्रकार, इसमें वर्णित प्रक्रिया अनिवार्य प्रकृति की है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने राज्य बनाम नीरज (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
राज्य बनाम नीरज (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में एक अप्राप्तवय पीड़िता के विरुद्ध नीरज (प्रतिवादी) नामक एक लड़के द्वारा यौन उत्पीड़न के प्रयास का आरोप शामिल है।
- पीड़िता ने आरोप लगाया कि नीरज ने एक खाली प्लॉट में उसके साथ अनुचित यौन कृत्य करने का प्रयास किया, घटना से पहले नीरज पीड़िता को नहीं जानता था।
- पीड़िता ने 18 सितंबर 2015 को दिल्ली के बीजेआरएम अस्पताल में मेडिकल जाँच कराई, जहाँ डॉक्टर ने मेडिकल लीगल सर्टिफिकेट (एमएलसी) में "यौन उत्पीड़न के प्रयास का कथित कृत्य" के रूप में दर्ज किया।
- ऋचा नामक एक साक्षी ने दावा किया कि उसने अपने घर से घटना देखी थी तथा उसने गवाही दी कि आरोपी ने स्वयं और पीड़िता दोनों के कपड़े उतार दिए थे तथा पकड़े जाने से पहले वह उसका यौन उत्पीड़न करने वाला था।
- विवेचना पूरी होने के बाद, आरोपी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376 के साथ लैगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत आरोप पत्र दायर किया गया।
- सत्र न्यायालय ने मानव व्यवहार और संबद्ध विज्ञान संस्थान (IHBAS) मेडिकल बोर्ड द्वारा किये गए चिकित्सा मूल्यांकन के आधार पर 29 अप्रैल 2017 को आरोपी को दोषमुक्त कर दिया।
- मेडिकल बोर्ड ने आरोपी को गंभीर मानसिक विकृतता से पीड़ित पाया, उसकी मानसिक आयु चार वर्ष के बच्चे के बराबर थी, हालाँकि उसमें कोई व्यवहार संबंधी समस्या नहीं थी।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आरोपी अपने कृत्य की प्रकृति को नहीं समझ सकता था तथा न ही वह बचाव करने में सक्षम था, इसलिये मामले को आगे बढ़ाने का कोई आधार नहीं मिला।
- आरोपी के पिता को आरोपमुक्त करने की शर्त के रूप में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 437-A के अंतर्गत 10,000 रुपये का जमानत बॉण्ड प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया।
- वर्तमान याचिका के माध्यम से राज्य सत्र न्यायालय द्वारा पारित आदेश का विरोध करना चाहता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- सत्र न्यायालय द्वारा जाँच के चरण के दौरान ही यह आदेश पारित किया गया था, क्योंकि आरोप अभी तक तय नहीं किये गए थे।
- इसलिये, लागू प्रावधान CrPC की धारा 328 एवं 330 थे, जो विकृत मष्तिष्क के आरोपी व्यक्तियों से संबंधित प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं।
- आरोप पत्र 30 जनवरी 2016 को दायर किया गया था, साथ ही 2 फरवरी 2009 को IHBAS से एक आईक्यू प्रमाण पत्र भी दिया गया था, जिसमें आरोपी की मानसिक आयु चार वर्ष के बच्चे के तुल्य आंकी गई थी।
- 19 अप्रैल 2016 को, सत्र न्यायालय ने विवेचना अधिकारी को आरोपी की मानसिक स्थिति के विषय में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया, जिसमें सुझाव दिया गया कि न्यायालय को संदेह है कि आरोपी विकृत दिमाग का हो सकता है तथा स्वयं का बचाव करने में असमर्थ हो सकता है।
- 26 मई 2016 को, संबंधित सत्र न्यायालय ने निर्देश दिया कि अभियुक्त की अभियोजन के विरुद्ध बचाव करने की योग्यता और उसकी वर्तमान मानसिक स्थिति का आकलन करने के लिये IHBAS के मेडिकल बोर्ड से एक रिपोर्ट प्राप्त की जाए।
- मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट 16 सितंबर 2016 को तैयार की गई तथा 1 अक्टूबर 2016 को सत्र न्यायालय को प्राप्त हुई। इसने अभियुक्त को गंभीर मानसिक मंदता से पीड़ित बताया।
- सत्र न्यायालय ने अभियुक्त को मेडिकल जाँच के लिये भेजकर और संबंधित चिकित्सा विशेषज्ञ (डॉ. विजेंद्र सिंह) को CW-1 के रूप में बुलाकर CrPC की धारा 328(1) एवं (1A) के आदेश का सही ढंग से पालन किया।
- मेडिकल साक्ष्य और पहले के IQ प्रमाणपत्र के आधार पर, सत्र न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अभियुक्त कृत्य की प्रकृति को समझने या बचाव करने में सक्षम नहीं था। हालाँकि, एक बार इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद, सत्र न्यायालय को CrPC की धारा 328(4) के अंतर्गत आगे बढ़ना था और CrPC की धारा 330 में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना था।
- हालाँकि, इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद, सत्र न्यायालय को CrPC की धारा 328(4) के अंतर्गत आगे बढ़ना था और CrPC की धारा 330 में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना था।
- सत्र न्यायालय CrPC की धारा 330(3) के अंतर्गत अनिवार्य प्रक्रिया का पालन करने में विफल रहा, जिसके अंतर्गत उसे यह आकलन करना था कि क्या अभियुक्त को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने पर सुरक्षित रूप से डिस्चार्ज दी जा सकती है या उसे आवासीय सुविधा में रखने की आवश्यकता है।
- सत्र न्यायालय ने डिस्चार्ज का आदेश पारित करने से पहले कथित कृत्य की प्रकृति या अभियुक्त की मानसिक विकलांगता की सीमा का विश्लेषण नहीं किया।
- डिस्चार्ज के आदेश में इस तथ्य का कोई आकलन नहीं था कि अभियुक्त ने स्वयं को या दूसरों को कोई खतरा पैदा किया है, जो कि CrPC की धारा 330(3) के अंतर्गत एक अनिवार्य आवश्यकता है।
- न्यायालय ने इस विषय में कोई और चिकित्सा या विशेषज्ञ की राय नहीं मांगी या विचार नहीं किया कि क्या अभियुक्त को उसके घर के वातावरण में सुरक्षित रूप से प्रबंधित किया जा सकता है या उसे संस्थागत देखभाल की आवश्यकता है।
- यह विफलता अभियुक्त और आम जनता दोनों के प्रति न्यायिक उत्तरदायित्व की उपेक्षा के तुल्य है।
- CrPC की धारा 330(3) यह सुनिश्चित करने के लिये उपलब्ध है कि मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों को आपराधिक रूप से उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है, लेकिन अगर वे जोखिम पैदा करते हैं तो उन्हें उचित सुरक्षा उपायों के बिना समाज में नहीं छोड़ा जा सकता है।
- प्रावधान न्यायालय को अपराध की प्रकृति, मानसिक मंदता की डिग्री का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने और अभियुक्त को रिहा करने या संस्थागत बनाने से पहले उचित विशेषज्ञ सलाह प्राप्त करने का आदेश देता है।
- CrPC की धारा 330(3) का पालन न करने के कारण 29 अप्रैल 2017 को जारी किया गया विवादास्पद डिस्चार्ज आदेश विधिक रूप से अस्थिर हो गया।
- परिणामस्वरूप, उच्च न्यायालय ने 29 अप्रैल 2017 को जारी किये गए विवादास्पद आदेश को इस हद तक खारिज कर दिया कि इसने उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना अभियुक्त को डिस्चार्ज कर दिया।
- मामले को CrPC की धारा 330 के अनुपालन में अभियुक्त की रिहाई या स्थानांतरण से संबंधित एक नया आदेश पारित करने के लिये संबंधित सत्र न्यायालय को वापस भेज दिया गया।
चित्त विकृति एवं मानसिक मंदता के बीच क्या अंतर है?
- विधानमंडल स्पष्ट रूप से "चित्त विकृति" (मानसिक बीमारी) एवं "मानसिक मंदता" (विकासात्मक स्थिति) के बीच अंतर स्थापित करता है।
- IPC की धारा 84 केवल तभी मानसिक विकृत व्यक्तियों को आपराधिक दायित्व से छूट प्रदान करती है, जब अपराध के समय वे कृत्य की प्रकृति या दोष का निर्वचन करने में असमर्थ थे।
- मानसिक मंदता, स्थिर एवं विकासात्मक होने के कारण, IPC की धारा 84 के अंतर्गत नहीं आती है।
चित्त विकृति के लिये प्रासंगिक प्रावधान क्या हैं?
- CrPC के अध्याय XXV में धारा 328 से 339 तक शामिल हैं, जिसमें विकृत मष्तिष्क वाले अभियुक्तों के विषय में प्रावधान हैं।
- यह अध्याय उस प्रक्रिया को रेखांकित करता है जिसका पालन तब किया जाना चाहिये जब किसी अभियुक्त के विकृत दिमाग या मानसिक विकलांगता से पीड़ित होने का संदेह हो, तथा ये प्रावधान जाँच और परीक्षण दोनों चरणों में लागू होते हैं।
- CrPC की धारा 328
- CrPC की धारा 328 तब लागू होती है जब जाँच कर रहे मजिस्ट्रेट को यह विश्वास हो कि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और इसलिये वह अपना बचाव करने में असमर्थ है।
- ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट को सिविल सर्जन या अन्य नामित चिकित्सा अधिकारी द्वारा आरोपी की चिकित्सा जाँच कराने का निर्देश देना होता है।
- विवेचना अधिकारी को साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिये तथा उनकी जाँच लिखित रूप में दर्ज की जानी चाहिये।
- अगर इस जाँच के दौरान आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया जाता है तो उसे आगे के मूल्यांकन, देखभाल एवं उपचार के लिये मनोचिकित्सक या क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक के पास भेजा जाना चाहिये।
- मनोचिकित्सक या क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक को मजिस्ट्रेट को यह बताना चाहिये कि आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ है या मानसिक मंदता से पीड़ित है।
- धारा 328 (3) में प्रावधान है कि अगर आरोपी मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया जाता है तथा बचाव करने में असमर्थ है तो मजिस्ट्रेट को मेडिकल साक्ष्य एवं आरोपी के अधिवक्ता द्वारा दिये गए किसी भी सबमिशन का मूल्यांकन करना चाहिये।
- यदि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता है, तो मजिस्ट्रेट उसे आरोपमुक्त कर सकता है और धारा 330 के अनुसार कार्यवाही कर सकता है।
- यदि प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो मजिस्ट्रेट को मनोचिकित्सक या क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक द्वारा दी गई सलाह के अनुसार उपचार के लिये आवश्यक अवधि तक कार्यवाही स्थगित करनी चाहिये, तथा अभियुक्त के साथ धारा 330 के अंतर्गत व्यवहार किया जाना चाहिये।
- धारा 328(4) में प्रावधान है कि यदि अभियुक्त मानसिक रूप से विकलांग पाया जाता है तथा बचाव में असमर्थ है, तो मजिस्ट्रेट को जाँच बंद कर सीधे धारा 330 के अंतर्गत कार्यवाही करनी होगी।
- चिकित्सा परीक्षण या जाँच के लंबित रहने के दौरान, धारा 328(3) मजिस्ट्रेट को अभियुक्त के अंतरिम प्रबंधन के लिये धारा 330 के अंतर्गत उचित निर्देश जारी करने की अनुमति देती है।
- CrPC की धारा 329
- CrPC की धारा 329 अभियोजन का वाद आरंभ होने के बाद, अर्थात् आरोप तय होने के बाद लागू होती है।
- इसमें प्रावधान है कि यदि अभियोजन के दौरान मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय को लगता है कि अभियुक्त मानसिक रूप से अस्वस्थ है तथा अपना बचाव करने में असमर्थ है, तो न्यायालय को पहले ऐसी मानसिक अस्वस्थता एवं मंदता के तथ्य की जाँच करनी चाहिये।
- इसमें अभियुक्त की चिकित्सा जाँच का निर्देश देना शामिल है। निष्कर्षों के आधार पर न्यायालय को यह निर्धारित करना चाहिये कि क्या प्रथम दृष्टया मामला बनता है। यदि ऐसा कोई मामला नहीं बनता है, तो न्यायालय अभियुक्त को दोषमुक्त कर सकता है।
- यदि प्रथम दृष्टया मामला पाया जाता है, तो न्यायालय को अभियुक्त के उपचार के लिये आवश्यक अवधि के लिये मुकदमे को स्थगित करना चाहिये तथा धारा 330 के अंतर्गत आगे बढ़ना चाहिये।
- CrPC की धारा 330
- CrPC की धारा 330, जाँच एवं परीक्षण दोनों चरणों के दौरान चित्त विकृति या मानसिक मंदता के कारण बचाव करने में असमर्थ पाए गए अभियुक्तों से संबंधित निपटान की प्रक्रिया से संबंधित है।
- धारा 330 की उप-धारा (1) एवं (2) में ऐसे अभियुक्त को जमानत पर रिहा करने का प्रावधान है, यदि उसकी स्थिति में उसे अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता नहीं है तथा उसका कोई मित्र या संबंधी उसकी देखभाल करने और उसे स्वयं को या दूसरों को नुकसान पहुँचाने से रोकने का दायित्व लेता है।
- यदि ये शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो अभियुक्त को नियमित मनोरोग उपचार प्रदान करने में सक्षम सुविधा में सुरक्षित अभिरक्षा में रखा जाना चाहिये, तथा राज्य सरकार को एक रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये।
- न्यायालय विभिन्न परिस्थितियों में धारा 330(1) या (2) के प्रावधानों को लागू कर सकता है। इनमें ऐसे मामले शामिल हैं, जहाँ धारा 328(2) के अंतर्गत अभियुक्त की मानसिक स्थिति की जाँच चल रही हो, जब प्रथम दृष्टया मामला पाया जाता है तथा धारा 328(3) के अंतर्गत कार्यवाही स्थगित कर दी जाती है, या जब धारा 329(2) के अंतर्गत उपचार के लिये सुनवाई स्थगित कर दी जाती है।
- CrPC की धारा 330(3) में ऐसे अभियुक्त की रिहाई या निरंतर अभिरक्षा पर विचार करने की प्रक्रिया प्रदान की गई है, जो मानसिक रूप से अस्वस्थ या मानसिक मंदता के कारण बचाव करने में असमर्थ पाया जाता है।
- इस प्रावधान के अंतर्गत न्यायालय को यह आकलन करना होता है कि क्या किये गए कृत्य की प्रकृति एवं मानसिक स्थिति की सीमा को देखते हुए अभियुक्त को सुरक्षित तरीके से रिहा किया जा सकता है।
- धारा 330(3) का खंड (A) न्यायालय को अभियुक्त को दोषमुक्त करने एवं रिहा करने की अनुमति देता है, हालाँकि चिकित्सक या विशेषज्ञ की राय यह पुष्टि करे कि अभियुक्त कोई खतरा पैदा नहीं करता है तथा अभियुक्त एवं जनता की सुरक्षा की गारंटी के लिये पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की गई है।
- खंड (B) तब लागू होता है जब न्यायालय यह निर्धारित करता है कि अभियुक्त को सुरक्षित तरीके से रिहा नहीं किया जा सकता है। ऐसे मामले में, न्यायालय आदेश दे सकता है कि अभियुक्त को एक निर्दिष्ट आवासीय सुविधा में रखा जाए जो मानसिक रूप से अस्वस्थ या मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों की देखभाल करती है और उचित देखभाल, शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान करती है।
- धारा 330(3) उन मामलों में लागू होती है, जहाँ धारा 328(3) एवं 329(2) के अनुसार चित्त विकृति अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता है, या जब धारा 328(4) एवं 329(3) के अनुसार मानसिक विकलांगता के कारण जाँच या सुनवाई आगे नहीं बढ़ पाती है।
- धारा 330(3) का उद्देश्य मानसिक क्षमता की कमी वाले अभियुक्त के अधिकारों एवं गरिमा को सार्वजनिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता के साथ संतुलित करना है।
- यह न्यायालय को यह अधिकार देता है कि वह कथित अपराध की प्रकृति एवं अभियुक्त की मानसिक स्थिति की सीमा दोनों का मूल्यांकन करने के बाद यह तय कर सकता है कि अभियुक्त को उचित सुरक्षा उपायों के साथ रिहा किया जा सकता है या उसे देखरेख एवं पर्यवेक्षण प्रदान करने वाली सुविधा में रखा जाना चाहिये।
- CrPC की धारा 331
- CrPC की धारा 331 में प्रावधान है कि यदि कोई अभियुक्त व्यक्ति, जो पहले मानसिक रूप से अस्वस्थ पाया गया था तथा धारा 330 के अंतर्गत रिहा किया गया था, बाद में मानसिक रूप से स्वस्थ हो जाता है, तो स्थगित की गई जाँच या सुनवाई फिर से प्रारंभ की जानी चाहिये।
- यह प्रावधान केवल मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों पर लागू होता है, मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों पर नहीं, क्योंकि धारा 328 एवं 329 केवल मानसिक रूप से अस्वस्थता के मामलों में ही स्थगन का प्रावधान करती है।
सांविधानिक विधि
एयर फ़ोर्स स्कूल कोई राज्य नहीं है
27-May-2025
दिलीप कुमार पाण्डेय बनाम भारत संघ एवं अन्य "2:1 के बहुमत से पक्ष में निर्णय दिया गया, जिसमें कहा गया कि बमरौली स्थित एयर फ़ोर्स स्कूल संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य नहीं है, तथा इसलिये इसके कर्मचारी रोजगार संबंधी शिकायतों के लिये अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट याचिका नहीं ला सकते"। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानतुल्लाह (असहमति) और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानतुल्लाह (असहमति व्यक्त करते हुए) तथा न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने माना कि एयर फ़ोर्स स्कूल, बमरौली अनुच्छेद 12 के अंतर्गत “राज्य” नहीं है; इसके विरुद्ध रिट याचिकाएँ अनुच्छेद 226 के अंतर्गत स्वीकार्य नहीं हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने दिलीप कुमार पाण्डेय बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
दिलीप कुमार पाण्डेय बनाम भारत संघ एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- एयर फ़ोर्स स्कूल की स्थापना 1966 में भारतीय एयर फ़ोर्स कर्मियों के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिये की गई थी तथा इसका प्रबंधन भारतीय एयर फ़ोर्स शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक सोसायटी द्वारा किया जाता है, जिसे नवंबर 1987 में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के अंतर्गत पंजीकृत किया गया था।
- इलाहाबाद जिले के बमरौली में एयर फ़ोर्स स्कूल ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE ) से संबद्धता प्राप्त की तथा भारतीय एयर फ़ोर्स अधिकारियों की देखरेख में संचालित होता है, जो प्रभारी अधिकारी के रूप में कार्य करते हैं।
- जुलाई 2005 में भारतीय एयर फ़ोर्स अधिकारियों द्वारा आयोजित चयन प्रक्रिया के बाद दिलीप कुमार पाण्डेय को स्कूल में शारीरिक शिक्षा के लिये प्रशिक्षित स्नातक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था, आरंभ में कई बार विस्तार के साथ परिवीक्षा पर।
- जून 2007 में, स्कूल ने पाण्डेय को अधिशेष घोषित कर दिया तथा उन्हें या तो संविदात्मक रोजगार या पदच्युति का प्रस्ताव दिया, जिससे उन्हें इस निर्णय को चुनौती देने और अपने रोजगार की पुष्टि की मांग करने के लिये एक रिट याचिका दायर करने के लिये प्रेरित किया।
- संजय कुमार शर्मा को 1993 में स्नातकोत्तर वाणिज्य शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था, बाद में वर्ष 2003 में कार्यवाहक प्रिंसिपल बन गए, लेकिन उनके विरुद्ध शिकायत दर्ज होने के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही एवं पदच्युति का सामना करना पड़ा।
- दोनों शिक्षकों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि एयर फ़ोर्स स्कूल संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत एक 'राज्य' का गठन करता है, जिससे उनके रोजगार विवाद रिट अधिकारिता के अंतर्गत संवैधानिक उपचार के अधीन हो जाते हैं।
- स्कूल एवं भारत संघ ने तर्क दिया कि एयर फ़ोर्स स्कूल गैर-सार्वजनिक निधि के रूप में भारतीय एयर फ़ोर्स कर्मियों से स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से संचालित होते हैं, बिना किसी सांविधिक विनियमन के स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, तथा कर्मचारियों के साथ निजी संविदात्मक संबंध बनाए रखते हैं।
- केंद्रीय विधिक विवाद में यह निर्धारित करना शामिल था कि क्या एयर फ़ोर्स स्कूल जैसी संस्थाएँ, शैक्षणिक कार्य करने और सरकारी एजेंसियों के साथ संबंध रखने के बावजूद, संवैधानिक उपचारों के प्रयोजनों के लिये अनुच्छेद 12 के अंतर्गत 'राज्य' या 'प्राधिकरण' के रूप में योग्य हैं।
- इस संवैधानिक प्रश्न का समाधान यह निर्धारित करेगा कि क्या ऐसी संस्थाओं के कर्मचारी अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट याचिकाओं के माध्यम से राहत मांग सकते हैं या निजी संविदा के भंग के लिये साधारण सिविल न्यायालयों के माध्यम से उपचार प्राप्त करने तक सीमित हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की सहमति से बहुमत की राय:
- एयर फ़ोर्स शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक सोसायटी एक गैर-लाभकारी कल्याणकारी संघ है जो एक गैर-सार्वजनिक निधि स्कूल का प्रबंधन करता है, जिसका वित्तपोषण मुख्य रूप से छात्र शुल्क एवं एयर फ़ोर्स कर्मियों के योगदान से होता है।
- विद्यालय के कार्यप्रणाली पर केंद्र सरकार या रक्षा मंत्रालय के नियंत्रण का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, तथा समितियों में IAF अधिकारियों के पदेन रूप से कार्य करने के बावजूद विद्यालय सांविधिक नियमों द्वारा शासित नहीं है।
- विद्यालय प्रबंध समिति, न कि IAF, प्रत्येक समय नियंत्रण रखती थी, तथा वर्ष 1985 में CBSE द्वारा पूर्ण IAF वित्तपोषण का दावा करने वाले आवेदन में सहायक साक्ष्य का अभाव था।
- भले ही स्कूल सार्वजनिक कार्य करता हो, लेकिन सेंट मैरी एजुकेशन सोसाइटी और आर्मी वेलफेयर एजुकेशन सोसाइटी के उदाहरणों के अनुसार, यह अकेले ही उसे अनुच्छेद 12 के दायरे में लाने के लिये अपर्याप्त है।
- शिक्षक-विद्यालय संबंध सार्वजनिक विधिक तत्त्वों के बिना संविदात्मक था, जिससे यह COI के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट अधिकारिता के लिये अनुपयुक्त हो गया।
न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की असहमतिपूर्ण राय:
- एयर फ़ोर्स स्कूल रिट अधिकारिता के लिये उत्तरदायी था क्योंकि इसकी स्थापना IAF द्वारा एक कल्याणकारी पहल के रूप में की गई थी तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों पर अधिकार का प्रयोग करने वाले सेवारत IAF अधिकारियों द्वारा प्रशासित किया जाता था।
- IAF ने स्कूल के सांसारिक कामकाज पर गहरा और व्यापक नियंत्रण रखा, न कि केवल विनियामक नियंत्रण, जैसा कि प्रत्येक समय के आदेशों पर हस्ताक्षर करने से स्पष्ट होता है।
- शिक्षा प्रदान करना एक सार्वजनिक कार्य है, तथा चूँकि स्कूल ने सरकारी नियंत्रण के अंतर्गत IAF एवं गैर-IAF दोनों परिवारों की सेवा की, इसलिये इसके संचालन ने लोक हित को प्रभावित किया।
- "गैर-सार्वजनिक निधि" के दावे को खारिज कर दिया गया क्योंकि इन निधियों को सरकार द्वारा सुविधा प्रदान की गई थी तथा छूट दी गई थी, जो सार्वजनिक प्रकृति की थी और सरकारी खजाने से संबंधित थी।
- प्रिंसिपल के चयन एवं साक्षात्कारों में IAF अधिकारियों की भागीदारी, कभी-कभी कथित तौर पर रिश्तेदारों का पक्ष लेने से यह सिद्ध हुआ कि स्कूल आधिकारिक प्रभाव से अछूता नहीं था।
- शासी निकायों में सेवारत IAF अधिकारियों की प्रमुख संरचना ने संस्थागत IAF भागीदारी स्थापित की, जिसमें निजी क्षमता के बजाय आधिकारिक क्षमता में निर्णय लिये गए।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत "राज्य" क्या है?
अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य की परिभाषा
भारत के संविधान का अनुच्छेद 12 मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के उद्देश्य से "राज्य" की एक समावेशी परिभाषा प्रदान करता है। अनुच्छेद 12 के अनुसार, जब तक कि संदर्भ अन्यथा अपेक्षित न हो, राज्य में निम्नलिखित शामिल हैं:
- भारत सरकार एवं संसद:
- भारत की संघीय कार्यपालिका एवं संसद।
- सरकार का कोई भी विभाग या सरकार के किसी विभाग के नियंत्रण में आने वाली संस्था (जैसे, आयकर विभाग)।
- राष्ट्रपति अपनी आधिकारिक क्षमता में कार्य करते हुए।
- प्रत्येक राज्य की सरकार एवं विधानमंडल:
- प्रत्येक राज्य की राज्य कार्यकारिणी एवं विधानमंडल।
- इसमें केंद्र शासित प्रदेश भी शामिल हैं।
- भारत के राज्यक्षेत्र में स्थानीय या अन्य प्राधिकारी:
- स्थानीय प्राधिकरण: जैसा कि सामान्य खंड अधिनियम, 1897 की धारा 3(31) में परिभाषित किया गया है - नगरपालिका समितियाँ, जिला बोर्ड, आयुक्तों के निकाय, या अन्य प्राधिकरण जो नगरपालिका या स्थानीय निधियों के नियंत्रण या प्रबंधन के लिये विधिक रूप से अधिकारी हैं या सरकार द्वारा सौंपे गए हैं।
- उदाहरण: नगर पालिकाएँ, जिला बोर्ड, पंचायतें, खनन निपटान बोर्ड।
- अन्य प्राधिकरण: इस शब्द को विशेष रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, जिससे न्यायिक निर्वचन की आवश्यकता होती है।
अनुच्छेद 12 के अंतर्गत "राज्य" का निर्धारण करने के लिये परीक्षण
- भारत संघ बनाम आर.सी.जैन (1981) स्थानीय प्राधिकारियों के लिये परीक्षण:
- एक प्राधिकरण "स्थानीय प्राधिकरण" के रूप में योग्य है यदि यह:
- एक अलग विधिक अस्तित्व रखता है।
- एक परिभाषित क्षेत्र में कार्य करता है।
- अपने व्यक्तित्त्व की विश्वसनीयता के आधार पर धन जुटाने की शक्ति रखता है।
- स्वायत्तता (स्व-शासन) का उपभोग करता है।
- विधि द्वारा उसे ऐसे कार्य सौंपे जाते हैं जो सामान्यतया नगर पालिकाओं को सौंपे जाते हैं।
- आर.डी. शेट्टी बनाम एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (1979) - पाँच सूत्री परीक्षण:
- न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने यह निर्धारित करने के लिये मानदण्ड स्थापित किये कि कोई निकाय राज्य की एजेंसी है या साधन:
- वित्तीय संसाधन: राज्य मुख्य वित्त पोषण स्रोत है (सरकार द्वारा धारित संपूर्ण शेयर पूंजी)।
- गहन एवं व्यापक नियंत्रण: संचालन पर राज्य का व्यापक नियंत्रण।
- कार्यात्मक चरित्र: कार्य सार रूप में सरकारी होते हैं और उनका सार्वजनिक महत्त्व होता है।
- सरकारी विभाग का अंतरण: एक सरकारी विभाग को निगम में अंतरित किया जाता है।
- एकाधिकार स्थिति: राज्य द्वारा प्रदत्त या संरक्षित एकाधिकार स्थिति का उपभोग करता है।
- नोट: यह परीक्षण उदाहरणात्मक है, निर्णायक नहीं है, तथा इसे सावधानी एवं सतर्कता से किया जाना चाहिये।
IAF स्कूल को "राज्य" क्यों नहीं माना गया - उच्चतम न्यायालय का निर्णय?
उच्चतम न्यायालय ने माना कि बमरौली स्थित एयर फ़ोर्स स्कूल अनुच्छेद 12 के अंतर्गत निम्नलिखित कारणों से "राज्य" नहीं था:
- संगठन की प्रकृति:
- एयर फ़ोर्स शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक सोसायटी एक गैर-लाभकारी कल्याण संघ है।
- यह स्कूल एक गैर-सार्वजनिक निधि स्कूल है।
- वित्त मुख्य रूप से छात्र शुल्क एवं कल्याण निधि के माध्यम से एयर फ़ोर्स कर्मियों द्वारा योगदान से प्राप्त होता है।
- सरकारी नियंत्रण का अभाव:
- स्कूल के कार्यप्रणाली पर केंद्र सरकार या रक्षा मंत्रालय के नियंत्रण का कोई साक्ष्य नहीं।
- स्कूल सांविधिक नियमों द्वारा शासित नहीं है, जबकि भारतीय एयर फ़ोर्स के अधिकारी समितियों में पदेन रूप से कार्यरत हैं।
- स्कूल प्रबंध समिति (IAF नहीं) प्रत्येक समय नियंत्रण रखती है।
- वित्तीय स्वतंत्रता:
- वर्ष 1985 के CBSE से मान्यता हेतु आवेदन में "भारतीय एयर फ़ोर्स द्वारा पूर्णतः वित्तपोषित" होने का दावा करने के बावजूद, वास्तविक भारतीय एयर फ़ोर्स द्वारा वित्तपोषित होने का कोई साक्ष्य नहीं।
- भले ही स्कूल का निर्माण सार्वजनिक निधि से किया गया हो, लेकिन आवर्ती सरकारी अनुदान या सांविधिक नियंत्रण का कोई साक्ष्य नहीं।
- निधि मुख्य रूप से निजी स्रोतों (शुल्क एवं कल्याण योगदान) से प्राप्त हुई थी।
- सीमित भारतीय एयर फ़ोर्स की भागीदारी:
- हालाँकि स्कूल IAF वेतनमान का पालन कर सकते हैं, लेकिन यह व्यापक नियंत्रण का गठन नहीं करता है।
- शिक्षा संहिता का पालन एक सांविधिक साधन नहीं था।
- संहिता विनियम सांविधिक नियमों की तरह विधिक रूप से बाध्यकारी नहीं थे।
- विधिक संबंध:
- शिक्षक-विद्यालय संबंध संविदात्मक प्रकृति के थे।
- इसमें कोई सार्वजनिक विधिक तत्त्व निहित नहीं था।
- अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट अधिकारिता के अधीन नहीं।
असहमतिपूर्ण राय
न्यायमूर्ति अमानुल्लाह ने इससे असहमति जताते हुए तर्क दिया कि:
- भारतीय एयर फ़ोर्स ने प्रबंधन में कार्यरत अधिकारियों के माध्यम से गहन और व्यापक नियंत्रण का प्रयोग किया।
- विद्यालय सार्वजनिक कार्य (शिक्षा) करता था।
- यहाँ तक कि "गैर-सार्वजनिक निधियों" का भी सार्वजनिक चरित्र था, क्योंकि वे सरकार द्वारा सुविधा-प्राप्त थे।
- भारतीय एयर फ़ोर्स की प्रत्येक समय की गतिविधियों में भागीदारी ने इसे अनुच्छेद 12 के अधीन कर दिया।
सांविधानिक विधि
वन रैंक वन पेंशन
27-May-2025
जिला न्यायपालिका एवं उच्च न्यायालय में सेवा अवधि को ध्यान में रखते हुए पेंशन का पुनः निर्धारण "स्थायी न्यायाधीश एवं अतिरिक्त न्यायाधीश के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। "यहाँ तक कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के मामले में भी, जो अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं, उन्हें पूरी पेंशन प्राप्त करने का अधिकार होगा।" भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने सभी सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिये "वन रैंक वन पेंशन" अनिवार्य कर दिया, जिससे सेवानिवृत्ति की तिथि, प्रवेश के स्रोत या सेवा अवधि के बावजूद पूर्ण पेंशन सुनिश्चित हो सके।
- उच्चतम न्यायालय ने जिला न्यायपालिका एवं उच्च न्यायालय में सेवा अवधि को ध्यान में रखते हुए पेंशन के पुनर्निर्धारण (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
जिला न्यायपालिका एवं उच्च न्यायालय (2025) मामले में सेवा अवधि को ध्यान में रखते हुए पेंशन के पुनर्निर्धारण मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और उनके परिवार के सदस्यों द्वारा पेंशन से संबंधित विभिन्न विवादों और उच्च न्यायालय न्यायाधीश (वेतन एवं सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1954 के अंतर्गत टर्मिनल लाभों से अस्वीकार करने के संबंध में कई याचिकाएँ दायर की गईं।
- प्राथमिक शिकायत पेंशन भुगतान में भेदभाव से संबंधित थी, जहाँ सेवानिवृत्त न्यायाधीश जो पहले जिला न्यायाधीश के रूप में सेवा कर चुके थे, उन्हें पूरी पेंशन नहीं मिल रही थी, क्योंकि जिला न्यायपालिका में उनकी पिछली सेवा को पेंशन गणना के लिये नहीं माना जा रहा था।
- उन न्यायाधीशों पर ब्रेक-इन-सर्विस जुर्माना लगाया जा रहा था, जिनकी जिला न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्ति और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति के बीच अंतराल था, जिसके परिणामस्वरूप उनकी निरंतर न्यायिक सेवा के बावजूद पेंशन राशि कम हो गई थी।
- नई पेंशन योजना (NPS) लागू होने के बाद जिला न्यायपालिका में प्रवेश करने वाले न्यायाधीश पारंपरिक उच्च न्यायालय न्यायाधीशों की पेंशन योजना बनाम अंशदायी पेंशन प्रणाली के अंतर्गत पेंशन के अपने अधिकार के विषय में अनिश्चितता का सामना कर रहे थे।
- उच्च न्यायालयों के अतिरिक्त न्यायाधीशों को पूर्ण पेंशन लाभ से वंचित किया जा रहा था तथा उनके साथ स्थायी न्यायाधीशों के बराबर व्यवहार नहीं किया जा रहा था, जबकि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान समान न्यायिक कार्य किये थे।
- मृतक अतिरिक्त न्यायाधीशों के परिवार के सदस्यों को ग्रेच्युटी और पारिवारिक पेंशन सहित लाभों से वंचित किया जा रहा था, अधिकारियों ने तर्क दिया कि मृतक न्यायाधीश ने 2 वर्ष एवं 6 महीने की न्यूनतम योग्यता सेवा अवधि पूरी नहीं की थी।
- NPS कार्यान्वयन के बाद नियुक्त न्यायाधीशों से भविष्य निधि भुगतान रोक दिया गया था, जिससे अधिनियम की धारा 20 के अंतर्गत उनके सेवानिवृत्ति लाभों के विषय में वित्तीय कठिनाई एवं अनिश्चितता उत्पन्न हो रही थी।
- पेंशन संरचना सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की विभिन्न श्रेणियों का निर्माण कर रही थी, जिसमें उनके प्रवेश के स्रोत (जिला न्यायपालिका बनाम बार), नियुक्ति की तिथि एवं सेवा की अवधि के आधार पर अलग-अलग लाभ राशि थी, जिससे भेदभावपूर्ण व्यवहार हो रहा था।
- इन मुद्दों ने सामूहिक रूप से संवैधानिक कार्यालय धारकों के समान व्यवहार और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विषय में आधारभूत प्रश्न उत्पन्न किये, क्योंकि सेवानिवृत्ति के बाद वित्तीय सुरक्षा सेवा के दौरान न्यायिक निर्णय लेने को प्रभावित करती है।
- इस मामले में समान पेंशन सिद्धांतों को स्थापित करने और यह सुनिश्चित करने के लिये न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता थी कि सभी सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके कैरियर ग्राफ या नियुक्ति परिस्थितियों की चिंता किये बिना टर्मिनल लाभों में समान व्यवहार मिले।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने पाया कि विभिन्न पेंशन श्रेणियाँ बनाना "पूर्णतया औचित्यहीनतथा " होगा और सभी सेवानिवृत्त न्यायाधीश 13,50,000/- रुपये प्रति वर्ष की मूल पेंशन पर आधारित पेंशन के अधिकारी होंगे, ताकि पेंशन भुगतान में समानता लाते हुए मनमानी, असमानता और भेदभाव को दूर किया जा सके।
- न्यायालय ने पाया कि प्रवेश के स्रोत के आधार पर पेंशन में भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, यह देखते हुए कि जब सभी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को सेवा के दौरान वेतन एवं सुविधाओं में समान व्यवहार मिलता है, तो सेवानिवृत्ति के बाद टर्मिनल लाभों में कोई भी विभेदक व्यवहार स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण होगा।
- न्यायालय ने "वन रैंक वन पेंशन" के सिद्धांत पर बल देते हुए कहा कि एक बार जब कोई न्यायाधीश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का संवैधानिक पद ग्रहण करता है तथा संवैधानिक वर्ग में प्रवेश करता है, तो केवल नियुक्ति की तिथि या प्रवेश के स्रोत के आधार पर कोई विभेदक व्यवहार स्वीकार्य नहीं है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि सेवा-अवकाश पेंशन अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता, यह देखते हुए कि न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) राज राहुल गर्ग मामले में स्थापित पूर्वनिर्णय ने पहले ही इस मुद्दे को सुलझा दिया था, जिसमें जिला एवं उच्च न्यायालय की सेवा के बीच अंतराल की चिंता किये बिना पूर्ण पेंशन पर विचार करने का निर्देश दिया गया था।
- न्यायालय ने देखा कि HCJ अधिनियम की धारा 2(g) के अंतर्गत "न्यायाधीश" की परिभाषा व्यापक है तथा इसमें मुख्य न्यायाधीश, कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश, अतिरिक्त न्यायाधीश एवं कार्यवाहक न्यायाधीश शामिल हैं, जिससे स्थायी एवं अतिरिक्त न्यायाधीशों के बीच कोई भी कृत्रिम भेदभाव सांविधिक परिभाषा का उल्लंघन है।
- न्यायालय ने कहा कि अतिरिक्त न्यायाधीश समान कार्य करते हैं तथा सेवा के दौरान स्थायी न्यायाधीशों के समान वेतन एवं भत्ते प्राप्त करते हैं, उनकी स्थिति योग्यता या क्षमता के अंतर के बजाय रिक्ति उपलब्धता की आकस्मिक परिस्थितियों से निर्धारित होती है।
- न्यायालय ने अतिरिक्त न्यायाधीशों के परिवारों को पारिवारिक पेंशन एवं ग्रेच्युटी देने से मना करना "स्पष्ट रूप से मनमाना" पाया, क्योंकि "न्यायाधीश" की सांविधिक परिभाषा में अतिरिक्त न्यायाधीश भी शामिल हैं, जिससे इस तरह का अस्वीकरण अस्थिर एवं भेदभावपूर्ण हो जाता है।
- न्यायालय ने ग्रेच्युटी प्रावधानों का निर्वचन करने के लिये सामंजस्यपूर्ण निर्माण सिद्धांतों को लागू किया, निर्देश दिया कि गणना के उद्देश्यों के लिये सेवा अवधि में 10 वर्ष जोड़े जाएँ, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मृतक न्यायाधीशों के परिवारों को न्यूनतम योग्यता सेवा पूर्ण होने की चिंता किये बिना लाभ मिले।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि HCJ अधिनियम के अंतर्गत सभी भत्ते समान रूप से दिये जाने चाहिये, जिसमें अवकाश नकदीकरण, पेंशन का कम्यूटेशन और भविष्य निधि शामिल है, इस तथ्य पर बल देते हुए कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में प्रवेश का तरीका सांविधिक लाभों के अधिकार को प्रभावित नहीं कर सकता है।
- न्यायालय ने समान टर्मिनल लाभ सुनिश्चित करके न्यायिक स्वतंत्रता की संवैधानिक अनिवार्यता को मान्यता दी, यह देखते हुए कि विभिन्न राज्यों को अलग-अलग टर्मिनल लाभ देने की अनुमति देने से भेदभाव उत्पन्न होगा और संवैधानिक पद धारकों के लिये आवश्यक एकरूपता को कमजोर करेगा।
पीठ द्वारा पारित निर्देश क्या हैं?
- भारत संघ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश को प्रति वर्ष 15 लाख रुपये की पूर्ण पेंशन देगा।
- भारत संघ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त किसी अन्य सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को प्रति वर्ष 13.50 लाख रुपये की पूर्ण पेंशन देगा।
- सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश में वह व्यक्ति भी शामिल होगा जो अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुआ हो। भारत संघ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के लिये "वन रैंक वन पेंशन" के सिद्धांत का पालन करेगा, चाहे उनके प्रवेश का स्रोत कोई भी हो, अर्थात जिला न्यायपालिका या बार, और चाहे उन्होंने जिला न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कितने भी वर्षों तक सेवा की हो, और उन सभी को पूर्ण पेंशन दी जाएगी।
- उच्च न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश के मामले में, जिसने पहले जिला न्यायाधीश के रूप में सेवा की है, भारत संघ जिला न्यायपालिका के न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त होने की तिथि और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्यभार ग्रहण करने की तिथि के बीच सेवा में किसी भी अंतराल के बावजूद, पूर्ण पेंशन का भुगतान करेगा।
- उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के मामले में, जो पहले जिला न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुके हैं और जो अंशदायी पेंशन योजना या नई पेंशन योजना के लागू होने के बाद जिला न्यायपालिका में शामिल हुए हैं, भारत संघ पूरी पेंशन का भुगतान करेगा।
- जहाँ तक NPS में उनके योगदान का प्रश्न है, हम राज्यों को निर्देश देते हैं कि वे उच्च न्यायालय के ऐसे सेवानिवृत्त न्यायाधीशों द्वारा योगदान की गई पूरी राशि, यदि कोई हो तो उस पर अर्जित लाभांश के साथ वापस करें।
- हालाँकि, राज्य सरकारों द्वारा किये गए योगदान को संबंधित राज्यों द्वारा उस पर अर्जित लाभांश, यदि कोई हो, के साथ बनाए रखा जाएगा; भारत संघ उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीश की विधवा या परिवार के सदस्यों को पारिवारिक पेंशन का भुगतान करेगा, जिनकी सेवा के दौरान मृत्यु हो गई हो, भले ही ऐसा न्यायाधीश उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश या अतिरिक्त न्यायाधीश रहा हो।
- भारत संघ उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की विधवा या परिवार के सदस्यों को ग्रेच्युटी का भुगतान करेगा, जिनकी सेवा के दौरान मृत्यु हो गई हो, उक्त न्यायाधीश की सेवा की अवधि के लिये कैरियर अवधि जोड़कर, चाहे सेवा की न्यूनतम अर्हक अवधि पूरी हुई हो या नहीं।
- भारत संघ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उच्च न्यायालय न्यायाधीश (वेतन एवं सेवा की शर्तें) अधिनियम 1954 के प्रावधानों के अनुसार सभी भत्ते का भुगतान करेगा तथा इसमें अवकाश नकदीकरण, पेंशन का विनियमन, भविष्य निधि शामिल होंगे।