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सिविल कानून

रिट याचिका की औपचारिक तामील

 16-Jun-2025

अनिल धनराज जेठानी और अन्य बनाम फ़िरोज़ ए. नाडियाडवाला और अन्य 

"चूंकि यह वाद वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के प्रवर्तन से पूर्व दायर किया गया था तथा प्रतिवादी द्वारा पहले ही उपस्थिति दर्ज की जा चुकी थी अथवा वकालतनामा दाखिल किया चुका था, अतः संशोधित सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन समन तामील की कठोर प्रक्रियाएँ इस वाद पर लागू नहीं होतीं, जिससे समन की औपचारिक सेवा की आवश्यकता नहीं रह जाती। " 

न्यायमूर्ति अभय आहूजा 

स्रोत:बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति अभय आहूजा ने यह निर्णय दिया कि यदि कोई वाद वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के प्रवर्तन से पूर्व दायर किया गया हो एवं वह अंतरित वाद हो, तो उस स्थिति में यदि प्रतिवादी ने अंतरवर्ती चरण में ही उपस्थिति दर्ज कर ली हो अथवा वकालतनामा दाखिल कर दिया हो, तो उस पर समन की औपचारिक सेवा आवश्यक नहीं होगी 

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय नेअनिलधनराज जेठानी एवं अन्य बनाम फिरोज ए. नाडियाडवाला एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

अनिल धनराज जेठानी एवं अन्य बनाम फिरोज ए. नाडियाडवाला एवं अन्य (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • 19 अगस्त 2015 को वादी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय मेंनियमित सिविल वादके रूप में वाद संख्या 1148/2015 दायर किया, जिसमें 24,00,00,000/- (चौबीस करोड़ रुपए) की वसूली की मांग की गई थी।  
  • यह वाद वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के अधिनियमित होने सेपूर्व दायर किया गयाथा , जो 23 अक्टूबर 2015 को प्रभावी हुआ। 
  • 20 अगस्त 2015 को साक्ष्यों और प्रस्ताव के नोटिस के साथ वादपत्र की प्रतियाँ प्रतिवादी संख्या 1 को भेजी गईं, जिन्हें 24 अगस्त 2015 की सुनवाई की तारीख के बारे में सूचित किया गया। 
  • प्रतिवादी संख्या 1 इंडिया लॉ अलायंस के माध्यम से उपस्थित हुआ और 24 अगस्त 2015, 28 अगस्त 2015 और 1 सितम्बर 2015 को हुई सुनवाई में उसका प्रतिनिधित्व एक वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा किया गया। 
  • 1 सितंबर 2015 को एकसम्मति आदेश पारित किया गयाजिसके अधीन प्रतिवादी संख्या 2 ने वादी को बिना शर्त वापस लेने की स्वतंत्रता के साथ न्यायालय में 12,50,00,000/- रुपए जमा कर दिये, और शेष 11,50,00,000/- रुपए प्रतिवादी संख्या 1 की अगली प्रोडक्शन फिल्म की रिलीज से पहले चुकाए जाने थे। 
  • 21 अक्टूबर 2016 को प्रोथोनोटरी एवं सीनियर मास्टर ने नियमित वाद को वाणिज्यिक वाद संख्या 88/2015 में परिवर्तित कर दिया और इसे न्यायालय के वाणिज्यिक प्रभाग को अंतरित कर दिया। 
  • प्रोथोनोटरी एवं सीनियर मास्टर ने मूल प्रतिवादियों को 21 नवंबर 2016 तक लिखित कथन दाखिल करने का निदेश दिया, जिसे बाद में 13 दिसंबर 2016 तक बढ़ा दिया गया। 
  • जब प्रतिवादी संख्या 1 और 2 न तो उपस्थित हुए और न ही लिखित कथन दाखिल किये, तो 13 दिसंबर 2016 को वाद अप्रतिरक्षित वादों की सूची में अंतरित कर दिया गया। 
  • 9 जून 2023 को प्रतिवादी संख्या 1 ने वर्तमान आवेदन दायर कर दावा किया कि उन्हें कभी भी कोई औपचारिक समन रिट नहीं दी गई, जो लागू नियमों के अधीन एक प्रक्रियात्मक अपराध है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि चूंकि उक्त वाद मूल रूप से वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के अधिनियमित होने से पूर्व एक नियमित वाद के रूप में दायर किया गया था, और बाद में इसे वाणिज्यिक वाद में परिवर्तित कर दिया गया, इसलिये वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम और संशोधित सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) केसमन की तामील से संबंधित उपबंध अंतरित वादों पर लागू नहीं होते। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी संख्या 1 पहले ही अंतरवर्ती चरण में उपस्थित हो चुका है और वकालतनामा दाखिल कर चुका है, जिससे समन रिट की तामील का उद्देश्य और प्रयोजन पूरा हो गया है, तथाऔपचारिक तामील निरर्थक हो गई है। 
  • न्यायालय ने कहा कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की धारा 15(4) के अधीन अंतरित वादों में न्यायालय के वाणिज्यिक प्रभाग के पास समयसीमा तय करने का विवेकाधिकार है, न कि नए वाणिज्यिक वादों पर लागू अनिवार्य 120 दिन की अवधि। 
  • न्यायालय ने कहा कि समन रिट की तामील का सबूत तब नहीं दिया जा सकता जब परिस्थितियां यह दर्शाती हों कि प्रतिवादी को न केवलवाद कीसूचना थी अपितु वह वास्तव में कार्यवाही में उपस्थित भी हुआ था, यहाँ तक ​​कि अंतरवर्ती चरण में भी।  
  • न्यायालय ने पाया कि प्रोथोनोटरी और सीनियर मास्टर द्वारा पारित 21 अक्टूबर 2016 और 13 दिसंबर 2016 के आदेश अधिकारिता से बाहर थे, क्योंकि केवल वाणिज्यिक प्रभाग ही धारा 15(4) के अधीन अंतरित वादों के लिये समयसीमा तय कर सकता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी संख्या 1 को न केवल वादपत्र, साक्ष्य और प्रस्ताव के सूचना की प्रतियाँ दी गईं, अपितु कई सुनवाइयों में वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा उनका प्रतिनिधित्व भी किया गया, जिससे यह संकेत मिलता है कि उन्हें वादी के दावे की पूरी जानकारी थी। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब प्रतिवादी पहले ही उपस्थित हो चुका है और उसे दावे की प्रकृति का पता है, तो समन की औपचारिक तामील पर जोर देना बहुत तकनीकी होगा और इससे न्यायिक समय की बर्बादी होगी। 
  • न्यायालय ने पाया कि नए वाणिज्यिक वादों और अंतरित वादों के बीच अंतर वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के अधीन स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है, तथाविभिन्न प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को लागू करने सेकोई भेदभाव या अनुचित व्यवहार उत्पन्न नहीं होता है । 
  • न्यायालय ने कहा किसमन की औपचारिक रिट की तामील न करना कोई प्रक्रियात्मक अपराध नहीं है जिसकेलिये अंतरित वादों के मामले में वाद को खारिज किया जा सके, जहाँ प्रतिवादी ने उपस्थिति दर्ज कराई है और वकालतनामा दाखिल किया है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 5 क्या है? 

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 5, जो "समनों का निकाला जाना और उनकी तामील" से संबंधित है। 

  • समनों का निकाला जाना (नियम 1-8): 
    • जब कोई वाद दायर किया जाता है, तो प्रतिवादियों को समन जारी किया जा सकता है, जिसमें उनसे 30 दिनों के भीतर उपसंजात होने और अपना लिखित कथन दाखिल करने को कहा जाता है। 
    • प्रतिवादी व्यक्तिगत रूप से, किसी प्लीडर के माध्यम से, या प्लीडर के साथ किसी ऐसे व्यक्ति के साथ उपसंजात हो सकते हैं जो सारवान् प्रश्नों का उत्तर दे सके। 
    • न्यायालय आवश्यक होने पर स्वयं उपसंजात होने का आदेश दे सकता है, किंतु केवल निश्चित सीमओं के भीतर रहने वाले पक्षकारों के लिये 
    • समन में यह स्पष्ट किया जाना चाहिये कि यह केवल विवाद्यकों के निपटारे के लिये है या वाद के अंतिम निपटान के लिये है। 
  • समन की तामील (नियम 9-30): 
    • नियम विभिन्न रीतियों से समन की तामील करने की विस्तृत प्रक्रिया उपबंधित करते हैं: 
      • नियमित तामील: न्यायालय अधिकारियों, पंजीकृत डाक, स्पीड पोस्ट, कूरियर सेवाओं या इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों (फैक्स, ईमेल) द्वारा। 
      • अभिकर्त्ताओं पर तामील: जब प्रतिवादियों के पास प्राधिकृत अभिकर्त्ता हों या वे अनुपस्थित हों। 
      • परिवार के सदस्यों को तामील: जब प्रतिवादी उपसंजात न हो और कोई अभिकर्त्ता उपलब्ध न हो। 
      • प्रतिस्थापित तामील: जब प्रतिवादी तामील से बच रहे हों प्रतियाँ प्रमुख स्थानों पर चिपकाकर या समाचारपत्रों में विज्ञापन देकर। 
      • विशेष तामील परिस्थितियाँ : कारागार में बंद प्रतिवादियों, भारत से बाहर रहने वाले, सैन्य कार्मिकों, लोक अधिकारियों आदि के लिये 
  • महत्त्वपूर्ण समय सीमाएँ: 
    • प्रतिवादियों को सेवा के30 दिनोंके भीतर लिखित कथन दाखिल करना होगा। 
    • न्यायालय की अनुमति और लागत के संदाय के साथअधिकतम 120 दिनोंतक विस्तार संभव है । 
    • 120 दिनों के पश्चात्, प्रतिवादी लिखित कथन दाखिल करने का अधिकार खो देते हैं। 
  • अंतर-न्यायक्षेत्रीय तामील: 
    • ये नियम उन मामलों के बारे में बताते हैं जहाँ प्रतिवादी विभिन्न राज्यों, विदेशी देशों (बांग्लादेश और पाकिस्तान के लिये विनिर्दिष्ट उपबंधों सहित) में रहते हैं, तथा राजनयिक चैनलों के माध्यम से तामील प्रदान करते हैं। 
    • यह आदेश सिविल वादों में सभी पक्षकारों को उचित सूचना सुनिश्चित करता है, साथ ही तामील प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न होने वाली विभिन्न व्यावहारिक स्थितियों के लिये लचीलापन भी प्रदान करता है। 

संदर्भित मामले 

  • ताड़देव प्रॉपर्टीज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम बैंक ऑफ बड़ौदा (2007): 
    • अंतरवर्ती चरण में उपस्थिति दर्ज कराने/वकालतनामा दाखिल करने सेसमन रिट की तामील की आवश्यकता समाप्तनहीं होगी। 
  • मीना रमेश लुल्ला और अन्य बनाम ओमप्रकाश ए. अलरेजा और अन्य (2011): 
    • यदि प्रतिवादी उपस्थित होता है/वकालतनामा दाखिल करता है, तो समन की रिट की औपचारिक तामील पर जोर नहीं दिया जा सकता और वाद तामील हो गया माना जाएगा। 
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय अधिसूचना, 2008: 
    • यदि प्रतिवादी/प्रत्यर्थी ने उपस्थिति दर्ज करा दी है और अपना वकालतनामा दाखिल कर दिया है, तो "समन रिट की तामील या तामील का शपथपत्र दाखिल करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी"। 

सिविल कानून

CPC का आदेश I नियम 10

 16-Jun-2025

सुल्तान सईद इब्राहिम बनाम प्रकाशन एवं अन्य

“आदेश I नियम 10 अन्य तथ्यों के साथ-साथ न्यायालय को कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी पक्ष को शामिल करने, प्रतिस्थापित करने या हटाने की अनुमति देने का अधिकार देता है।”

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि CPC के आदेश 1 नियम 10 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "कार्यवाही के किसी भी चरण में" का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि प्रतिवादी एक ही कार्यवाही के विभिन्न चरणों में एक ही आपत्ति को दोहरा सकता है, जब मुद्दा पूर्व चरण में निर्णायक रूप से निर्धारित किया जा चुका है।

  • उच्चतम न्यायालय ने सुल्तान सईद इब्राहिम बनाम प्रकाशन एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

सुल्तान सईद इब्राहिम बनाम प्रकाशन एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता स्वर्गीय जमीला बीवी का पोता है, जो पलक्कड़ के मुख्य उप न्यायालय के समक्ष प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा दायर ओ.एस. संख्या 617/1996 में मूल प्रतिवादी थी। 
  • 14 जून 1996 को, जमीला बीवी ने मूल वादी को ₹6,00,000 में एक दुकान की संपत्ति बेचने के लिये एक करार किया, जिसमें ₹1,50,000 तीन महीने के अंदर देय थे। 
  • अपीलकर्त्ता इस करार का साक्षी था। मुकदमे की संपत्ति में पलक्कड़, केरल में स्थित 1 सेंट भूमि पर टाइल वाली छत वाली दुकान शामिल है। इसे जमीला बीवी ने 10 सितंबर 1976 को एक असाइनमेंट डीड के माध्यम से खरीदा था। 
  • डीड के क्लॉज 8 में जमीला बीवी के बेटों में से एक, स्वर्गीय शाहुल हमीद (अपीलकर्त्ता के पिता) के किरायेदारी अधिकारों का संकेत दिया गया था, जो 1969 से 1 नवंबर 1992 को अपनी मृत्यु तक किरायेदार थे।
  • वादी ने दावा किया कि वह सदैव शेष राशि का भुगतान करने के लिये तैयार था, लेकिन जमीला बीवी विक्रय विलेख निष्पादित करने में विफल रही, जिसके कारण विनिर्दिष्ट पालन के लिये मुकदमा दायर किया गया। 
  • 30 जून 1998 को, ट्रायल कोर्ट ने वादी के पक्ष में एकपक्षीय मुकदमा तय किया। जमीला बीवी ने एकपक्षीय डिक्री को अलग करने के लिये 1998 की I.A. संख्या 2204 दायर की, जिसे 30 जून 1999 को खारिज कर दिया गया। 
  • उच्च न्यायालय ने CMA संख्या 125/1999 में उनकी अपील को स्वीकार कर लिया, मुकदमे को परीक्षण के लिये बहाल कर दिया। 
  • अपने लिखित अभिकथन में, जमीला बीवी ने विक्रय करार से इनकार किया तथा वादी द्वारा छल का आरोप लगाया। 17 मार्च 2003 को, ट्रायल कोर्ट ने करार को वैध एवं लागू करने योग्य मानते हुए मुकदमे को फिर से तय किया।
  • डिक्री को आरएफए संख्या 281/2003 में चुनौती दी गई थी, जिसे उच्च न्यायालय ने 2 अगस्त 2008 को खारिज कर दिया था। 

  • उच्चतम न्यायालय ने भी 13 अगस्त 2008 को एसएलपी (सी) संख्या 18880/2008 को खारिज कर दिया, जिससे डिक्री अंतिम हो गई। 
  • 30 जुलाई 2003 को, वादी ने विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 28(5) और CPC के आदेश XXI नियम 19 के तहत डिक्री के निष्पादन के लिये आईए संख्या 2548/2003 दायर किया। 
  • जमीला बीवी की मृत्यु 19 अक्टूबर 2008 को हुई और वादी ने उनके विधिक उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाने के लिये 20 नवंबर 2008 को आईए संख्या 3823/2008 दायर किया। 
  • कुछ विधिक उत्तराधिकारियों ने निष्पादन पर आपत्ति जताई, दावा किया कि कब्जा नहीं दिया गया और समय पर पूरी शेष राशि जमा नहीं की गई।
  • ट्रायल कोर्ट ने पाया कि 30 जुलाई 2003 को जमा की गई 97,116 रुपए की राशि उच्च न्यायालय के आई.ए. संख्या 931/2004 के पहले के आदेश के अनुसार वैध थी और कब्जे को डिक्री में निहित माना गया था। 
  • 11 अप्रैल 2012 को, संविदा को रद्द करने की मांग करने वाली आई.ए. संख्या 669/2009 को खारिज कर दिया गया था। 
  • उच्च न्यायालय ने 14 जून 2012 को सीआरपी संख्या 233/2012 को खारिज कर दिया, जिसमें रद्द करने की याचिका को खारिज करने की पुष्टि की गई। 
  • 19 जुलाई 2012 को, अपीलकर्त्ता ने आई.ए. संख्या 2348/2012 दायर की, जिसमें पक्षकार सूची से उसका नाम हटाने की मांग की गई, जिसमें दावा किया गया कि वह एक किरायेदार था और विधिक उत्तराधिकारी नहीं था। 
  • 19 जून 2013 को ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता की आई.ए. को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसने 2008 से बिना किसी आपत्ति के कार्यवाही में भाग लिया था और अब वह निष्पादन में विलंब करने का प्रयास कर रहा था।
  • ट्रायल कोर्ट ने माना कि याचिका रचनात्मक रेस ज्यूडिकेटा द्वारा वर्जित थी और इसमें सद्भावना की कमी थी। 
  • अपीलकर्त्ता ने ओ.पी. (सी) संख्या 2290/2013 में आदेश को चुनौती दी, जिसे 29 नवंबर 2021 को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। 
  • उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलकर्त्ता का अभियोग वैध था, तथा उसके आवेदन को रेस ज्यूडिकेटा द्वारा वर्जित किया गया था। 
  • इसने स्वतंत्र कब्जे के उसके दावे को खारिज करने के ट्रायल कोर्ट के निर्णय को भी यथावत रखा। 
  • अपीलकर्त्ता ने अब इन आदेशों के विरुद्ध वर्तमान अपील दायर करके उच्चतम न्यायालय में अपील किया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • विधि न्यायालयों को CPC के आदेश I नियम 10 के अंतर्गत किसी भी स्तर पर पक्षों को शामिल करने या हटाने की अनुमति देता है, लेकिन इस शक्ति का दुरुपयोग कई वर्षों के बाद प्रारंभिक आपत्ति के बिना आदेश XXII नियम 4 के तहत अभियोग को पूर्ववत करने के लिये नहीं किया जा सकता है।
  • यदि अपीलकर्त्ता को विधिक उत्तराधिकारी के रूप में अपने अभियोग पर आपत्ति थी, तो उसे आदेश XXII नियम 4 के उप-नियम (2) के तहत अभियोग के समय उन्हें उठाना चाहिये था।
  • यदि ट्रायल कोर्ट ने उसकी आपत्ति को खारिज कर दिया होता, तो अपीलकर्त्ता उच्च न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण आवेदन दायर करके इसे चुनौती दे सकता था।
  • अपीलकर्त्ता ने, 2008 से अभियोग में शामिल होने और कार्यवाही में भाग लेने के बावजूद, चार साल बाद तक अपने अभियोग पर कभी आपत्ति नहीं की या स्वतंत्र किरायेदार होने का दावा नहीं किया।
  • वह ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय दोनों में, विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 28 के तहत संविदा के निरसन से संबंधित पूर्व कार्यवाही के दौरान भी मौन रहे।
  • भानु कुमार जैन बनाम अर्चना कुमार (2004) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि एक ही कार्यवाही के अंदर विभिन्न चरणों में भी रेस जूडिकेटा का सिद्धांत लागू होता है।
  • जबकि न्यायालय आदेश I नियम 10 के तहत "किसी भी चरण" पर कार्यवाही कर सकते हैं, एक बार निर्णायक रूप से निपटान के बाद एक ही मुद्दे को विभिन्न चरणों में बार-बार नहीं उठाया जा सकता है।
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने तारिणी चरण भट्टाचार्य बनाम केदार नाथ हलधर (1928) में स्पष्ट किया कि एक दोषपूर्ण विधिक निर्णय भी रेस जूडिकेटा के रूप में कार्य कर सकता है यदि उसे समय पर चुनौती नहीं दी जाती है।
  • पहले के मामलों के विपरीत, जहाँ आदेश XXII नियम 4 के तहत अभियोग लगाना स्पष्ट रूप से दोषपूर्ण था, वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता के पास ऐसा कोई आधार नहीं था तथा सही उपचार समय पर आपत्ति करने में था, न कि आदेश I नियम 10 का विलम्ब से आह्वान करने में।
  • अपीलकर्त्ता के इस दावे के संबंध में कि डिक्री में कब्ज़ा शामिल नहीं था, न्यायालय ने रोहित कोचर बनाम विपुल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपर्स लिमिटेड (2024) और बाबू लाल बनाम हजारी लाल किशोरी लाल (1982) में अपने निर्णय की पुष्टि की, जिसमें कहा गया कि जहाँ विक्रेता के पास विशेष कब्ज़ा था, वहाँ विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री में निहित रूप से कब्ज़ा देने का दायित्व शामिल है।
  • इसलिये, यह दावा कि डिक्री-धारक को कब्ज़ा पाने का अधिकार नहीं है, में योग्यता नहीं है तथा इसे अस्वीकार किया जाता है।
  • ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय दोनों ने अपीलकर्त्ता के आवेदन को सही ढंग से खारिज कर दिया, तथा उच्चतम न्यायालय ने अपने निष्कर्षों में कोई विधिक त्रुटि नहीं पाई।
  • अपीलकर्त्ता द्वारा दो सप्ताह के अंदर विधिक सेवा प्राधिकरण को ₹25,000 का भुगतान करने के साथ अपील को खारिज किया जाता है।
  • चूँकि विक्रय विलेख पहले ही प्रतिवादी संख्या 1 के पक्ष में निष्पादित किया जा चुका है, इसलिये निष्पादन न्यायालय को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि मुकदमे वाली संपत्ति का खाली और शांतिपूर्ण कब्जा दो महीने के अंदर उसे सौंप दिया जाए, यदि आवश्यक हो तो पुलिस सहायता का उपयोग किया जाए।

CPC का आदेश I नियम 10 क्या है?

परिचय:

  • आदेश I नियम 10 अन्य तथ्यों के साथ-साथ न्यायालय को कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी पक्ष को शामिल करने, प्रतिस्थापित करने या हटाने की अनुमति देने का अधिकार देता है।
  • आदेश I नियम 10 (1) में यह प्रावधान है कि जब मुकदमा गलत वादी के नाम पर दायर किया जाता है।
    • यह प्रावधान न्यायालयों को उन स्थितियों को सुधारने की अनुमति देता है, जहाँ वादी के रूप में गलत व्यक्ति द्वारा मुकदमा दायर किया गया हो या जहाँ इस विषय में अनिश्चितता हो कि सही वादी ने मुकदमा दायर किया है या नहीं। 
    • न्यायालय के पास विधिक कार्यवाही के किसी भी चरण में सुधार करने की विवेकाधीन शक्ति है, जिसका अर्थ है कि यह उपाय मामले की पूरी अवधि के दौरान उपलब्ध है। 
    • न्यायालय को इस शक्ति का प्रयोग करने के लिये, यह संतुष्ट होना चाहिये कि त्रुटि सद्भावना में की गई वास्तविक चूक के कारण हुई है, न कि किसी छल या दुर्भावनापूर्ण आशय से।
    • न्यायालय को यह भी निर्धारित करना होगा कि मामले के मूल में वास्तविक विवाद को हल करने के लिये सही वादी को प्रतिस्थापित करना या शामिल करना आवश्यक है। 
    • जब न्यायालय ऐसे परिवर्तन करने का निर्णय लेता है, तो वह या तो गलत वादी को सही वादी से प्रतिस्थापित कर सकता है या मामले में उचित समझे जाने पर अतिरिक्त वादी जोड़ सकता है। 
    • न्यायालय के पास यह अधिकार है कि वह इन परिवर्तनों को करते समय जो भी नियम और शर्तें उचित एवं न्यायसंगत समझे, उन्हें लागू कर सकता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सभी पक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाए। 
    • यह प्रावधान वादी के नाम में तकनीकी त्रुटियों के कारण मामलों को खारिज होने से रोकने के लिये एक प्रक्रियात्मक सुरक्षा के रूप में कार्य करता है, जिससे विवादों के मूल समाधान को बढ़ावा मिलता है।
  • सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश I नियम 10 का उप-नियम (2) न्यायालय को मुकदमे की कार्यवाही के किसी भी चरण में पक्षों को शामिल करने या हटाने का व्यापक विवेक प्रदान करता है।
    • न्यायालय कार्यवाही के किसी भी चरण में, किसी पक्ष द्वारा आवेदन किये जाने पर या अपनी स्वयं की पहल पर, पक्षकारों को हटा सकता है या शामिल कर सकता है। 
    • न्यायालय किसी भी पक्ष को हटा सकता है जो मामले में अनुचित तरीके से शामिल हुआ है, चाहे वह वादी हो या प्रतिवादी। 
    • न्यायालय किसी भी ऐसे व्यक्ति को शामिल कर सकता है जिसे पक्षकार के रूप में शामिल किया जाना चाहिये था लेकिन मूल मुकदमे से हटा दिया गया था। 
    • न्यायालय ऐसे पक्षकारों को भी जोड़ सकता है जिनकी उपस्थिति मामले में सभी मुद्दों के पूर्ण एवं प्रभावी निर्णय के लिये आवश्यक है। 
    • ऐसे सभी आदेश उन शर्तों पर दिये जाते हैं जिन्हें न्यायालय सभी संबंधित पक्षों के लिये उचित मानता है। 
    • यह शक्ति विवादों के व्यापक समाधान के लिये पक्षों का उचित गठन सुनिश्चित करती है।
  • CPC के आदेश I नियम 10 के उप-नियम (3) में सहमति आवश्यकताओं का प्रावधान है:
    • किसी भी ऐसे व्यक्ति को वादी के रूप में नहीं शामिल किया जा सकता है, जिसे उस व्यक्ति की स्पष्ट सहमति के बिना अपने पक्ष में मुकदमा करने के लिये किसी अन्य मित्र (विधिक अभिभावक) की आवश्यकता हो। 
    • इसी तरह, किसी भी व्यक्ति को विकलांगता के तहत वादी के लिये उस क्षमता में कार्य करने के लिये उनकी सहमति के बिना अगले मित्र के रूप में नहीं जोड़ा जा सकता है।
  • CPC के आदेश I नियम 10 के उप-नियम (4) में संशोधन का प्रावधान है, जब प्रतिवादी को शामिल किया जाता है:
    • जब मामले में कोई नया प्रतिवादी शामिल किया जाता है, तो इस परिवर्तन को दर्शाने के लिये वादपत्र (दावे का विवरण) में संशोधन किया जाना चाहिये, जब तक कि न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे।
    • समन एवं वादपत्र दोनों की संशोधित प्रतियाँ नए शामिल किये गए प्रतिवादी को दी जानी चाहिये।
    • न्यायालय यह भी आदेश दे सकता है कि संशोधित प्रतियाँ मूल प्रतिवादी को दी जाएँ, यदि वह इसे उचित समझता है।
  • CPC के आदेश I नियम 10 के उप-नियम (5) में अतिरिक्त प्रतिवादियों के लिये परिसीमा अवधि का प्रावधान है।
    • किसी भी नए शामिल किये गए प्रतिवादी के विरुद्ध विधिक कार्यवाही केवल उस तिथि से आरंभ मानी जाती है जब उन्हें समन की तामील की जाती है। 
    • यह प्रावधान भारतीय सीमा अधिनियम, 1877 की धारा 22 की आवश्यकताओं के अधीन है, जो विधिक कार्यवाहियों के लिये समय सीमा को नियंत्रित करता है।

प्रासंगिक मामला कानून:

  • रमेश हीराचंद कुंदनमल बनाम ग्रेटर बॉम्बे नगर निगम (1992):
    • नियम 10 का उप-नियम (2) न्यायालयों को पक्षों में दोषों को दूर करने के लिये व्यापक विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है तथा यह वादी द्वारा आवश्यक पक्षों को रिकॉर्ड पर लाने में विफलता तक सीमित नहीं है।
    • आवश्यक पक्ष को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसके बिना न्यायालय द्वारा कोई प्रभावी आदेश नहीं दिया जा सकता।
    • उचित पक्ष वह होता है जिसकी अनुपस्थिति प्रभावी आदेश को बाधित नहीं करती, लेकिन जिसकी उपस्थिति सभी मुद्दों पर पूर्ण एवं अंतिम निर्णय के लिये आवश्यक होती है।
    • पक्षों को जोड़ना आम तौर पर न्यायालय के प्रारंभिक अधिकार क्षेत्र के प्रश्न के बजाय मामले के तथ्यों के आधार पर न्यायिक विवेक का मामला होता है।
    • किसी व्यक्ति को केवल तभी पक्षकार के रूप में शामिल किया जा सकता है, जब मुकदमे के विषय-वस्तु में उसका प्रत्यक्ष विधिक हित हो, न कि केवल व्यावसायिक हित।
    • किसी व्यक्ति को आवश्यक पक्षकार बनाने के लिये, उसकी उपस्थिति आवश्यक होनी चाहिये ताकि वह न्यायालय के निर्णय से आबद्ध हो सके, तथा उसके बिना प्रश्नों का प्रभावी ढंग से निपटान नहीं किया जा सकता।
    • पक्षकारों को शामिल करने का परीक्षण यह है कि क्या न्यायालय का आदेश व्यक्ति के विधिक अधिकारों के उपयोग को सीधे प्रभावित कर सकता है।
    • प्रासंगिक साक्ष्य या तर्क होने से कोई व्यक्ति आवश्यक पक्षकार नहीं बन जाता - इससे वह केवल आवश्यक साक्षी बन जाएगा।
    • नियम का उद्देश्य केवल कार्यों की बहुलता को रोकने के बजाय पूर्ण न्यायनिर्णयन सुनिश्चित करना है, हालाँकि यह एक आकस्मिक लाभ हो सकता है।

सिविल कानून

रेस जूडिकेटा और इसका अनुप्रयोग

 16-Jun-2025

सुल्तान सईद इब्राहिम बनाम प्रकाशन एवं अन्य

“आदेश XXII के अंतर्गत उचित जाँच के बाद ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को विधिक उत्तराधिकारी के रूप में शामिल किया, उसके बाद कोई आपत्ति या पुनरीक्षण दायर नहीं किया गया, जिससे मुद्दा अंतिम हो गया; इसलिये, बाद में आदेश I नियम 10 के अंतर्गत विलोपन के लिये आवेदन को रेस जूडिकेटा द्वारा रोक दिया गया।”

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने इस तथ्य की पुनः पुष्टि की कि पूर्वन्याय (रेस जूडिकेटा) का सिद्धांत एक ही कार्यवाही के विभिन्न चरणों पर भी लागू होता है, सिवाय उन मुद्दों को पुनः उठाने के जो पहले उठाए जा सकते थे।

  • उच्चतम न्यायालय ने सुल्तान इब्राहिम बनाम प्रकाशन एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

सुल्तान इब्राहिम बनाम प्रकाशन एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मुकदमा 1 सेंट की एक व्यावसायिक संपत्ति से संबंधित है, जिसमें तीन तरफ की दीवारों और सामने के शटर के साथ एक टाइल वाली छत वाली दुकान शामिल है, जो किझुमुरी देसोम, वार्ड नंबर 3, ब्लॉक 42, सर्वे नंबर 1895, पलक्कड़ टाउन, केरल में स्थित है। 
  • मूल विवाद वादी-क्रेता और प्रतिवादी जमीला बीवी के बीच 14 जून 1996 को विक्रय के लिये एक करार के विनिर्दिष्ट पालन के संबंध में उत्पन्न हुआ था। 
  • विक्रय के लिये करार कुल 6,00,000/- रुपये के लिये निष्पादित किया गया था, जिसमें 4,50,000/- रुपये अग्रिम के रूप में दिये गए थे तथा शेष 1,50,000/- रुपये तीन महीने के भीतर चुकाए जाने थे। 
  • मूल प्रतिवादी के पोते, अपीलकर्त्ता ने इस करार के साक्षी के रूप में कार्य किया। प्रतिवादी ने मूल रूप से 10 सितंबर 1976 को एक असाइनमेंट डीड के माध्यम से संपत्ति हासिल की थी।
  • जब प्रतिवादी विधिक नोटिस के बावजूद विक्रय विलेख निष्पादित करने में विफल रहा, तो वादी ने विनिर्दिष्ट पालन के लिये ओएस संख्या 617/1996 स्थापित की। इस मुकदमे को शुरू में 30.06.1998 को एकपक्षीय रूप से डिक्री किया गया था, लेकिन प्रतिवादी द्वारा सफल चुनौती के बाद इसे परीक्षण के लिये बहाल कर दिया गया था। 
  • विवादित कार्यवाही के बाद, मुकदमे को अंततः 17.03.2003 को डिक्री किया गया, जिसमें शेष प्रतिफल के भुगतान पर विक्रय विलेख के निष्पादन का निर्देश दिया गया। प्रतिवादी की अपील (आरएफए संख्या 281/2003) को केरल उच्च न्यायालय ने 02 अगस्त 2008 को खारिज कर दिया था। 
  • इसके बाद, उच्चतम न्यायालय ने भी 13 अगस्त 2008 को प्रतिवादी की एसएलपी (सी) संख्या 18880/2008 को खारिज कर दिया निष्पादन के लंबित रहने के दौरान, मूल प्रतिवादी की 19 अक्टूबर 2008 को मृत्यु हो गई, जिससे आई.ए. संख्या 3823/2008 के माध्यम से विधिक उत्तराधिकारियों को अभियोजित करना आवश्यक हो गया, जिसे वर्तमान अपीलकर्त्ता सहित किसी भी प्रस्तावित विधिक उत्तराधिकारी की आपत्ति के बिना अनुमति दे दी गई।
  • इसके बाद विभिन्न विधिक उत्तराधिकारियों द्वारा संविदा को रद्द करने की मांग करते हुए कई आवेदन दायर किये गए, जिन्हें ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट दोनों ने लगातार खारिज कर दिया। वर्तमान अपीलकर्त्ता इन कार्यवाहियों के दौरान मौन रहा, जबकि उसे तामील की गई और वह प्रतिवादी के रूप में उपस्थित हुआ। 
  • जुलाई 2012 में, उसके अभियोग के लगभग चार वर्ष बाद और निरसन आवेदन को खारिज किये जाने के एक महीने के भीतर, अपीलकर्त्ता ने पार्टी सरणी से हटाने की मांग करते हुए आदेश I नियम 10 CPC के अंतर्गत आईए नंबर 2348/2012 दायर किया। उन्होंने दावा किया कि उन्हें मुस्लिम विधि के अंतर्गत दोषपूर्ण तरीके से अभियोग में लाया गया था तथा उन्होंने अपने मृत पिता से उत्तराधिकार में मिले किरायेदारी अधिकारों का दावा किया, जबकि उन्होंने विक्रय करार को देखा था और ऐसी आपत्तियाँ उठाए बिना पिछली कार्यवाही में भाग लिया था। 
  • हटाने के आवेदन को 19 जून 2013 को ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था, तथा बाद में केरल उच्च न्यायालय ने 29.11.2021 को ओपी (सी) संख्या 2290/2013 में खारिज कर दिया, जिसके कारण उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील हुई। दो दशकों से अधिक समय तक चले इस मुकदमे के दौरान, वादी 2003 से अंतिम आदेश प्राप्त करने के बावजूद कब्जा प्राप्त करने में असमर्थ रहा है।

 न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना कि रेस जूडिकेटा का सिद्धांत न केवल विभिन्न कार्यवाहियों के बीच संचालित होता है, बल्कि एक ही कार्यवाही के भीतर क्रमिक चरणों तक अपना अनुप्रयोग बढ़ाता है। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि एक बार जब कोई मामला किसी भी चरण में न्यायिक निर्धारण के माध्यम से अंतिम रूप प्राप्त कर लेता है, तो पक्षों को उसी मुकदमे के बाद के चरणों में समान मुद्दों को फिर से उठाने से रोक दिया जाता है। 
  • न्यायालय ने देखा कि जहाँ प्रतिवादी की मृत्यु के बाद आदेश XXII नियम 4 CPC के अंतर्गत उचित जाँच के बाद विधिक उत्तराधिकारियों का अभियोग प्रभावित होता है, तथा प्रस्तावित विधिक उत्तराधिकारी द्वारा नोटिस की तामील और उपस्थिति के बावजूद ऐसा अभियोग बिना किसी आपत्ति के आगे बढ़ता है, उक्त अभियोग अंतिम रूप प्राप्त करता है। 
  • आदेश I नियम 10 CPC के अंतर्गत कोई भी बाद का आवेदन, पक्षकार की सूची से हटाने की मांग करता है, जो बहुत विलंब और कई हस्तक्षेप करने वाली कार्यवाहियों के बाद दायर किया जाता है, प्रक्रिया का दुरुपयोग होता है और रचनात्मक रेस जूडिकेटा द्वारा वर्जित होता है।
  • न्यायालय ने कहा कि अन्य विलंबकारी आवेदनों को खारिज करने के तुरंत बाद दायर किये गए विलोपन आवेदन का समय, साथ ही आपत्ति करने के कई अवसरों के बावजूद अपीलकर्त्ता की लंबी चुप्पी, आवेदन की प्रामाणिकता पर गंभीर रूप से सवाल उठाती है। 
  • इस तरह का आचरण अभियोग के विषय में वास्तविक शिकायत के बजाय कार्यवाही को लंबा खींचने की एक सुनियोजित रणनीति को दर्शाता है। न्यायालय ने माना कि किरायेदारी अधिकारों के केवल दावे, समकालीन दस्तावेजों द्वारा समर्थित नहीं हैं तथा विक्रय करार के साक्षी के रूप में पक्षकार के अपने आचरण से विरोधाभासी हैं, उन्हें बनाए नहीं रखा जा सकता। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि निष्पादन कार्यवाही के दौरान पहली बार उठाए गए किरायेदारी के दावे, दलीलों या पहले की कार्यवाही में किसी भी आधार के बिना, डिक्री निष्पादन को बाधित करने के लिये डिज़ाइन किये गए बाद के विचार हैं।

रेस जूडिकेटा के सिद्धांत क्या हैं?

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में रेस जूडिकेटा का सिद्धांत स्थापित किया गया है, जो न्यायालयों को किसी भी ऐसे मुकदमे या मुद्दे पर सुनवाई करने से रोकता है, जहाँ मामला पहले से ही एक सक्षम न्यायालय द्वारा उन्हीं पक्षों के बीच एक पूर्व मुकदमे में सीधे और काफी हद तक तय किया जा चुका है।

  • मुख्य तत्त्व:
    • एक ही पक्ष या उनके अंतर्गत दावा करने वाले। 
    • मुकदमे में उल्लिखित एक समान हक। 
    • दोनों मुकदमों में मामला सीधे और काफी हद तक मुद्दा होना चाहिये। 
    • पिछले निर्णय को एक सक्षम न्यायालय द्वारा सुना जाना चाहिये और अंतिम रूप से निर्णय दिया जाना चाहिये।
  • मूल सिद्धांत:
    • यह धारा इस विधिक सिद्धांत को प्रतिबिम्बित करती है कि किसी भी मामले का दो बार निर्णय नहीं किया जाना चाहिये - एक बार सक्षम न्यायालय द्वारा पक्षों के बीच किसी मुद्दे पर निर्णय दे दिये जाने के बाद, कोई भी पक्ष आगामी कार्यवाही में उसी मामले को पुनः नहीं उठा सकता।
  • महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण:
    • स्पष्टीकरण IV विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है - यह मानता है कि कोई भी मामला जो "पूर्ववर्ती मुकदमे में बचाव या हमले के रूप में उठाया जा सकता था और उठाया जाना चाहिये था" को सीधे मुद्दे में माना जाता है। 
    • स्पष्टीकरण VII निष्पादन कार्यवाही के लिये रेस जूडिकेटा को बढ़ाता है। 
    • स्पष्टीकरण VIII सीमित अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालयों के निर्णयों को बाद के मुकदमों में रेस जूडिकेटा के रूप में संचालित करने की अनुमति देता है।
  • तीन लैटिन विधिक सूत्रों पर आधारित:
    • इंटरेस्ट रिपब्लिका यूट सिट फिनिस लिटियम - मुकदमेबाजी का अंत होना चाहिये।
    • नेमो डेबेट बिस वेक्सारी - किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार परेशान नहीं किया जाना चाहिये।
    • रेस जूडिकेटा प्रो वेरिटेट ओसीसीपिटुर - न्यायिक निर्णयों को सही माना जाना चाहिये।

संदर्भित मामले

  • भानु कुमार जैन बनाम अर्चना कुमार (2005): इस मामले ने स्थापित किया कि रेस ज्यूडिकेटा सिद्धांत न केवल विभिन्न कार्यवाहियों के बीच लागू होते हैं, बल्कि एक ही कार्यवाही के विभिन्न चरणों पर भी लागू होते हैं, जो पक्षों को तय किये गए मुद्दों पर फिर से मुकदमा चलाने से रोकते हैं।
  • सत्यध्यान घोषाल बनाम देवराजिन देबी (1960): उच्चतम न्यायालय ने माना कि न्यायिक निर्णयों को अंतिम रूप देने के लिये रेस ज्यूडिकेटा आवश्यक है, जो पक्षों को पहले से तय मामलों पर फिर से मुकदमा चलाने से रोकता है, चाहे वह पिछले और भविष्य के मुकदमों के बीच हो या एक ही कार्यवाही के विभिन्न चरणों के बीच हो।
  • वाई.बी. पाटिल और अन्य बनाम वाई.एल. पाटिल (1976): इस मामले ने स्पष्ट किया कि कार्यवाही के दौरान एक बार जब कोई आदेश अंतिम हो जाता है, तो यह रेस ज्यूडिकेटा सिद्धांतों के अंतर्गत उसी कार्यवाही के बाद के चरणों में बाध्यकारी हो जाता है। 
  • होप प्लांटेशन्स लिमिटेड बनाम तालुक लैंड बोर्ड पीरमाडे (1999): न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि सक्षम न्यायालयों द्वारा लिये गए निर्णय अंतिम होने चाहिये, जब तक कि अपीलीय प्राधिकारियों द्वारा उन्हें संशोधित न किया जाए, तथा किसी भी व्यक्ति को एक ही मुकदमे का दो बार सामना नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह निष्पक्षता एवं न्याय के विपरीत होगा।
  • एस. रामचंद्र राव बनाम एस. नागभूषण राव (2022): इस मामले ने इस तथ्य की पुष्टि की कि एक ही मुद्दे से संबंधित एक ही मुकदमे में सक्षम न्यायालय द्वारा दिये गए दोषपूर्ण निर्णय भी पक्षों पर बाध्यकारी रहते हैं, और रेस ज्यूडिकेटा उसी कार्यवाही के बाद के चरणों पर भी लागू होता है। 
  • गोविंदम्मल बनाम वैद्यनाथन (2017): इस मामले में सह-प्रतिवादियों के बीच रेस ज्यूडिकेटा के सिद्धांत को लागू करने के लिये तीन शर्तें पूरी करना आवश्यक है:
    • सह-प्रतिवादियों के बीच हितों का टकराव अवश्य होना चाहिये; 
    • वादी को राहत देने के लिये उक्त टकराव का निर्णय करना आवश्यक है; 
    • तथा उक्त टकराव पर अंतिम निर्णय होना चाहिये।
  • तारिणी चरण भट्टाचार्य बनाम केदार नाथ हलधर (1928): कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी निर्णय के उचित या दोषपूर्ण होने का उसके न्यायिक संचालन पर कोई असर नहीं पड़ता है, तथा धारा 11 CPC, प्रयुक्त तर्क की परवाह किये बिना पक्षों के बीच न्यायालयी निर्णयों को निर्णायक बनाती है।