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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

जारकर्म और भरणपोषण

 13-May-2025

किसी स्त्री का विवाह से पूर्व किसी व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध होना "जारकर्म" की परिभाषा में नहीं आता, क्योंकि जारकर्म एक ऐसा अपराध है जो पति या पत्नी के प्रति किया जाता है। तथापि, विवाह के पश्चात् किसी पत्नी का व्यभिचारी जीवन निर्विवाद रूप से उसे अपने पति से भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकार से वंचित करता है। परंतु, "जारता में जीवन-यापन" का तात्पर्य निरंतर अनैतिक आचरण की प्रवृत्ति से है, न कि केवल कुछ पृथक् या आकस्मिक अनैतिक कृत्यों से।" 

 न्यायमूर्ति जितेंद्र कुमार 

स्रोत:  पटना उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति जितेन्द्र कुमार ने यह निर्णय दिया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत पत्नी केवल कुछ एकल अप्राकृतिक या नैतिक चूकों के आधार पर भरण-पोषण प्राप्त करने से वंचित नहीं की जा सकती; भरण-पोषण के अधिकार से वंचित करने हेतु यह आवश्यक है कि वह निरंतर व्यभिचारपूर्ण जीवन जी रही हो, अर्थात् "जारकर्म में जीवन-यापन" कर रही हो। 

  • पटना उच्च न्यायालय ने अवध किशोर साह बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय सुनाया । 

अवध किशोर साह बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • अवध किशोर साह और सोनी देवी का विवाह 18 मार्च, 2010 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ। 
  • सोनी देवी ने आरोप लगाया कि दहेज की मांग पूरी न होने पर उसके पति ने उसके साथ मारपीट की, जिसके कारण उसे ससुराल छोड़कर अपने मायके में रहने को मजबूर होना पड़ा। 
  • सोनी देवी ने आगे दावा किया कि अवध किशोर साह का खुशबू कुमारी नामक महिला के साथ अवैध संबंध था, जिसके कारण उसे दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा। 
  • विवाह के लगभग 4 महीने और 10 दिन बाद 8 अगस्त 2010 को सोनी देवी के घर गुड़िया कुमारी नाम की एक बेटी का जन्म हुआ। 
  • सोनी देवी ने अपने पति के विरुद्ध दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण का मामला (विविध मामला संख्या 96, 2012) दायर किया, जिसमें उन्होंने अपने और अपनी पुत्री के लिये वित्तीय सहायता की मांग की। 
  • अवध किशोर साह ने भरण-पोषण याचिका का विरोध करते हुए दावा किया कि यह विवाह जबरन कराया गया था, बच्चे के पितृत्व को नकार दिया गया था, तथा आरोप लगाया कि सोनी देवी का अपने देवर विष्णुदेव साह के साथ अवैध संबंध था। 
  • पति ने विवाह-विच्छेद के लिये याचिका दायर की, जिसे 1 मार्च, 2025 को मुंगेर के कुटुंब न्यायालय ने क्रूरता के आधार पर मंजूर कर लिया , किंतु उसके परित्याग की याचिका खारिज कर दी गई। 
  • भागलपुर के कुटुंब न्यायालय ने अवध किशोर साह को अपनी पत्नी को 3,000 रुपए प्रति माह और अपनी अवयस्क पुत्री को 2,000 रुपए प्रति माह भरण-पोषण देने का आदेश दिया, जिसे उन्होंने आपराधिक पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से चुनौती दी।  

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि पत्नी की ओर से की गई कुछ चूक या नैतिक विफलताएं उसे उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरण-पोषण का दावा करने से स्वतः ही अयोग्य नहीं बनाती है। 
  • न्यायालय ने जारकर्म और "जारता में रहने" के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए स्पष्ट किया कि जारकर्म एक सतत आचरण को दर्शाता है, न कि अनैतिकता के पृथक् कृत्यों को।  
  • न्यायालय ने कहा कि विवाह से पूर्व किसी महिला का किसी अन्य व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध "जारकर्म" नहीं माना जाएगा, क्योंकि जारकर्म अपने पति या पत्नी के विरुद्ध अपराध है। 
  • न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के अधीन वैध विवाह के दौरान पैदा हुए बच्चे को तब तक वैध माना जाता है, जब तक कि पति-पत्नी के बीच परस्पर पहुँच साबित न हो जाए। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पति अपनी पत्नी के कथित जारता के जीवन के संबंध में विशिष्ट साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा, तथा उसने समय, स्थान या ठोस सबूत के विवरण के बिना केवल आरोप ही लगाए। 
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन कार्यवाही संक्षिप्त प्रकृति की है, जिसका उद्देश्य स्‍वेच्‍छाचारिता और अभाव को रोकना है, तथा इसमें वैवाहिक कार्यवाही में आवश्यक सबूत के सख्त मानक की आवश्यकता नहीं होती है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि भरण-पोषण कार्यवाही में वैवाहिक स्थिति या पितृत्व के संबंध में निष्कर्ष अस्थायी हैं तथा सक्षम सिविल या कुटुंब न्यायालयों द्वारा निर्धारण के अधीन हैं। 

उल्लिखित विधिक प्रावधान क्या हैं? 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 - धारा 144 (भरणपोषण आदेश) 

  • धारा 144 पत्नी, संतान और माता-पिता के लिये न्यायालय द्वारा आदेशित भरण-पोषण से संबंधित है। उपधारा (4) और (5) विशेष रूप से उन परिस्थितियों को संबोधित करती है, जहाँ पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को प्रतिबंधित या समाप्त कर दिया जाता है: 

उपधारा (4) - भरणपोषण के अधिकार के लिये अयोग्यता 

  • पत्नी अपने पति से भरण-पोषण भत्ता या अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के व्यय प्राप्त करने का विधिक अधिकार खो देती है, यदि: 
    • जारता : पत्नी के जारता की दशा में रहने का सबूत है। यह विधिक स्थिति को दर्शाता है कि भरण-पोषण दायित्त्व वैवाहिक संबंध से उत्पन्न होते हैं, जिसे जारता द्वारा मूल रूप से भंग माना जाता है। 
    • सहवास से अनुचित इंकार: पत्नी बिना किसी विधिक रूप से पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है। विधि यह मानती है कि भरणपोषण का दायित्त्व वैवाहिक कर्त्तव्यों की पूर्ति के साथ मेल खाता है, जिसमें सहवास भी सम्मिलित है। 
    • पारस्परिक सम्मति से पृथक् : दंपत्ति पारस्परिक सम्मति से पृथक्रह रहे हैं। यह मान्यता है कि जब पृथक्करण स्वैच्छिक होता है और दोनों पक्षकारों द्वारा सहमति व्यक्त की जाती है, तो स्वतः भरण-पोषण दायित्त्व लागू नहीं हो सकता है। 

उपधारा (5) - विद्यमान भरणपोषण के आदेशों को रद्द करना 

  • यदि पत्नी के पक्ष में भरणपोषण आदेश पहले ही जारी किया जा चुका है, किंतु बाद में निम्नलिखित में से कोई भी बात साबित हो जाती है: 
    • वह जारता की दशा में रह रही है 
    • वह बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इंकार कर देती है 
    • यह दांपत्य अब आपसी सम्मति से पृथक् रह रहा है 
  • मजिस्ट्रेट विधिक तौर पर पहले जारी किये गए भरणपोषण आदेश को रद्द करने के लिये आबद्ध है। यह उपबंध सुनिश्चित करता है कि भरण-पोषण आदेश वैवाहिक दायित्त्वों और परिस्थितियों की निरंतर पूर्ति पर निर्भर रहेगा। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 - धारा 116 (धर्मजत्व की उपधारणा) 

  • धारा 116 बालक की धर्मजत्व के संबंध में एक मजबूत विधिक उपधारणा स्थापित करती है: 
    • एक बच्चा तभी निश्चायक रूप से धर्मजत्व माना जाता है जब वह: 
      • वैध विवाह के दौरान 
      • विवाह विच्छेद के 280 दिनों के भीतर (यदि माँ अविवाहित रहती है) 
    • इस उपधारणा का खण्डन केवल इस बात को साबित करके किया जा सकता है कि संभावित गर्भाधान के समय दंपत्ति की एक-दूसरे तक कोई शारीरिक पहुँच नहीं थी।  
  • ये उपबंध परिवार के भरणपोषण के दायित्त्वों और पितृत्व संबंधी धारणाओं के प्रति आधुनिक भारतीय विधि के दृष्टिकोण को दर्शाते हैं, जो आश्रितों के लिये विधिक संरक्षण के साथ पारंपरिक पारिवारिक संरचनाओं को संतुलित करते हैं।

सांविधानिक विधि

COI का अनुच्छेद 227

 13-May-2025

मेसर्स जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स बंसल इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड

"हम इस स्थापित विधिक सिद्धांत से अवगत हैं कि न्यायालयों को बैंक गारंटी के आह्वान में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिये, सिवाय गंभीर प्रकृति के छल के मामलों में या ऐसे मामलों में जहाँ नकदीकरण की अनुमति देने से अपूरणीय अन्याय हो सकता है।"

न्यायमूर्ति आर. महादेवन एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति आर. महादेवन एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि असाधारण परिस्थितियों में उच्च न्यायालय अंतरिम अनुतोष देने के लिये संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत अपने पर्यवेक्षी अधिकारिता का प्रयोग कर सकता है।

  • उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स बंसल इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।

मेसर्स जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड एवं अन्य बनाम मेसर्स बंसल इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ताओं ने 24 जनवरी 2022 को जिंदल नगर में 400 फ्लैटों के निर्माण के लिये प्रतिवादी संख्या 1 (मेसर्स बंसल इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड) को कार्य आदेश जारी किया, जिसकी कीमत 43,99,46,924.13 रुपये थी। 
  • अपीलकर्त्ताओं ने 3,73,95,490 रुपये का अग्रिम भुगतान किया, जिसे प्रतिवादी संख्या 1 से 8 मार्च 2022 की बैंक गारंटी (सं. 32700IGL0001122) द्वारा सुरक्षित किया गया था। 
  • मूल परियोजना पूर्ण होने की समय सीमा 30 सितंबर 2022 निर्धारित की गई थी, लेकिन बाद में इसे बढ़ाकर 30 जून 2023 कर दिया गया और फिर 60 दिनों के लिये आगे बढ़ा दिया गया। 
  • परियोजना की समय सीमा को फिर से 30 सितंबर 2023 तक बढ़ा दिया गया, इस शर्त के साथ कि यदि परियोजना इस तिथि से आगे बढ़ती है तो प्रतिधारण राशि जब्त कर ली जाएगी। 
  • गुणवत्ता संबंधी कमियों, समय-सीमा चूकने और संविदात्मक दायित्वों का पालन न करने के कारण, अपीलकर्त्ताओं ने संविदा में कई खंडों के अनुसार कार्य आदेश को समाप्त कर दिया। 
  • 21 फरवरी 2024 को, अपीलकर्त्ताओं ने प्रतिवादी संख्या 1 को एक पत्र भेजा, जिसमें निर्माण मानदंडों की अवहेलना पर प्रकाश डाला गया, जिससे मानकों से समझौता हुआ और सुरक्षा जोखिम उत्पन्न हुआ।
  • जब प्रतिवादी संख्या 1 सुधारात्मक कार्यवाही करने में विफल रहा, तो अपीलकर्त्ताओं ने 25 मार्च 2024 को एक पत्र भेजा, जिसमें 30 अप्रैल 2024 तक 4,12,54,904 रुपये (असमायोजित अग्रिम और अन्य कटौतियों के लिये उत्तरदायी) की वापसी का अनुरोध किया गया, जिसके विफल होने पर बैंक गारंटी को भुनाया जाएगा। 
  • प्रतिवादी संख्या 1 ने माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 9 के अंतर्गत एक मध्यस्थता याचिका (संख्या 14, 2024) दायर की, जिसमें अपीलकर्त्ताओं को समाप्ति नोटिस के साथ आगे बढ़ने और बैंक गारंटी को भुनाने से रोकने के लिये एक अंतरिम आदेश की मांग की गई। 
  • जब वाणिज्यिक न्यायालय ने एकपक्षीय निषेधाज्ञा के लिये आवेदन को खारिज कर दिया, तो प्रतिवादी संख्या 1 ने एक रिट याचिका (W.P.(C) संख्या 11848/2024) दायर की, जिसमें उच्च न्यायालय ने बैंक गारंटी के नकदीकरण के संबंध में यथास्थिति का आदेश दिया। 
  • प्रतिवादी संख्या 1 ने 24 जनवरी 2022 के कार्य आदेश/संविदा के खंड 58.3 के अनुसार मध्यस्थता कार्यवाही भी आरंभ की। 
  • 20 अगस्त 2024 को, उच्च न्यायालय ने मध्यस्थता याचिका संख्या 14/2024 के निपटान तक बैंक गारंटी के नकदीकरण पर रोक जारी रखने का आदेश पारित किया, जिसे अब अपीलकर्त्ताओं द्वारा चुनौती दी जा रही है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • अपील में उच्च न्यायालय के उस अंतरिम आदेश को चुनौती दी गई है, जिसमें अपीलकर्त्ताओं को A&C अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान बैंक गारंटी का आह्वान करने से रोका गया है।
  • न्यायालय ने स्थापित विधिक सिद्धांत को स्वीकार किया है कि न्यायालयों को बैंक गारंटी आह्वान में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिये, सिवाय उन मामलों के, जहाँ गंभीर छल हो या जहाँ नकदीकरण से संबंधित अपूरणीय अन्याय हो।
  • न्यायालय ने हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (1999) का उदाहरण दिया, जिसमें इस तथ्य पर बल दिया गया था कि बैंक गारंटी वाणिज्यिक संव्यवहार की रीढ़ की हड्डी के रूप में कार्य करती है तथा उन्हें उनकी शर्तों के अनुसार सम्मानित किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने नोट किया कि उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की सहमति से रिट याचिका का निपटान किया, जिसमें कहा गया कि अपीलकर्त्ताओं को बैंक गारंटी का आह्वान करने की अनुमति देने से धारा 9 मध्यस्थता याचिका निष्फल हो जाएगी।
  • न्यायालय ने देखा कि उच्च न्यायालय का आदेश केवल एक अंतरिम उपाय है, जिसका उद्देश्य दोनों पक्षों के हितों की रक्षा करना है।
  • न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी संख्या 1 ने मध्यस्थता कार्यवाही आरंभ की है, तथा उच्च न्यायालय के 6 नवंबर 2024 के आदेश के अनुसरण में, एक मध्यस्थ अधिकरण का गठन किया गया है।
  • न्यायालय ने मामले से संबंधित चल रही मध्यस्थता कार्यवाही को देखते हुए धारा 9 मध्यस्थता याचिका के अंतिम परिणाम तक बैंक गारंटी के संबंध में मौजूदा स्थिति को बनाए रखना अनिवार्य पाया। 
  • न्यायालय ने नोट किया कि प्रतिवादी संख्या 1 ने बैंक गारंटी को 30 जून 2025 तक बढ़ा दिया है तथा धारा 9 मध्यस्थता याचिका के निपटान तक इसे आगे बढ़ाने का वचन दिया है। 
  • न्यायालय ने उठाए गए विधिक मुद्दों पर निर्णय नहीं करने का निर्णय किया तथा उन्हें भविष्य के विचार के लिये खुला छोड़ दिया। 
  • न्यायालय ने पक्षों को वाणिज्यिक न्यायालय के समक्ष आवश्यक दस्तावेजों के साथ अपने सभी तर्क प्रस्तुत करने का निर्देश दिया, जो आठ सप्ताह के अंदर उचित आदेश पारित करेगा। 
  • न्यायालय ने आदेश दिया कि बैंक गारंटी को बनाए रखा जाएगा तथा धारा 9 मध्यस्थता याचिका के परिणाम के अधीन होगा।

भारतीय संविधान, 1950 (COI) का अनुच्छेद 227 क्या है?

  • COI का अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालय को अधीक्षण की शक्ति प्रदान करता है।
  • प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने क्षेत्रीय अधिकारिता के अंदर सभी न्यायालयों एवं अधिकरणों पर पर्यवेक्षी शक्ति प्राप्त है।
  • उच्च न्यायालय निम्न कार्य कर सकता है:
    • अधीनस्थ न्यायालयों से रिपोर्ट मांगना 
    • इन न्यायालयों के संचालन को विनियमित करने के लिये नियम बनाना और प्रपत्र बनाना 
    • निर्णय लेना कि न्यायालय अधिकारियों द्वारा रिकॉर्ड एवं खाते कैसे रखे जाने चाहिये
  • उच्च न्यायालय इन न्यायालयों में कार्य करने वाले न्यायालय अधिकारियों, अटॉर्नी, अधिवक्ताओं और अपीलकर्त्ताओं के लिये शुल्क अनुसूची भी स्थापित कर सकता है।
  • उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए कोई भी नियम, प्रपत्र या शुल्क अनुसूची:
    • मौजूदा विधानों के साथ टकराव नहीं होना चाहिये
    • कार्यान्वयन से पहले राज्यपाल की स्वीकृति की आवश्यकता है
  • यह पर्यवेक्षी शक्ति सैन्य न्यायालयों या सशस्त्र बलों से संबंधित विधानों के अंतर्गत स्थापित अधिकरणों तक विस्तारित नहीं होती है। 
  • सरल शब्दों में, अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालयों को सैन्य न्यायालयों को छोड़कर अपने क्षेत्र में सभी अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यप्रणाली की देखरेख एवं विनियमन का अधिकार देता है।

सिविल कानून

शिक्षा का अधिकार अधिनियम

 13-May-2025

केंद्र शासित प्रदेश, चंडीगढ़ एवं अन्य बनाम साक्षी मलिक एवं अन्य

“एकरूपता बनाए रखने और अस्पष्टता को दूर करने के लिये, हमें JBT शिक्षक के रूप में नियुक्ति के उद्देश्य से D.El.Ed. के अतिरिक्त B.El.Ed. को भी एक समान पात्रता के रूप में शामिल करने के लिये विज्ञापन को पढ़ना चाहिये, जिसका एकमात्र उद्देश्य विज्ञापन एवं पहले से किये गए चयन को संरक्षित करना है”।

न्यायमूर्ति संजीव प्रकाश शर्मा एवं न्यायमूर्ति मीनाक्षी आई. मेहता

स्रोत:  पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति संजीव प्रकाश शर्मा एवं न्यायमूर्ति मीनाक्षी आई. मेहता की पीठ ने माना है कि जूनियर बेसिक टीचर (JBT) के पद के लिये, बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE) एवं NCTE मानदंडों के अनुसार प्रारंभिक शिक्षा में डिप्लोमा (D.El.Ed.) या प्रारंभिक शिक्षा में स्नातक (B.El.Ed.) एक आवश्यक अर्हता है।

  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ एवं अन्य बनाम साक्षी मलिक एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ एवं अन्य बनाम साक्षी मलिक एवं अन्य, 2025 मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • चंडीगढ़ प्रशासन ने 16 जनवरी 2024 को जूनियर बेसिक टीचर (JBT) पदों के लिये आवेदन आमंत्रित करते हुए एक विज्ञापन जारी किया। 
  • चंडीगढ़ शिक्षा सेवा (स्कूल कैडर) (ग्रुप-सी) भर्ती नियम, 1991 (2018 में संशोधित) के अनुसार, आवश्यक अर्हताएँ निम्नलिखित थीं:
    • किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से स्नातक या समकक्ष, और
    • NCTE द्वारा मान्यता प्राप्त प्राथमिक शिक्षा में दो वर्षीय डिप्लोमा (D.El.Ed), या
    • कम से कम 50% अंकों के साथ स्नातक और शिक्षा स्नातक (बी.एड)
    • केंद्रीय शिक्षक पात्रता परीक्षा में उत्तीर्ण
    • 28.04.2024 को लिखित परीक्षा आयोजित किये जाने के बाद, उत्तरदाताओं सहित अभ्यर्थियों को दस्तावेज़ सत्यापन के लिये आमंत्रित किया गया था।
  • बैचलर ऑफ एलीमेंट्री एजुकेशन (B.El.Ed) पात्रता रखने वाले कई अभ्यर्थियों को इस आधार पर अयोग्य घोषित कर दिया गया कि उनके पास विज्ञापन में निर्दिष्ट दो वर्षीय डिप्लोमा इन एलीमेंट्री एजुकेशन (D.El.Ed) नहीं है। 
  • स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने का अवसर दिये जाने के बावजूद, अभ्यर्थियों को अंततः अयोग्य घोषित कर दिया गया। 
  • प्रभावित अभ्यर्थियों ने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) के समक्ष मूल आवेदन (OA) दाखिल किये। 
  • CAT ने 19.09.2024, 25.11.2024 एवं 25.10.2024 के आदेशों के माध्यम से उनके आवेदनों को अनुमति दी, तथा चंडीगढ़ प्रशासन को उनकी उम्मीदवारी पर विचार करने का निर्देश दिया। 
  • इन आदेशों से व्यथित होकर चंडीगढ़ प्रशासन ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिकाएँ दायर कीं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद अधिनियम लागू होने के बाद, शिक्षण पदों को भरने के लिये आवश्यक पात्रताएँ NCTE अधिनियम के अनुरूप होनी चाहिये, जिससे समय-समय पर भर्ती नियमों में संशोधन की आवश्यकता होती है। 
  • न्यायालय ने उल्लेख किया कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE अधिनियम) 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा को अनिवार्य बनाता है, जिसमें NCTE शिक्षकों के लिये न्यूनतम पात्रता निर्धारित करता है। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि RTE अधिनियम की धारा 23(1) के अंतर्गत जारी NCTE अधिसूचना दिनांक 23.08.2010 ने कक्षा I-V के शिक्षकों के लिये न्यूनतम अर्हता निर्धारित की, जिसमें D.El.Ed एवं B.El.Ed दोनों को पात्रता प्रमाण-पत्र के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई।
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि शिक्षक शिक्षा से संबंधित मामलों में, "अंतिम प्राधिकार NCTE के पास है" जैसा कि महाराष्ट्र राज्य बनाम संत ज्ञानेश्वर शिक्षण शास्त्र महाविद्यालय (2006) में पहले ही स्थापित किया जा चुका है। 
  • न्यायालय ने पाया कि शिक्षा मानकों का क्षेत्र "संविधान की अनुसूची VII की सूची I की प्रविष्टि 66 द्वारा विशेष रूप से शामिल किया गया है" तथा राज्य अधिकारियों के पास इस क्षेत्र में संसद की विधायी शक्ति का अतिक्रमण करने का कोई अधिकार नहीं है। 
  • न्यायालय ने पाया कि 2010 के NCTE विनियमों के बाद, "चंडीगढ़ प्रशासन पर यह दायित्व था कि वह NCTE द्वारा जारी अधिसूचना के अनुरूप अपने नियमों को अपनाए और तैयार करे" तथा "विज्ञापन जारी करते समय कोई विचलन नहीं किया जा सकता था"।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि "आवश्यक तथ्य यह है कि अभ्यर्थी के पास प्राथमिक शिक्षा का ज्ञान होना चाहिये" जिसे NCTE द्वारा मान्यता प्राप्त D.El.Ed या B.El.Ed पात्रता के माध्यम से प्रदर्शित किया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि "चंडीगढ़ प्रशासन की ओर से चूक किसी व्यक्ति विशेष को कोई लाभ नहीं दे सकती" तथा कहा कि विज्ञापन को D.El.Ed के साथ-साथ B.El.Ed को भी समान पात्रता के रूप में शामिल करने के लिये मानना चाहिये। 
  • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि न्यायालयों को "पहले से आयोजित भर्ती को बचाने के लिये हमेशा विधि के प्रावधानों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करना चाहिये", विशेषकर तब जब अभ्यर्थी पहले से ही चयन प्रक्रिया में भाग ले चुके हों।

भारत में शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

  • यह अधिनियम भारत में छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करता है।
  • यह स्थापित करता है कि प्रत्येक बच्चे को औपचारिक स्कूल में संतोषजनक गुणवत्ता वाली पूर्णकालिक प्राथमिक शिक्षा का अधिकार है जो कुछ आवश्यक मानदंडों एवं मानकों को पूरा करता है।
  • यह अधिनियम निजी स्कूलों में प्रवेश में आर्थिक रूप से वंचित समुदायों के लिये 25% आरक्षण को अनिवार्य बनाता है।
  • यह सभी गैर-मान्यता प्राप्त स्कूलों को संचालित करने पर रोक लगाता है तथा बिना मान्यता के संचालित होने वाले स्कूलों के लिये दण्ड प्रावधानित करता है।
  • यह अधिनियम शारीरिक दण्ड, मानसिक उत्पीड़न, प्रवेश के लिये स्क्रीनिंग प्रक्रियाओं और कैपिटेशन फीस पर प्रतिबंध लगाता है।
  • यह बच्चों को गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के लिये केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, स्थानीय अधिकारियों, अभिभावकों एवं स्कूलों के लिये कर्त्तव्य अध्यारोपित करता है।
  • यह बिना किसी बोर्ड परीक्षा के प्रारंभिक शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम विकास और पूर्णता प्रमाण पत्र के प्रावधान निर्धारित करता है।
  • यह अधिनियम निगरानी निकायों और शिकायत निवारण प्रणालियों के माध्यम से बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिये तंत्र स्थापित करता है।

RTE अधिनियम की धारा 23 क्या है?

  • धारा 23 शिक्षकों की पात्रता, नियुक्ति और सेवा की शर्तों को संबोधित करती है।
  • इसमें यह अनिवार्य किया गया है कि शिक्षकों के पास केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत शैक्षणिक प्राधिकरण द्वारा निर्धारित न्यूनतम पात्रता होनी चाहिये।
  • केंद्र सरकार अपर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों या अपर्याप्त योग्य शिक्षकों वाले राज्यों में न्यूनतम पात्रता आवश्यकताओं में पाँच वर्ष से अधिक की अवधि के लिये अस्थायी रूप से छूट दे सकती है।
  • जिन शिक्षकों के पास अधिनियम के प्रारंभ में न्यूनतम पात्रता नहीं थी, उन्हें उन्हें प्राप्त करने के लिये पाँच वर्ष का समय दिया गया था।
  • एक बाद के संशोधन में प्रावधान किया गया कि 31 मार्च, 2015 तक नियुक्त या पद पर आसीन ऐसे शिक्षक, जिनके पास न्यूनतम पात्रता नहीं थी, उन्हें ये पात्रताएँ प्राप्त करने के लिये 2017 के संशोधन की तिथि से अतिरिक्त चार वर्ष दिये गए। 
  • यह धारा निर्दिष्ट करती है कि शिक्षकों के लिये वेतन, भत्ते एवं सेवा की शर्तें प्रासंगिक विनियमों द्वारा निर्धारित की जाएँगी। 
  • इस धारा का उद्देश्य न्यूनतम व्यावसायिक मानकों की स्थापना करके गुणवत्तापूर्ण शिक्षण सुनिश्चित करना है, जबकि मौजूदा शिक्षण कार्यबल को अपनी पात्रताएँ उन्नत करने के लिये उचित सुविधा प्रदान करना है।