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आपराधिक कानून

आर्थिक अपराधों के FIR का रद्दीकरण

 29-Apr-2025

दिनेश शर्मा बनाम एमजी केबल्स एंड कम्युनिकेशन लिमिटेड एवं अन्य

"उच्च न्यायालय ने इस तथ्य की अनदेखी की कि आपराधिक षडयंत्र के विश्वसनीय साक्ष्य के लिये गहन विवेचना की आवश्यकता होती है, जिसका उचित मूल्यांकन केवल पूर्ण परीक्षण के माध्यम से ही किया जा सकता है।"

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं प्रसन्ना बी. वराले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं प्रसन्ना बी. वराले ने माना कि उच्च न्यायालय ने FIR को रद्द करने में चूक कारित की है, तथा इस तथ्य पर बल दिया कि मुखौटा कंपनियों के माध्यम से मौद्रिक संव्यवहार के आरोपों से प्रथम दृष्टया आर्थिक अपराध का मामला प्रतीत होता है, जिसके लिये विवेचना आवश्यक है।

  • उच्चतम न्यायालय ने दिनेश शर्मा बनाम एमजी केबल्स एंड कम्युनिकेशन लिमिटेड एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

दिनेश शर्मा बनाम एमजी केबल्स एंड कम्युनिकेशन लिमिटेड एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • दिनेश शर्मा BLS पॉलिमर्स लिमिटेड के अधिकृत प्रतिनिधि थे, जो वायर एवं केबल बनाने में प्रयोग होने वाले प्लास्टिक यौगिकों के निर्माण एवं आपूर्ति में लगी कंपनी थी। 
  • EMGEE केबल्स एंड कम्युनिकेशंस लिमिटेड तांबे के मिश्रधातु, वायर एवं कंडक्टर बनाने के व्यवसाय में संलिप्त थी। 
  • वर्ष 2012 में, EMGEE केबल्स ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से PVC की आपूर्ति के लिये दिनेश शर्मा की कंपनी से संपर्क किया। 
  • प्रतिवादियों ने कथित तौर पर अपनी कंपनी की सकारात्मक वित्तीय स्थिति का चित्रण किया, जिसके कारण अपीलकर्त्ता ने 2012 से 2017 तक संव्यवहार जारी रखते हुए क्रेडिट आधार पर माल की आपूर्ति की। 
  • अप्रैल 2017 एवं जुलाई 2018 के बीच, अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी संख्या 3, जो तकनीकी निदेशक थे, द्वारा हस्ताक्षरित क्रय आदेशों के विरुद्ध 2,20,82,000/- रुपये के सामान की आपूर्ति की।
  • प्रतिवादी कंपनी आपूर्ति किये गए माल का समय पर भुगतान करने में विफल रही।

  • अतिदेय भुगतानों से वित्तीय घाटे के कारण, अपीलकर्त्ता ने बार-बार कंपनी के निदेशकों को बकाया चुकाने के लिये निवेदन किया, जिसके कारण एक निदेशक ने बकाया भुगतान के विरुद्ध तीन चेक जारी किये।
  • अपीलकर्त्ता द्वारा प्रस्तुत पहला चेक बैंक द्वारा अनादरित कर दिया गया।
  • 2 अप्रैल, 2018 को, अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी संख्या 1 के कार्यालय का दौरा किया तथा इसे बंद पाया। कंपनी के प्रतिनिधियों से संपर्क करने के उनके प्रयास आरंभ में असफल रहे।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420, 406 और 120 B के अंतर्गत दण्डनीय अपराधों के लिये पुलिस स्टेशन चोमू, जयपुर में FIR संख्या 218/2018 दर्ज की।
  • अपीलकर्त्ता ने पुनर्भुगतान की मांग करते हुए परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत विधिक नोटिस और दिवाला एवं शोधन अक्षमता नियमों के नियम 5 के अंतर्गत फॉर्म 4 के नोटिस भी भेजे। 
  • 2 मई, 2018 को, देना बैंक ने प्रतिवादी संख्या 1 और उसके निदेशकों के विरुद्ध आईपीसी की धारा 420, 406, 467, 468, 471 और 120बी के अंतर्गत अपराधों के लिये अलग से FIR संख्या 135/2018 दर्ज कराई, जिसमें गबन और धोखाधड़ी गतिविधियों का आरोप लगाया गया। 
  • प्रतिवादी संख्या 2 ने FIR संख्या 218/2018 को रद्द करने की मांग करते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष CrPC की धारा 482 के अंतर्गत याचिका दायर की। 
  • उच्च न्यायालय ने व्यावसायिक संव्यवहार से संबंधित मामले को पूरी तरह से सिविल प्रकृति का मानते हुए FIR को रद्द कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि कार्यवाही को रद्द करने में उच्च न्यायालय ने गंभीर त्रुटि की है, क्योंकि वह यह समझने में विफल रहा कि मुखौटा कंपनियों का निर्माण और उनके माध्यम से आर्थिक संव्यवहार का धोखा देने के स्पष्ट आशय को दर्शाता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब आपराधिक षड्यंत्र के विषय में भौतिक साक्ष्य उच्च न्यायालय के संज्ञान में लाए गए, तो उचित सुनवाई के माध्यम से सच्चाई स्थापित करने से पहले जाँच एजेंसी को पूरी तरह से विवेचना करने की अनुमति देना आवश्यक था। 
  • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि आर्थिक अपराध एक अलग श्रेणी का गठन करते हैं, जो पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं तथा देश के वित्तीय स्वास्थ्य के लिये गंभीर संकट उत्पन्न करते हैं, और इसलिये उन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि हालांकि उच्च न्यायालयों के पास CrPC की धारा 482 के अंतर्गत व्यापक शक्तियां हैं, लेकिन इन शक्तियों का संयम से प्रयोग किया जाना चाहिये, और विवेचना के प्रारंभिक चरण में FIR को रद्द करने में उच्च न्यायालय का कोई औचित्य नहीं था। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय के पास CrPC की धारा 482 के अंतर्गत अपने अधिकारिता का प्रयोग करके FIR को रद्द करने का कोई औचित्य नहीं था, विशेषकर विवेचना के प्रारंभिक चरण में।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 528 क्या है?

  • BNSS की धारा 528 दण्ड प्रक्रिया संहिता की पूर्व धारा 482 को प्रतिस्थापित करती है, जो न्यायालयी प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने एवं न्याय को सुरक्षित करने के लिये उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को संरक्षित करती है।
  • यह प्रावधान नई शक्तियाँ प्रदान नहीं करता है, बल्कि संहिता के अंतर्गत किसी भी आदेश को प्रभावी करने के लिये आवश्यक आदेश देने के लिये उच्च न्यायालय की पहले से उपबंधित अंतर्निहित शक्तियों को मान्यता देता है।
  • धारा 528 के अंतर्गत निहित शक्तियों का प्रयोग किसी संज्ञेय FIR के बाद पुलिस विवेचना को रद्द करने, सांविधिक विवेचना अधिकारों में हस्तक्षेप करने या FIR आरोपों की विश्वसनीयता पर प्रश्न करने के लिये नहीं किया जा सकता है।
  • निर्णयज विधि यह स्थापित करता है कि इन शक्तियों का प्रयोग कार्यवाही को रद्द करने के लिये किया जा सकता है जहाँ कोई विधिक रोक है, जहाँ आरोप अपराध नहीं बनते हैं, या जहाँ साक्ष्य आरोपों का समर्थन करने में विफल होते हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने धारा 528 के अंतर्गत याचिकाओं पर विचार करने के प्रति आगाह किया है, यदि वैकल्पिक उपायों का पालन नहीं किया गया है तथा पहली याचिका दायर करते समय उपलब्ध आधारों पर दूसरी याचिकाओं पर रोक लगा दी है।
  • एक बचत प्रावधान के रूप में, धारा 528 उच्च न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति को असाधारण परिस्थितियों में हस्तक्षेप करने के लिये सुरक्षित रखती है, जब सामान्य उपचार पूर्ण न्याय के लिये अपर्याप्त होते हैं।
  • धारा 528 के अंतर्गत शक्तियों के प्रयोग के लिये न्यायिक संयम की आवश्यकता होती है, विशेषकर उन मामलों में जहाँ विवेचना प्रारंभिक अवस्था में है।
  • ऐसी याचिकाओं पर विचार करते समय, न्यायालयों को व्यक्तियों को अनुचित अभियोजन से बचाने और वैध विवेचना की अनुमति देने के बीच संतुलन बनाना चाहिये, विशेषकर आर्थिक अपराधों के लिये।
  • ये शक्तियाँ दुरुपयोग को रोक सकती हैं, जहाँ आपराधिक कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण आशय या निजी दुर्भावना से उपजे गुप्त उद्देश्यों के साथ आरंभ की जाती है। 
  • न्यायालय सामान्य तौर पर धारा 528 के अंतर्गत आर्थिक अपराध के मामलों में कार्यवाही को रद्द करने के विषय में अधिक सतर्क रहते हैं, क्योंकि वे उनकी विशिष्ट प्रकृति एवं वित्तीय प्रणाली पर व्यापक प्रभाव को पहचानते हैं।

सिविल कानून

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत परिसीमा अवधि

 29-Apr-2025

झारखंड ऊर्जा उत्पादन निगम लिमिटेड बनाम मेसर्स भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड

"न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि आदेश XX नियम 1 (1) वाणिज्यिक न्यायालयों को निर्णय की प्रतियाँ उपलब्ध कराने का कर्त्तव्य अध्यारोपित करता है, लेकिन इससे तात्पर्य यह नहीं है कि पक्षकार अपनी क्षमता में प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करने के प्रयास के सभी उत्तरदायित्व से बच सकते हैं।"

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि आदेश XX नियम 1 (1) वाणिज्यिक न्यायालयों को निर्णय की प्रतियाँ उपलब्ध कराने का कर्त्तव्य अध्यारोपित करता है, लेकिन इससे तात्पर्य यह नहीं है कि पक्षकार अपनी क्षमता में प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करने के प्रयास के सभी उत्तरदायित्व से बच सकते हैं।

  • उच्चतम न्यायालय ने झारखंड ऊर्जा उत्पादन निगम लिमिटेड बनाम मेसर्स भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (2025) मामले में यह निर्णय सुनाया।

झारखंड ऊर्जा उत्पादन निगम लिमिटेड बनाम मेसर्स भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता आवेदन दाखिल करने से छूट मांग रहा है। 
  • यह मामला झारखंड उच्च न्यायालय के 14 फरवरी 2025 के एक निर्णय से उत्पन्न हुआ है, जिसने अपील दायर करने में 301 दिन के विलंब को क्षमा करने के लिये परिसीमा अधिनियम, 1963 (LA) की धारा 5 के अंतर्गत याचिकाकर्त्ता के आवेदन को खारिज कर दिया। 
  • प्रतिवादी, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (एक केंद्र सरकार की कंपनी) ने MSME काउंसिल कानपुर के एक पंचाट के आधार पर 26,59,34,854 रुपये और 15.75% ब्याज वसूलने के लिये याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध एक सिविल वाद दायर किया था। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने अपनी सांविधिक अपील 301 दिन विलंब से दायर की तथा इस विलंब को क्षमा करने का अनुरोध किया, लेकिन उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि LA की धारा 5 के अंतर्गत कोई पर्याप्त कारण नहीं दिखाया गया था।
  • याचिकाकर्त्ताओं के अधिवक्ता, श्री सौरभ कृपाल एवं श्री जैन ए. खान ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने वाणिज्यिक न्यायालयों के लिये विशेष रूप से सम्मिलित सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश XX नियम 1 के प्रावधानों पर विचार न करके चूक कारित की है। 
  • उन्होंने आगे तर्क दिया कि परिसीमा अवधि ओपन कोर्ट में निर्णय की घोषणा से आरंभ नहीं होनी चाहिये, बल्कि आदेश CPC की XX नियम 1 के अनुसार उस समय से आरंभ होनी चाहिये जब निर्णय की एक निःशुल्क प्रति पक्षों को प्रदान की जाती है। 
  • इस प्रकार, मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि CPC के आदेश XX नियम 1(1) में यह प्रावधान है कि:
    • वाणिज्यिक न्यायालय, वाणिज्यिक प्रभाग या वाणिज्यिक अपील प्रभाग, जैसा भी मामला हो, विचारण के समापन के नब्बे दिनों के अंदर निर्णय देगा तथा उसकी प्रतियाँ विवाद के सभी पक्षों को इलेक्ट्रॉनिक मेल या अन्यथा के माध्यम से जारी की जाएंगी।
  • न्यायालय ने माना कि "दिये गए निर्णय एवं उसकी प्रतियाँ विवाद के सभी पक्षों को इलेक्ट्रॉनिक सामग्री या अन्यथा के माध्यम से जारी की जाएंगी" का निर्वचन किया जाना चाहिये।
  • विपक्षी पक्ष ने तर्क दिया है कि उपरोक्त प्रावधान अनिवार्य है और निर्देशात्मक नहीं है, इसलिये परिसीमा अवधि केवल उस तिथि से आरंभ होगी, जिस दिन किसी भी तरीके से पक्ष को निर्णय की प्रति प्रदान की जाएगी।
  • हालाँकि, न्यायालय ने माना कि उपरोक्त प्रावधान अनिवार्य नहीं हो सकते, क्योंकि इसका अर्थ यह होगा कि जब तक रजिस्ट्री निर्णय की प्रति प्रदान नहीं करती, भले ही इसकी मांग न की गई हो, तब तक परिसीमा अवधि निर्णय की घोषणा की तिथि से आरंभ नहीं होगी।
  • न्यायालय ने कहा कि हाउसिंग बोर्ड हरियाणा बनाम हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन (1995) का निर्णय, जिसमें यह प्रावधान है कि आदेश को चुनौती देने की समय-सीमा ऐसी सूचना की तिथि से आरंभ होगी, केवल तभी लागू होगी जब पक्षकारों द्वारा आदेश प्राप्त करने के लिये किये गए सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद भी उसे प्राप्त नहीं किया जा सका और जिसके परिणामस्वरूप अपील दायर करने में अपरिहार्य विलम्ब हुआ। 
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा विधि का एक मुख्य सिद्धांत पक्षकारों में अपने अधिकारों के प्रति तत्परता को प्रोत्साहित करना है। 
  • परिसीमा विधि को इस तरह से नहीं पढ़ा जा सकता है कि पक्षकार अपने अधिकारों के प्रति किसी भी तरह का सम्मान दिखाना बंद कर दें तथा असामयिक सूचना के बहाने स्वयं सतर्क हुए बिना वाद संस्थित कर सकें।
  • इस प्रकार न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि केवल इसलिये कि आदेश XX नियम I वाणिज्यिक न्यायालयों को निर्णय की प्रतियाँ उपलब्ध कराने का कर्त्तव्य अध्यारोपित करता है, इससे तात्पर्य यह नहीं है कि पक्षकार अपनी क्षमता में प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करने का प्रयास करने की सभी उत्तरदायित्व से बच सकते हैं।
    • इस प्रकार के किसी भी निर्वचन से परिसीमा विधि के मूल सिद्धांत तथा समय पर निपटान सुनिश्चित करने के अधिनियम, 2015 के हितकर उद्देश्य को झटका लगेगा।
  • वर्तमान मामले के तथ्यों के अनुसार, अपील दायर करने में विलंब 301 दिन है - जो कि LA की धारा 5 के अंतर्गत शक्ति के प्रयोग में क्षमा किये जाने के लिये उच्चतम न्यायालय के निर्णय द्वारा अनुमत 60 दिन + 60 दिन = 120 दिन से कहीं अधिक है। 
  • इसलिये, आवेदकों की उपेक्षा के कारण हुई ऐसी अत्यधिक विलंब क्षमा करने योग्य नहीं है।

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 द्वारा सम्मिलित आदेश XX नियम 1 (1) क्या है?

  • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 द्वारा आदेश XX नियम 1 (1) डाला गया था। 
  • प्रावधान में प्रावधान है:
    • वाणिज्यिक न्यायालय, वाणिज्यिक अपीलीय न्यायालय, वाणिज्यिक प्रभाग या वाणिज्यिक अपीलीय प्रभाग को विचारण पूरी होने के 90 दिनों के अंदर निर्णय देना होगा। 
    • विवाद में शामिल सभी पक्षों को निर्णय की प्रतियाँ जारी की जानी चाहिये। 
    • प्रतियाँ इलेक्ट्रॉनिक मेल या अन्य माध्यमों से वितरित की जा सकती हैं।